जब तक कवि और लेखक किसी और
व्यक्ति के अधिकारों में हस्तक्षेप किये बिना, बिना किसी अन्य व्यक्ति के दबाब में
आये हुये लिखता है तब तक उसकी कलम स्वाधीन होती है और कवि और लेखक के लिये उससे
बड़ा सुख कोई नहीं होता. इसी संवेदना की अभिव्यक्ति कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में
की है-
राजा बैठे सिंहासन
पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन
कलम
जिसने तलवार शिवा को
दी
पतवार थमा दी लहरों
को
खंजर की धार हवा को
दी
अग-जग के उसी विधाता
ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन
कलम।
गोपाल सिंह नेपाली
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