Saturday, April 30, 2016

श्री कृष्ण-राधा प्रेम-प्रसंग

डॉ0 मंजूश्री गर्ग






श्री कृष्ण जब लगभग पाँच वर्ष के थे, तो उनके माता-पिता यशोदा और नंद बाबा कंस के अत्याचारों से तंग आकर अन्य गोप-गोपिकाओं के साथ गोकुल छोड़कर वृंदावन में आ बसे. वृंदावन में बहुत ही सुंदर वन थे, छोटी-छोटी गलियाँ थीं, पास ही यमुना नदी बहती थी. वृंदावन के पास ही बरसाने गाँव था, जहाँ बृषभानु और कीर्ति की पुत्री राधारानी रहती थी. राधारानी प्रायः अपनी सखियों के संग खेलने के लिये वृंदावन आती थी. श्री कृष्ण की नटखट शरारतें; जैसे---माखन चोरी, मटकी फोड़ना, आदि आस-पास के गाँवों में चर्चा के विषय बने हुये थे. राधा के मन में भी कान्हा को देखने की जिज्ञासा थी.
     एक बार श्रीकृष्ण पीताम्बर पहने, पटुका कमर में बाँधे, मोर-मुकुट धारण किये यमुना तट पर अपने सखाओं के साथ खेल रहे थे. तभी राधारानी जिनकी आयु लगभग आठ बरस की होगी, अपनी सखियों के साथ यमुना तट पर स्नान करने आयीं. श्री कृष्ण और राधा की परस्पर आँखें मिलीं और दोनों एक दूसरे को देखते ही रहे. दोनों के हृदय में एक दूसरे के प्रति प्रीति जाग उठी. तब बाँके बिहारी ने हँसकर राधा से उनका नाम पूछा----हे सुंदरी! तुम कौन हो, तुम्हारा नाम क्या है और किसकी पुत्री हो? तुम्हें पहले तो यहाँ नहीं देखा.तब श्री कृष्ण के प्रेम भरे प्रश्नों को सुनकर राधारानी ने उत्तर दिया, ‘ मैं वृषभानु-कीर्ति की पुत्री राधा हूँ, पास के गाँव बरसाने में रहती हूँ और प्रायः अपनी सखियों के साथ यहाँ आया करती हूँ. मैंने बहुत दिनों से नंदजी के बेटे के बारे में सुन रक्खा था कि वे बड़े ही नटखट हैं, माखन चुराते हैं तो लगता है वो तुम्हीं हो.तब श्री कृष्ण ने हँसते हुये कहा, ‘परंतु मैंने तुम्हारा तो कुछ सामान चोरी नहीं किया. आओ! हमसे मित्रता कर लो, दोनों साथ-साथ खेलेंगे.राधारानी अंतःकरण में श्री कृष्ण की बातों से मोहित हो रही थीं, उन्होंने श्री कृष्ण से कहा, ‘अब देर हो रही है, हमें घर वापस जाना है. तुम सायं हमारे यहाँ गाय दुहने आ जाना.जब श्री कृष्ण राधा के यहाँ गाय दुहने गये तो वहाँ एकांत में राधा और कृष्ण ने प्रेमपूर्वक बातें की. दिन-प्रतिदिन राधा और कृष्ण किसी ना किसी बहाने एक-दूसरे से मिलने लगे. कभी वृंदावन में तो कभी बरसाने में. दोनों की परस्पर प्रीति देखकर सभी ब्रजवासी बहुत सुख पाते थे.
