Friday, May 26, 2017


हिन्दी भाषा

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

ऐसा ना हो
झंड़े की तरह
लहरे, उतर जाये
हिंदी दिवस’.

हिन्दी मातृ भाषा
है हमारी
रग-रग में
समायी है हिन्दी.

हिन्दी सहचरी
है हमारी
पग-पग पे
निभाती है हिन्दी.

हिन्दी शिक्षिका
है हमारी
ज्ञान-विज्ञान सभी
सिखाती है हिन्दी.

है हिन्दी दिवस
हमारे लिये हर दिन.
हर दिन ही नहीं
हर पल है हिन्दी.

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Thursday, May 25, 2017


है कौन जो?

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

है कौन जो?
बुलाकर
छिप जाता.
देहरी पे आ के
रूक जाता.
मन में
मुस्का जाता.

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Tuesday, May 23, 2017


अमरकथा

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

एक बार पार्वती जी ने शिवजी से अमरकथा सुनाने का आग्रह किया, तब शिवजी ने पार्वतीजी से कहा कि जो भी प्राणी अमरकथा को सुन लेगा, वह अमर हो जायेगा, जो कि सृष्टि के नियम के विपरीत है. अतः मैं तुम्हें ऐसे स्थान पर अमरकथा सुनाऊँगा, जहाँ कोई और प्राणी न हो. यह कहकर शिवजी ने पार्वतीजी को साथ लेकर अमरकथा गुफा की ओर प्रस्थान किया. सबसे पहले अपनी सवारी बैल का साथ छोड़ा. जिस स्थान पर बैल छोड़े, वह बैलगाँव कहलाया. आज वही स्थान पहलगाँव के नाम से जाना जाता है. और आगे जाकर अपने मस्तक से चंद्रमा उतारा, यह स्थान चंदनबाड़ी के नाम से जाना जाता है. थोड़ी दूर और आगे जाकर अपने गले से शेषनाग उतार कर रखे. यह स्थान शेषनाग के नाम से जाना जाता है. अमरकथा गुफा में पहुँचकर शिवजी ने पार्वती को अमरकथा सुनाई, जिसे एक कबूतर के जोड़े ने भी सुन लिया. जिससे वह भी अमर हो गया.

Sunday, May 21, 2017


चिलगोजा

डॉ0 मंजूश्री गर्ग




चिलगोजा चीड़ या सनोबर जाति के पेड़ों का छोटा, लंबोतरा फल है. चिलगोजे के पेड़ समुद्र से 2000 फुट की ऊँचाई वाले पहाड़ी इलाकों में होते हैं. इसमें चीड़ की तरह लक्कड़नुमा फल लगते हैं. यह बहुत कड़ा होता है. मार्च, अप्रैल में आकार लेकर सितम्बर, अक्टूबर तक पक जाता है. यह बेहद कड़ा होता है. इसे तोड़कर गिरियाँ बाहर निकाली जाती हैं. ये गिरियाँ भी मजबूत भूरे आवरण से ढ़की होती हैं. जिसे दाँत से काटकर हटाया जाता है. अंदर मुलायम नरम तेलयुक्त सफेद गिरी होती है. यह बहुत स्वादिष्ट होती है और मेवों में गिनी जाती है.





Tuesday, May 16, 2017


नयन-कोर के आँसू तेरे-मेरे
सुनामी का सबब बनेंगे.

                         डॉ0मंजूश्री गर्ग


Sunday, May 14, 2017


पत्र का सफर
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

अपने प्रियजनों से दूर रहने पर उनकी कुशलता प्राप्त करने की व अपने कुशल समाचार प्रियजनों तक पहुँचाने की उत्कंठा सदैव प्रत्येक व्यक्ति के मन में बनी रहती है. इस आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम पत्र व्यवहार ही है. जिसमें हम विस्तार से अपने ह्रदय के उद्गार अभिव्यक्त कर सकते हैं.

प्राचीन समय में पत्र व्यवहार करना आज के युग जैसा सरल व सुगम नहीं था क्योंकि तब ना तो सड़कों का समुचित विकास हुआ था, ना यातायात के साधनों का और ना ही डाक-सेवा का विकास हुआ था. राजा-महाराजा अवश्य घोड़ों व ऊँटों के माध्यम से दूतों के द्वारा पत्र भेजकर राज्य के विभिन्न हिस्सों की जानकारी प्राप्त करते थे. किन्तु आम आदमी के लिये पत्र-व्यवहार करना असम्भव ही था.

 डाक-सेवा का विकास होने पर प्रारम्भ में डाकिया पैदल ही एक गाँव से दूसरे गाँव जाकर पत्र वितरित करते थे, फिर ऊँटों व घोड़ों के माध्यम से पत्र भेजे जाने लगे. उन्नीसवीं बीसवीं शताब्दी में डाक-सेवा का चहुमुँखी विकास हुआ, तेजी से सड़कों का निर्माण हुआ. बस, रेल, हवाई जहाज के माध्यम से डाक भेजी जाने लगी. सभी बड़े-छोटे शहरों में सरकारी डाक-घर खोले गये, जहाँ डाक एकत्र होती है और फिर विभिन्न स्थानों में डाकिये के द्वारा वितरित की जाती है. पत्र पर डाक-टिकट लगा कर पोस्ट-कार्ड, अन्तर्देशीय व लिफाफे के माध्यम से आम आदमी अपने प्रियजनों को पत्र भेज सकते हैं. देश में ही नहीं, विदेशों में भी पत्र भेजना सरल हो गया है.

