कौन रोकेगा
सूरज की चमक
औ' कब तक।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
गजल
डॉ. मंजूश्री गर्ग
पानी में पानी की बूँदें लगती हैं सुन्दर।
जीवन में जीवन की झलकें लगती हैं सुन्दर।।
ऐसे भी ना रूठिये कि मना भी ना पायें।
प्यार की बातें रूठने में लगती हैं सुन्दर।।
सुर-ताल को ना तोड़कर गीत गाइये।
पुरवा में पत्तों की सरगमें लगती हैं सुन्दर।।
हर भाव को ना छंद के बंधन में बाँधिये।
कभी-कभी लहरों की मुक्तकें लगती हैं सुन्दर।।
पंख जल गये हैं सभी कड़ी धूप में।
फिर भी मन की उड़ानें लगती हैं सुन्दर।।
पपइया
डॉ. मंजूश्री गर्ग
बाग के कोनों में
देख उगा
‘पपइया’
बाल-मन मुस्काया.
निकाल कर उसे
मिट्टी से
धोया, घिसा
बाजा बनाया.
जब मन में आया
‘पपइया’ बजाया.
नहीं सोच पाया
तब उसका मन
जुड़ा रहता ये ‘पपइया’
कुछ बरस यदि मिट्टी से
एक दिन
बड़ा बनता रसाल-वृक्ष
और
बसंत बहार में
बौरों से लद जाता.
पत्तों में छुप के
कोयल कूकती
गर्मी के आते ही
डाली-डाली
आमों से लद जाती.
पुरूरवा की कलम से
डॉ. मंजूश्री गर्ग
देवलोक की परी हो तुम
जानता हूँ, इसी से
चाहकर भी कभी
पाने की कोशिश नहीं की।
मुस्कानों के फूल
खिलाता रहा
और गंध की स्याही में
डुबो-डुबो कर लिखता रहा।
भेजता रहा संदेशे
पवन के हाथ।
गंध तुम्हें पसन्द थी
आखिर तुम बेचैन हो गयीं
पाने को उसी गंध को।
प्यार मेरा सच्चा था
इसी से मजबूर हो गयीं
आने को भूलोक पर।
उर्वशी! सच कहूँ
तुम्हे पाकर
जीवन मेरा
सार्थक हुआ है
बरसों की तपस्या का फल
आज मुझे मिला है।