    जब श्री कृष्ण मुरली बजाते थे , तो राधा मंत्र-मुग्ध सी मुरली की धुन में खो जाती थीं. कभी-कभी राधा को लगता था कि कान्हा मुझसे ज्यादा बाँसुरी से प्रेम करते हैं. लेकिन यदि कुछ समय कान्हा बाँसुरी नहीं बजाते थे तो राधा बेचैन हो जाती थीं. सावन के महीने में ब्रज में जगह-जगह झूले पड़ जाते थे. जहाँ राधा-कृष्ण प्रेम- पूर्वक झूला झूलते थे. सखियाँ उन्हें झूला झूलाने में आनंद का अनुभव करती थीं. कभी कृष्ण स्वयं फूल तोड़्कर राधा का फूलों से श्रंगार करते, कभी राधा अन्य सखियों के साथ मिल कान्हा का सखी रूप में श्रंगार करतीं. एक बार श्री कृष्ण ने शरद पूर्णिमा की रात को महारासका आयोजन किया और अन्य गोपियों के साथ कृष्ण और राधा ने महारास में आनंद मग्न होकर नृत्य किया.
  एक बार श्री कृष्ण अन्य गोपियों के साथ राधा को अपने घर ले गये. नंद बाबा और यशोदा राधा से मिलकर बहुत प्रसन्न हुये. विदा करते समय यशोदा ने राधा को उपहार भी दिये. ऐसे ही एक बार जब श्री कृष्ण राधा के घर गये तो बृषभानु और कीर्ति ने उनका हार्दिक स्वागत किया और भेंट आदि देकर विदा किया. वास्तव में राधा और कृष्ण के माता-पिता ही नहीं, वरन सभी ब्रजवासी हृदय से चाहते थे कि कृष्ण और राधा की जोड़ी बहुत ही मनोरम है. दोनों का विवाह एक-दूसरे से होना ही चाहिये. किंतु विधाता को कुछ और खेल खेलना था.
   एक दिन कंस ने अक्रूर के द्वारा बलराम और श्री कृष्ण को मथुरा बुलाया. कृष्ण और बलराम का मथुरा जाने का समाचार सुनकर नंद-यशोदा ही नहीं, सब गोपियाँ व ग्वाले विरह सागर में डूब गये. गोपियों ने श्री कृष्ण को रोकने के बहुत प्रयत्न किये, लेकिन श्री कृष्ण कहाँ रूकने वाले थे उन्हें तो आगे अनेक लीलायें करनी थी. तब सब गोपियों ने मिलकर राधा से कहा, “राधा रानी! तुम यदि श्री कृष्ण को रोकोगी, तो वो अवश्य रूक जायेंगे. तुम्हारी बात तो नहीं टाल सकते.” तब राधा ने कहा, “श्री कृष्ण का कर्मक्षेत्र बहुत बड़ा है. मैं उनके कर्मक्षेत्र की बाधा नहीं शक्ति हूँ. वो जहाँ भी रहें मुझसे अलग नहीं हो सकते. मेरे रोम-रोम में श्री कृष्ण बसे हैं, जब भी दर्पण देखती हूँ तो नयनों में श्री कृष्ण की ही मूरत दिखाई देती है. चाँद की चाँदनी तो सारी पृथ्वी पर फैलती है, हमारा आँचल जितना बड़ा होता है उतनी ही हमें मिलती है. इसी तरह श्री कृष्ण का प्रेम फलक बहुत विस्तृत है, हमारे आँचल में जितना आना था आ गया.” इस तरह राधा ने न तो श्री कृष्ण को गोपियों की तरह रोका, न टोका, बस एक टक श्री कृष्ण के रथ को जाता हुआ देखती रहीं. तब श्री कृष्ण ने अक्रूर से रथ रोकने के लिये कहा और राधा से मिलने आये. श्री कृष्ण का मन भी राधा से दूर जाने पर विचलित हो रहा था. दोनों के गले रूँधे हुये थे. श्री कृष्ण और राधा एक-दूसरे से कुछ भी नहीं कह पाये बस एक दूसरे को निहारते रहे; फिर जाते समय श्री कृष्ण ने अपनी मुरली राधा को दे दी. राधा ने मुरली अपने हृदय से लगा ली.
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Wednesday, April 27, 2016