इक्कीसवीं सदी, मोबाइल और इंटरनेट के युग में जहाँ हम पलक झपकते ही सात समुन्दर पार बैठे व्यक्ति से भी बात कर सकते हैं वहाँ अभी भी पत्र की महत्ता कम नहीं हुई है; क्योंकि पत्र में हम न केवल विस्तार से अपने मनोभावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं वरन् सहेज कर सालों साल रख सकते हैं, बार-बार उन्हें पढ़ सकते हैं.


Thursday, May 11, 2017


रोज कहो या गुलाब
लोटस कहो या कमल.
रूप, रंग, गंध नहीं बदलते
नाम बदल जाने से.

                     डॉ0 मंजूश्री गर्ग


आरोग्य
य़ह शरीर पंचतत्वों का बना है- पृथ्वी, जल, तेज(अग्नि), वायु और आकाश. निचले तत्व से ऊपर का तत्व दूषित होता है. जैसे- जल में पृथ्वी(मिट्टी) मिले तो जल कीचड़ युक्त हो जाता है. तेज(अग्नि) में जल डाले तो धुआं पैदा होता है. यही बात जगत के सभी पदार्थों के साथ समझनी चाहिये.
नीचे का तत्व ऊपर के तत्व से शुद्ध होता है. जैसे- गंगाजल उबालने से शुद्ध होता है, अग्नि वायु से शुद्ध होती है अर्थात् अग्नि बिना वायु के नहीं जलती.
इसी प्रकार वायु आकाश से शुद्ध होती है अर्थात् बंद स्थान की वायु दूषित और खुले स्थान की वायु शुद्ध होती है. इन बातों का विचार करके साधक को इन्हें जीवन में लाना चाहिये.

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अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करिये. यदि आपके कदम सही हैं, तो आपके विरोधी भी आपको सहयोग देंगे.

                   डॉ0 मंजूश्री गर्ग





Wednesday, May 10, 2017


कुँआरी लगन फिर लागी मन
भेजे हैं संदेशे पवन के संग.
चले आओ तुम बादलों के संग
पहना के सितारों जड़ी चूनर
बिठा के बहारों की डोली.
ले आओ तुम दूर गगन में
भीगेगा जहाँ सारा, मुस्कायेंगे हम.

                                                       डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Monday, May 8, 2017


कोई आता रहा,
कोई जाता रहा.
फिर भी!
न जाने क्यों?
सड़क
 सुनसान
हमें
लगती रही.

            डॉ0 मंजूश्री गर्ग









किसी से कुछ ना कहेंगे
दर्द सीने में छुपा लेंगे
पर, तुम्हीं कहो,
तुम्हें देख,
कैसे आँसू पी जायेंगे.

                      डॉ0 मंजूश्री गर्ग


Sunday, May 7, 2017



गजल

डॉ0 मंजूश्री गर्ग


कितनी ही मीठी धारायें मिलें, प्यासा सागर कहलाया.
कितना ही सावन सूखा बीते, सावन-सावन कहलाया.

सब नगरों के गंदे नाले, आकर उसके गले मिले,
वो गंगा थी या जमुना, जल पावन कहलाया.

बीते युग की बात, मन भुला ना पाया अब तक,
प्यार पावन था, पर अपावन कहलाया.

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जिंदगी के शोख सपने
फैले थे मन पटल पर
सोख्ते’* की तरह सोख लिये
जिंदगी की कड़ी धूप ने.

                 डॉ0 मंजूश्री गर्ग

सोख्ता-     Blotting Paper

 



Friday, May 5, 2017


फिर मनायी छोटी दीवाली

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

हम लड़कियाँ भी कितनी बेबफा होती हैं
शादी होते ही भूल जाती हैं वो आँगन वो घर
जहाँ खेले अनेकों बसन्त, मनायी दिवालियाँ.
पिता से ज्यादा ससुर जी का ख्याल
माँ से ज्यादा सासु जी की आज्ञा का पालन
भाई से ज्यादा देवर और बहन से ज्यादा ननद.
पति के दोस्तों की पत्नियाँ ही बन जाती हैं सखियाँ

बरसों बाद भाभियाँ दिलाती हैं याद कि
दीदी हमारे यहाँ छोटी दिवाली को भी हठरी पूजन होता है.
तब याद आती है छोटी दिवाली की शाम.
शाम से ही घर में उत्सव का माहौल
दिवाली के दिन जैसी ही सज-धज.
खील-बताशे, मिठाईयाँ, पूरी पकवान
फुलझड़ी-पटाखे की रौनक.
बरसों बाद मायके में भाभी के साथ
फिर मनायी छोटी दिवाली.


 




मैं चाँद नहीं हूँ पूनम का

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

अभिलाषा थी मन में मेरे
अर्ध्य चढ़ाये फिर कोई देवी
पूजा था कल जिसने मुझको
पर नहीं कोई अब आयेगा.
मैं चाँद नहीं हूँ पूनम का
मैं चाँद कहलाता पड़वा का.

रोशनी है, पर
दीपित कर दूँ किसी के मन को
ये अब मेरे बस की बात नहीं.
नहीं हेरता कोई मुझको
किसी इच्छा से
मैं चाँद नहीं हूँ पूनम का
मैं चाँद कहलाता पड़वा का.