अक्षर ज्ञान
ब्रह्म ज्ञानमय, जो
क्षर ना होता।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
'अग्नि पुराण' में 'भगवान' का प्रयोग विष्णु के लिये किया गया है क्योंकि उसमें 'भ' से भर्त्ता के गुण विद्यमान हैं और 'ग' से गमन अर्थात् प्रगति या सृजन कर्त्ता का बोध होता हैं। विष्णु को सृष्टि का पालन कर्त्ता और श्रीवृद्धि का देवता माना गया है। 'भग' का पूरा अर्थ ऐश्वर्य, श्री, वीर्य, शक्ति, ज्ञान, वैराग्य और यश होता है जो कि विष्णु में निहित है। 'वान' का प्रयोग प्रत्यय के रूप में हुआ है, जिसका अर्थ धारण करनें वाला अथवा चलाने वाला होता है अर्थात् जो सृजनकर्त्ता, पालन कर्त्ता हो, श्रीवृद्धि करने वाला हो, यश और ऐश्वर्य देने वाला हो, वह भगवान है। विष्णु में ये सभी गुण विद्यमान हैं।
-अग्नि पुराण से
कोविदार वृक्ष/कचनार
डॉ. मंजूश्री
गर्ग
अयोध्या में
राम मंदिर के ध्वज में तीन प्रतीक चिह्न हैं-चमकता हुआ सूर्य, ओम् और कोविदार
वृक्ष। कोविदार वृक्ष देव वृक्ष है जिसे ऋषि कश्यप ने मंदार और पारिजात के वृक्षों
से बनाया था। यह रामचन्द्रजी के समय भी अयोध्या के राजध्वज में अंकित था। इसे
कचनार के नाम से भी जाना जाता है। अयोध्या के राम मंदिर परिसर में भी यह वृक्ष
लगाया गया है। श्रीकृष्ण को भी कचनार का वृक्ष बहुत प्रिय था, वृंदावन में बहुतायत
से ये वृक्ष पाये जाते हैं।
कचनार का वृक्ष
सड़क किनारे या उपवनों में अधिकांशतः पाया जाता है। नवंबर से मार्च तक के महीनों
में अपने गुलाबी व जामुनी रंगों के फूलों से लदा ये वृक्ष अपनी सुंदरता से सहज ही
सबका मन मोह लेता है।
सन् 1880 ई.
में हांगकांग के ब्रिटिश गवर्नर सर् हेनरी ब्लेक(वनस्पतिशास्त्री) ने अपने घर के
पास समुद्र किनारे कचनार का वृक्ष पाया था। उन्हीं के सुझाये हुये नाम पर कचनार का
वानस्पतिक नाम बहुनिया ब्लैकियाना पड़ गया। कचनार हांगकांग का राष्ट्रीय फूल है और
इसे आर्किड ट्री के नाम से भी जाना जाता है। भारत में मुख्यतः कचनार के नाम से ही
जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कन्दला या कश्चनार कहते हैं। भारत में यह उत्तर से
दक्षिण तक सभी जगह पाया जाता है।
कचनार के पेड़
की लंबाई 20 फीट से 40 फीट तक होती है। कचनार अपनी पत्तियों के आकार के कारण सहज
ही पहचान में आ जाता है। पत्तियाँ गोलाकार होती हैं और अग्रभाग से दो भागों में
बँटी होती हैं। मध्य रेखा से आपस में जुड़ी होती हैं। इसकी पत्तियों की तुलना ऊँट
के खुर से भी की जाती है। कचनार के गुलाबी रंग के फूल के पेड़ों में जब फूल आने
शुरू होते हैं तो अधिकांशतः पत्तियाँ झड़ जाती हैं। जामुनी रंग के कचनार के पेड़ों
में प्रायः फूलों के साथ पत्तियाँ भी रहती हैं। कचनार के फूलों में पाँच पँखुरियां
होती हैं और फूलों से भीनी सुगंध आती है।
कचनार के पेड़ भूस्खलन को भी रोकते हैं। कचनार के फूल की कली देखने में भी सुंदर होती है और खाने में स्वादिष्ट भी। कचनार के वृक्ष अनेक औषधि के काम आते हैं व इससे गोंद भी निकलता है। कचनार की पत्तियाँ दुधारू पशुओं के लिये अच्छा आहार होती हैं।
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लौंग
डॉ. मंजूश्री गर्ग
लौंग एक कलिका है। लौंग का वानस्पतिक नाम Syzygium aromaticum है। अंग्रेजी में इसे clove कहते हैं जो लैटिन भाषा
के क्लैवस(clavus) से आया है। लौंग एक प्रकार का गरम मसाला
है जो भारतीय पकवानों व औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। पूजा में भी लौंग का
प्रयोग किया जाता है। नवरात्रों में दुर्गाजी की पूजा में ज्योत में लौंग जोड़ा
चढ़ाने का विधान है।
चीन में लौंग का प्रयोग ईसा से तीन शताब्दी पूर्व से होता आ
रहा है लेकिन यूरोप में इसका प्रयोग सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगाल में मलैका द्रीप
खोज के बाद शुरू हुआ। प्रायः सभी उष्ण कटिबंध देशों में लौंग का उत्पादन होता है-
भारत, जमैका, ब्राजील, सुमात्रा, पोबा, वेस्ट इंडीज, आदि।
लौंग के बीज से पौधे धीरे-धीरे पनपते हैं, इसलिये नर्सरी से
चार फुट ऊँचे पौधे लाकर लगाना अच्छा रहता है। बर्षा के मौसम में 20 फुट से 30 फुट
की दूरी पर यह पौध लगानी चाहिये। पहले वर्ष तेज हवा व धूप से पौधों को बचाना
चाहिये। लौंग के पेड़ पर छठे वर्ष फूल लगने आरंभ हो जाते हैं और 12 से 25 वर्ष तक
अधिक उपज होती है पर 150 वर्ष तक थोड़ा-बहुत लौंग मिलता रहता।
लौंग के फूल गुच्छों सें सुर्ख लाल खिलते हैं, लेकिन फूल
खिलने से पहले ही कलियाँ तोड़ ली जाती हैं। ताजी कलियों का रंग ललाई लिये हुये या
हरा होता है। अच्छे मौसम में इन्हें धूप में सुखा लेते हैं और बदली होने पर आग पर
सुखाते हैं। सुखाने के बाद लगभग 40% लौंग ही बचती हैं।
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