डॉ0 मंजूश्री गर्ग
भक्त ध्रुव राजा उत्तानपाद के पुत्र थे और राजा स्वायम्भुव मनु के पौत्र थे.
राजा उत्तानपाद के दो रानियाँ थी. बड़ी रानी का नाम सुनीति था जो ध्रुव की माँ थी,
छोटी रानी का नाम सुरूचि था जिसके पुत्र का नाम उत्तम था. राजा सुरूचि को अधिक
प्यार करते थे, इसी कारण उसके पुत्र उत्तम को भी ध्रुव से अधिक प्यार करते थे.
एक दिन राज सिंहासन पर बैठकर राजा उत्तानपाद अपने पुत्र उत्तम को गोद में
बैठाकर प्यार कर रहे थे, तभी पाँच बर्षीय ध्रुव भी वहाँ आया और उसके मन में भी पिता
की गोद में बैठने की इच्छा हुई, किन्तु राजा ने रानी सुरूचि के डर से ध्रुव को गोद
में नहीं लिया. उस समय सुरूचि ने ध्रुव को सुनाते हुये कहा, “हे! ध्रुव तूने पूर्वजन्म में
हरि भगवान की तपस्या व स्मरण नहीं किया, इसी से तू अभागा पैदा हुआ. यदि तू
पूर्वजन्म में तपस्या करता तो मेरे गर्भ से उत्पन्न होता और तब तू राजा की गोद में
बैठने का भी अधिकारी होता”. ध्रुव वहाँ से रूदन करता हुआ अपनी माँ सुनीति के पास चला
गया. सुनीति ने ध्रुव को रोता हुआ देखकर अपनी गोद में ले लिया, कारण जानने पर वो
भी बहुत दुखी हुई.
सुनीति ने ध्रुव से कहा, “कुमाता(सुरूचि) सही कहती हैं, श्री नारायण की तपस्या करने
से ही मनुष्य की सब अभिलाषायें पूर्ण हो सकती हैं, अतः तुझे उन्हीं की शरण में
जाना चाहिये. माता की बात सुनकर ध्रुव घर से बाहर निकल श्री नारायण
की तपस्या के लिये वन की ओर चला गया. वह अपने मन में सोचता जा रहा था कि मैं
अज्ञानी बालक श्री नारायण को किस प्रकार प्राप्त कर सकूँगा. तभी मार्ग में ध्रुव
को नारद जी मिले जो उसकी परीक्षा लेने के लिये ही आये थे कि ध्रुव अपने प्रण पर
अटल हैं या नहीं. नारद जी ने ध्रुव को घर वापस जाने के लिये काफी समझाया लेकिन
ध्रुव को अपने प्रण पर अटल देखकर नारद जी ने ध्रुव को श्री नारायण के दर्शन
प्राप्त करने का उपाय बताया और कहा- “मथुरापुरी जाकर, वहाँ उत्तर
दिशा की ओर मुख करके श्री नारायण जी के स्वरूप – उनका स्याम रंग है, कमल के
समान नेत्र हैं, सिर पर रत्न जड़ित मुकुट एवं कानों में मकराकृत कुंडल धारण किये
हुये हैं, मुख चन्द्रमा के समान है, बैजंती माला एवं कौस्तुभ मणि गले में है और
मंद-मंद मुस्कान है- का ध्यान करते हुये द्वादशाक्षर मंत्र(ऊँ नमो भगवते
वासुदेवाय) का जप करना. श्री नारायण भगवान अवश्य प्रसन्न होंगे और तुम्हारी
मनोकामना पूरी होगी”. ध्रुव ने देवर्षि नारद जी को प्रणाम किया और मथुरापुरी को
चल दिया.
ध्रुव के घर त्यागने के बाद राजा उत्तानपाद और सुनीति दोनों ही घर पर बहुत
दुखी हुये, सोच रहे थे अबोध बालक न जाने कहाँ भटक रहा होगा. तभी नारद जी ने आकर
उन्हें समझाया कि ध्रुव अपने प्रण पर अटल है. मैंने उसे घर जाने के लिये बहुत
समझाया, लेकिन वह नहीं माना, उसके मन में नारायण जी से मिलने की सच्ची प्रीति है.
