Sunday, May 14, 2017


पत्र का सफर
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

अपने प्रियजनों से दूर रहने पर उनकी कुशलता प्राप्त करने की व अपने कुशल समाचार प्रियजनों तक पहुँचाने की उत्कंठा सदैव प्रत्येक व्यक्ति के मन में बनी रहती है. इस आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम पत्र व्यवहार ही है. जिसमें हम विस्तार से अपने ह्रदय के उद्गार अभिव्यक्त कर सकते हैं.

प्राचीन समय में पत्र व्यवहार करना आज के युग जैसा सरल व सुगम नहीं था क्योंकि तब ना तो सड़कों का समुचित विकास हुआ था, ना यातायात के साधनों का और ना ही डाक-सेवा का विकास हुआ था. राजा-महाराजा अवश्य घोड़ों व ऊँटों के माध्यम से दूतों के द्वारा पत्र भेजकर राज्य के विभिन्न हिस्सों की जानकारी प्राप्त करते थे. किन्तु आम आदमी के लिये पत्र-व्यवहार करना असम्भव ही था.

 डाक-सेवा का विकास होने पर प्रारम्भ में डाकिया पैदल ही एक गाँव से दूसरे गाँव जाकर पत्र वितरित करते थे, फिर ऊँटों व घोड़ों के माध्यम से पत्र भेजे जाने लगे. उन्नीसवीं बीसवीं शताब्दी में डाक-सेवा का चहुमुँखी विकास हुआ, तेजी से सड़कों का निर्माण हुआ. बस, रेल, हवाई जहाज के माध्यम से डाक भेजी जाने लगी. सभी बड़े-छोटे शहरों में सरकारी डाक-घर खोले गये, जहाँ डाक एकत्र होती है और फिर विभिन्न स्थानों में डाकिये के द्वारा वितरित की जाती है. पत्र पर डाक-टिकट लगा कर पोस्ट-कार्ड, अन्तर्देशीय व लिफाफे के माध्यम से आम आदमी अपने प्रियजनों को पत्र भेज सकते हैं. देश में ही नहीं, विदेशों में भी पत्र भेजना सरल हो गया है.

इक्कीसवीं सदी, मोबाइल और इंटरनेट के युग में जहाँ हम पलक झपकते ही सात समुन्दर पार बैठे व्यक्ति से भी बात कर सकते हैं वहाँ अभी भी पत्र की महत्ता कम नहीं हुई है; क्योंकि पत्र में हम न केवल विस्तार से अपने मनोभावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं वरन् सहेज कर सालों साल रख सकते हैं, बार-बार उन्हें पढ़ सकते हैं.


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