नजर में सज के नगीना बन गये।
गिर गये तो कहलायेंगे पत्थर।।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
माँ को भूले, माटी भूले
भूल गये गाँव शहर।
पिज्जा, बर्गर की खुशबू में
भूले रोटी की महक।।
खारे आँसू सारे सागर ने पी लिये
और मीठा जल लिये बहती रही नदी।
तारे झिलमिलायें
चाँद मुस्कुराये।
रात में तुम आये
मन भी गुनगुनाये।।
बहने दो स्नेह की सहज, सरस, मधुर धारा।
सिंचित हो जिससे महके जीवन की बगिया।।
ठोकर नहीं कहती कि रोक दो बढ़ते कदम।
कहती है बढ़ते रहो आगे सँभल-सँभल कर।।
जीवन खिले तो खिले ऐसे जैसे खिले डाल पर फूल,
उपवन को सजाये और पवन को महकाये।
यश फैले तो फैले ऐसे जैसे फैलें प्रातः की किरणें
अंधकार को दूर करें और उजियारा फैलायें।।