कल-कल, छल-छल बहती, गंगा की निर्मल धारा।
सुबह सूरज बिखेरे, स्वर्णिम किरणें उस पर।।
रेतीले तट पर लगते, मेले मावस-पूनों।
जलते अनगिन दीप, गंगा की धारा पर।।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
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