हिन्दी-हिन्दुस्तान
भारत का पर्यायवाची नाम हिन्दुस्तान है और यहाँ का हर व्यक्ति हिन्दुस्तानी है. जो भी भारत की मिट्टी में रच-बस गया है, उसे अपने को हिन्दुस्तानी कहलाने में गर्व महसूस होना चाहिये, चाहे वो किसी भी जाति का हो, किसी भी धर्म का अनुयायी हो या कोई भी भाषा बोलने हो, उसकी सर्वप्रथम पहचान हिन्दुस्तानी की है. उसका सर्वप्रथम धर्म हिन्दुस्तान की रक्षा करना व सम्मानित हिन्दुस्तान में सम्मान से जीना है.
प्रत्येक व्यक्ति की सर्वप्रथम भाषा हिन्दी होनी चाहिये, जो हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा है. हिन्दी भाषा बहुत ही सहज और सरल है और इसमें इतना लचीलापन है कि अन्य किसी भाषा के शब्द सहज ही इसकी बोलचाल की भाषा में शामिल हो जाते हैं।


      डॉ0 मंजूश्री गर्ग
नचिकेता की कथा

-डॉ0 मंजूश्री गर्ग

नचिकेता प्रसिद्ध ऋषि वाजश्रवा के पुत्र थे. एक बार वाजश्रवा ने एक अनोखा अनुष्ठान किया, जिसमें अपनी सारी धन-संपत्ति दीन-दुखियों व ब्राह्मण-पुरोहितों को दान कर दी. जब वे अपनी सारी संपत्ति बाँटने में व्यस्त थे, तो बालक नचिकेता ने मन में सोचा कि अवश्य पिताजी ने मुझे भी दान कर दिया है. तब उसके मन में जिज्ञासा जाग्रत हुई कि पिताजी ने दान में मुझे किसे दिया है. उसने अपने पिता से पूछा, “पिताजी, आपने मुझे किसको दान कर दिया है.”

वाजश्रवा ने कोई उत्तर नहीं दिया. नचिकेता के बार-बार पूछने पर वाजश्रवा ने झुँझला कर कहा, “यमराज को.” यह सुनकर नचिकेता सहित आसपास खड़े जन स्तब्ध रह गये. कहने के बाद वाजश्रवा को धक्का सा लगा. नचिकेता सोचने लगा कि, “मैंने ऐसा क्या किया कि पिता को मेरी मृत्यु की कामना करनी पड़ी. अवश्य ही यही मेरा प्रारब्ध है कि यमराज से मेरी भेंट हो."

सभी के मना करने पर भी नचिकेता यमराज से मिलने यमलोक चला गया, किंतु उस समय वहाँ यमराज नहीं थे. तीन दिन, तीन रातें बिना कुछ खाये-पिये वह यमराज की प्रतीक्षा करता रहा. जब यमराज लौटे तो बालक के अपूर्व साहस और दृढ़ निश्चय को देखकर बहुत प्रसन्न हुये. यमराज ने नचिकेता से तीन वर माँगने को कहा.

नचिकेता ने पहला वर माँगा, “मेरे यहाँ आने से मेरे पिता बहुत चिंतित और दुःखी होंगे. उनकी चिंता दूर हो और उनके मन को शांति मिले.”

यमराज ने कहा, “तथास्तु.”

नचिकेता ने दूसरा वर माँगा, “स्वर्ग की प्राप्ति कैसे होती है. स्वर्ग जहाँ न बुढ़ापे का भय है, न मृत्यु का.”

यमराज ने प्रसन्नता पूर्वक स्वर्ग प्राप्ति के साधन बता दिये.

नचिकेता ने तीसरा वर माँगा, “यमराज! मुझे मृत्यु का भेद बताइये. बताइये मृत्यु के बाद क्या होता है और मनुष्य अमर कैसे हो सकता है.”

यमराज दुविधा में पड़ गये, क्योंकि ये बड़े गुप्त रहस्य की बात थीजिनके बारे में ब्रह्म और यमराज ही जानते थे.

यमराज ने नचिकेता से कुछ और माँगने को कहा---धन, सत्ता अथवा राज्य. किंतु नचिकेता पर किसा भी प्रलोभन का असर नहीं हुआ. यमराज हैरान थे कि इतने छोटे से बालक को ऐसी गूढ़ बातें जानने की कितनी जिज्ञासा है. अंत में यमराज को नचिकेता के प्रश्नों के उत्तर देने ही पड़े. उन्होंने मनुष्य के सच्चे रूप , यानि आत्मा को समझने की कठिनाईयाँ बतायीं.

यमराज ने नचिकेता से कहा, “यदि तुम आत्मा को भली प्रकार समझने में सफल हो जाओ तो तुम देखोगे कि मृत्यु एक छल मात्र है; क्योंकि मनुष्य का सच्चा रूप तो आत्मा है, जो कभी नहीं मरती. मरता तो केवल शरीर है."

