शून्यः
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जिंदगी है शून्य, शून्य के
समान
जहाँ कभी दुःख की आती
घटायें
जैसे शून्य में छा जाते है
बादल।
और कभी सुख की फूटती किरणें
कि जैसे बिखरती हैं किरणें
रवि की।
जहाँ कभी फैलती रवि की
लाली,
और कभी फैलती शशि की
ज्योति।
जहाँ कभी फैलती रवि की
प्रचंड अग्नि,
और कभी फैलती शशि की
स्निग्ध शांति।
शून्य में ही मँडरा रहे सब
नक्षत्र-गण
और विहार कर रहे विविध
पक्षी-गण.
शून्य तो शून्य है, पर रहता
न कभी शून्य
जिंदगी भी है शून्य, पर
रहती न कभी शून्य।
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