उसका अटल प्रण देखकर ही मैंने उसे नारायण जी की सहज प्राप्ति का मार्ग बताया है,
मैं अभी वहीं से आ रहा हूँ. तुम चिन्ता मत करो. ध्रुवको ऐसा अटल पद प्राप्त होगा, जैसा तुम्हारे वंश में आज तक किसी को नहीं मिला.
उधर ध्रुव ने भी मथुरापुरी पहुँचकर कुश-आसन बिछाकर उत्तर की ओर मुँह करके,
नारायण जी के चतुर्मुखी स्वरूप का ध्यान करते हुये, द्वादश अक्षर मंत्र(ऊँ नमो
भगवते वासुदेवाय) का जप करना प्रारम्भ कर दिया. धीरे-धीरे ध्रुव श्री नारायण जी के
ध्यान में इतना लीन हो गया कि उसने अन्न-जल का भी त्याग कर दिया. छठे महीने ध्रुव
ने अपना मुँह बंद करके श्वाँस लेना भी छोड़ दिया और उसका समस्त अन्तःकरण श्री
नारायण जी के स्वरूप से द्रवीभूत हो गया. तब श्री नारायण जी ने अपने चतुर्मुखी
स्वरूप में ध्रुव को दर्शन दिये, दर्शन पाकर ध्रुव अति प्रसन्न हुआ. नारायण जी ने
ध्रुव से वरदान माँगने को कहा तो ध्रुव ने कहा, “हे भगवन्! जब मुझे आपके चरणों के
दर्शन प्राप्त हो गये, फिर माँगने के लिये और क्या शेष है मैं तो आपके चरणों की
भक्ति चाहता हूँ”. भक्त ध्रुव से भगवान अति प्रसन्न हुये और कहा, “अभी तुम घर जाओ, तुम्हारे
माता-पिता तुम्हारी राह देख रहे हैं. राजगद्दी तुम्हें ही मिलेगी, तुम 36,000 वर्ष
तक राज्य करोगे और मरने पर हम तुझे रहने के लिये ब्रह्म-लोक से भी ऊँचे ध्रुव-लोक
में स्थान देंगे”. देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्प वर्षा की. उसी समय नारद जी
ने राजा उत्तानपाद को आज्ञा दी कि “तुम्हारा पुत्र प्रभु दर्शन
कर घर आ रहा है, उसे आदर पूर्वक घर ले आओ”. नारद जी के वचन सुनकर राजा
उत्तानपाद बहुत प्रसन्न हुये और उसे सहर्ष महल में ले आये. कुछ समय बीत जाने पर
ध्रुव के युवा होने पर राजा उत्तानपाद ध्रुव को राजसिंहासन पर बैठाकर स्वयं तपस्या
करने वन को चले गये.
राजसिंहासन पर आसीन होने के उपरान्त ध्रुव ने ऐसा नीतिपूर्वक राज्य किया कि
संपूर्ण प्रजा प्रसन्न हो गयी. राज्य में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे.
कोई आदमी दुखी या दरिद्र न था. ध्रुव ने अपने भाई उत्तम को भी राज्य-अधिकार सौंप
रखे थे, जिन्हें वह ध्रुव की आज्ञा से प्रसन्नता पूर्वक करता था. अपने पुत्र उत्कल
के युवा होने पर ध्रुवजी ने राजसिंहासन उत्कल को सौंप दिया और स्वयं अपनी रानी
सहित बद्रीनारायण में पहुँचकर श्रीनारायण का तप और स्मरण करने लगे.
ध्रुव जी के शरीर त्यागने पर स्वर्ग से सुन्दर विमान आया और पार्षदों ने
उन्हें ध्रुवलोक चलने को कहा. तब ध्रुव ने कहा, “मेरी छोटी माता सुरूचि गुरू
के समान है, जिनकी प्रेरणा से ही मैं इस पद को प्राप्त कर सका हूँ. अतः मैं उनको
भी ध्रुवलोक ले जाना चाहता हूँ”. तब पार्षद बोले, “हे ध्रुव जी! प्रभु ने हमें आपकी दोनों
माताओं सहित ही आपको ले आने की आज्ञा दी है, वे आपसे पहले ही ध्रुवलोक पहुँच जायेंगी”. यह सुनकर ध्रुव बहुत हर्षित
हुये और पत्नी सहित विमान में बैठकर ध्रुवलोक को चले गये. देवताओं ने उनपर फूल
बरसाये.
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