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Tuesday, April 26, 2016

भाषा परिवर्तनशील और स्थिर है-
भाषा का निरन्तर विकास होता रहता है. समय-समय पर कुछ शब्दों के रूप परिवर्तित हो जाते हैं, कुछ अन्य भाषाओं के शब्द सम्मिलित हो जाते हैं, कुछ नये प्रयोग होते हैं. हिन्दी भाषा का विकास संस्कृत भाषा से हुआ है, काफी कुछ शब्द हिन्दी भाषा में ऐसे ही ले लिये गये, तो कुछ शब्दों का रूप परिवर्तित हो गया. जैसे- संस्कृत का पत्र शब्द हिन्दी में पत्ता बन गया और कुम्भकार कुम्हार. कुछ नये प्रयोग भी किये गये हैं. जैसे आजकल वर्णमाला के अनुनासिक वर्ण के लिये को ही मान्यता मिल गयी है और इसकी मात्रा के रूप में बिन्दु को ही. विराम चिह्न भी अब बिन्दु (.) रूप में प्रयोग में लाया जाता है. फिर भाषा का एक निश्चित मानक रूप व व्याकरण होने के कारण भाषा स्थिर रह पाती है. इस तरह हम कह सकते हैं कि भाषा परिवर्तनशील भी है और स्थिर भी.

                           ड़ॉ0 मंजूश्री गर्ग

Monday, April 25, 2016

भाषा(सम्पत्ति)
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
भाषा हमारी वह सम्पत्ति है जो हमें परम्परा से प्राप्त होती है. हिन्दी भाषा बोलने वाले परिवारों के बच्चे स्वतः ही हिन्दी भाषा सीख जाते हैं, ऐसे ही अंग्रेजी भाषा बोलने बाले परिवारों के बच्चे अंग्रेजी भाषा और अन्य किसी भाषा के बोलने बाले परिवारों के बच्चे अपने परिवार की भाषा साधारण रूप से सीख जाते हैं. इस प्रकार भाषा हमारी पैतृक सम्पत्ति है. स्वाभाविक रूप से सीखी भाषा साधारण बोल-चाल की ही भाषा होती है, उसके व्याकरणिक रूप का ज्ञान अध्ययन द्वारा प्राप्त किया जाता है. अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं का ज्ञान भी अध्ययन के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है. कुछ विद्वानों को अनेक भाषाओं का ज्ञान होता है. इस प्रकार भाषा हमारी अर्जित सम्पत्ति भी है. साथ ही व्यक्ति जिस समाज में रहता है, धीरे-धीरे वहाँ की भाषा स्वभावतः सीख जाता है. जैसे दक्षिण भाषी प्रदेशों का व्यक्ति जब हिन्दी भाषी प्रदेशों में आता है, तो धीरे-धीरे हिन्दी भाषा सीख जाता है. इस प्रकार भाषा हमारी सामाजिक सम्पत्ति भी है।

Saturday, April 16, 2016

हाइकु

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

ख्बाब सजे
नींद की टहनी पे
जागे तो टूटे।

उतरेगी ही
कलई कितनी हो
खुलेगी पोल।

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Sunday, April 10, 2016

हाइकु

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

आम थे सभी
महफिल में सज
खास हो गये।

साहित्य में 
प्रतिबिम्बित जग
दर्पण जैसे।

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Thursday, April 7, 2016

स्पर्श सुख

सभी सांसारिक सुख स्पर्शजन्य ही हैं. कान की झिल्लियों से जो स्पर्श होता है, उसे शब्द कहते हैं और आँख की किरणें जिससे टकराती हैं उसको रूप. जिह्वा से खाद्य पदार्थ स्पर्श करते हैं उसे स्वाद कहते हैं. त्वचा से जो वस्तु स्पर्श करती है वो तो स्पर्श सुख है ही. नासिका से जो वायु स्पर्श करती है उसे सुगन्ध कहते हैं.

                                                                                                   डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, April 1, 2016

हाइकु

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

घाघरा नदी
तिब्बत से निकलीं
गंगा में मिलीं।

चंबल नदी
विंध्य से निकलीं
यमुना मिलीं।

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