सूरदास का वात्सल्य वर्णन
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
सूरदास भक्तिकाल के कृष्ण काव्य-धारा के प्रतिनिधि कवि हैं. भगवान कृष्ण की
लीलाओं का गायन करना ही उनका प्रमुख उद्देश्य था. कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं और
मातृ-भावना को लेकर सूरदास ने जो मनोहारी और प्रभावशाली वर्णन किया है, वह
अद्वितीय है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूरदास की प्रशंसा करते हुये लिखा
है, कृष्ण जन्म की आनन्द-बधाई के
उपरान्त ही बाल-लीला प्रारम्भ हो जाती है. जितने विस्तृत और विशुद्ध रूप में बाल्य
जीवन का चित्रण इन्होंने किया है उतने विस्तृत रूप में और किसी कवि ने नहीं किया.
शैशव से लेकर कौमार अवस्था तक के क्रम से लगे हुये न जाने कितने चित्र मौजूद हैं.
उनमें केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का ही विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन नहीं है, कवि
ने बालकों की अन्तःप्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेक बाल्यभावों की सुन्दर
स्वाभाविक व्यंजना की है. आचार्य शुक्ल ने अन्यत्र भी लिखा है सूरदास
वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आये हैं.
कृष्ण जन्म का समाचार सुनते ही ब्रज की गलियों में अपार आनन्द का समुद्र उमड़
पड़ता है जिसकी अभिव्यक्ति सूरदास ने एक ग्वालिन के मुख से की है------
सोभा सिंधु न अंत रही री।
नंद भवन भरि-पूरि उँमगि चलि ब्रज की बीथिन फिरति बही री।
देखी जाइ गोकुल मैं घर-घर बेचति फिरति दही री।
कहँ लगि कहौं बनाई बहुत विधि कहत न मुख सहसहु निबही री।
जसुमति उदर अगाध उदधि तें उपजीं ऐसी सबनि कही री।
सुर स्याम प्रभु इन्द्र नीलमनि ब्रज वनिता उर लाइ गही री।
यशोदा की गोद में विराजमान कृष्ण की छवि की सुन्दर अभिव्यक्ति प्रस्तुत
पंक्तियों में कवि ने की है-------
गोद लिए जसुदा नन्दनंदहिं
पीत झहुलिया की छवि छाजति बिज्जुलता सोहति मनु कंदहिं।
इसी प्रकार यशोदा द्वारा कृष्ण को पालने में सुलाने का कितना स्वाभाविक,
मार्मिक चित्र प्रस्तुत गीत में कवि ने अभिव्यक्त किया है-----------
यशोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै ना आनि सुवावै।
तू काहै न बेगहिं आवै, तोको कान्ह बुलावै।
कबहुँ पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन है करहिँ, करि-करि सैन बतावै।
इति अंतर अकुलाई उठे हरि, जसुमति मधुर गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ, सो नंदभामिनी पावै।
उपर्युक्त पंक्तियों में कवि ने यशोदा के माध्यम से भारतीय नारी का ही चित्र उकेरा
है जो पालने में अपने लाल को सुला रही है, सोया जानकर आँखों के इशारे से सबको चुप
रहने को कहती है. वहाँ से हटकर घर के और काम करना ही चाहती है कि बालक अकुलाकर उठ
जाता है.
यशोदा श्रीकृष्ण को अँगुली पकड़कर चलना सिखाती हैं और श्रीकृष्ण बाल-सुलभ
प्रवृत्ति के कारण डगमगाते कदमों से आगे बढ़ते हैं----------
सिखवत चलन जसोदा मैया।
अरबराइ कर पानि गहावत डगमगाइ धरैं पैंया।
माता की आवाज सुनकर, दौड़कर कृष्ण के आने का और यशोदा के गोद में लेने का
चित्र प्रस्तुत गीत में अभिव्यक्त किया है-------
नंदधाम खेलत हरि डोलत।
जसुमति करति रसोई भीतर आपुन किलकत बोलत।
टेरि उठी जसुमति मोहन कौ आबहु काहै न धाइ।
बैज सुनत माता पहिचानि चले घुटरूवनि पाइ।
लै उठाइ अंचल गहि पोंछे धूरि भरी सब देह।
सूरज प्रभु जसुमति रज झारति कहाँ भरि यह खेह।
यशोदा द्वारा स्नान करने को कहने पर कन्हैया किस तरह मचलते हैं, यह चित्र
प्रस्तुत गीत में अभिव्यक्त हुआ है------
जसोदा जबहिं कह्यौ अन्हवावन रोइ गए हरि लोटत री।
तेल उबटनौ लै आगे धरि लालहिं चोटत पोटत री।
मैं बलि जाऊँ न्हाउ जनि मोहन कत रोवत बिनु काजै री।
पाछै धरि राख्यौ छपाइ कै उबटन तेल समाजै री।
महरि बहुत विनती करि राखति मानत नहीं कन्हैया री।
सूर स्याम अति ही बिरूझाने सुर मुनि अंत न पैया री।
प्रायः बच्चे पिता के साथ भोजन करते हैं, तुलसीदास के राम भी दशरथ के साथ भोजन
करते हैं. श्रीकृष्ण भी नन्दबाबा के साथ भोजन कर रहे हैं, भोजन करते समय बाल सुलभ
चपलता का वर्णन प्रस्तुत पद में कवि ने किया है----
जैवत कान्ह नंद इक ठौरे।
कछुक खात लपटात दोऊ कर बाल केलि अति भोरे।
बरा कौर मेलत मुख भीतर मिरिच दसन टकटौरे।
तीछन लगी नैन भरि आए रोवत बाहर दौरे।
फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी लिए लगाइ अँकोरे।
सूर स्याम की मधुर कौर दे कीन्हे तात निहोरे।
माता यशोदा श्रीकृष्ण को दूध पिलाने के लिये लालच देती हैं कि दूध पीने से
चोटी जल्दी बड़ी हो जायेगी, इसीलिये दूध पीते समय श्रीकृष्ण उत्सुकतावश अपनी चोटी
देखते जाते हैं कि चोटी बढ़ रही है या नहीं---------
मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी।
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहुँ है छोटी।
श्रीकृष्ण को माखन चोर भी कहा जाता है, श्रीकृष्ण द्वारा माखन चोरी और मणि
रचित खम्भे में अपने ही प्रतिबिंब से किये वार्तालाप का वर्णन प्रस्तुत गीत में
कवि ने अभिव्यक्त किया है------------
आजु सखि मनि खंभ निकट हरि जंह गोरस को गोरी।
निज प्रतिबिंब सिखावत ज्यों सिसु, प्रगट करैं जनि चोरी।
अरध भाग आजु तैं हम तुम भली बनी है जोरी।
माखन खाहु, कतहि डारत हौ छाँड़ि देहु मति भोरी।
बाँट न लेहु सबै चाहत हौ यहै बात है थोरी।
बालक कृष्ण द्वारा चन्द्रमा को देखकर उसे प्राप्त करने के लिये मचल उठने का और
हठ करने का मनोरम वर्णन कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में किया है------
मैया मैं तो चन्द खिलौना लैहौं।
जैहों लोटि धरनि मैं अबहिं तेरी गोद न ऐहौं।
सुरभि का पयपान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौ पूत नन्दबाबा को तैरो सुत न कहैहौं।
आँख-मिचौनी के खेल में किस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण का पक्ष लेती हैं और
किस प्रकार श्रीकृष्ण अपने निर्णय पर अडिग हैं कि श्रीदामा को ही चोर बनाना है.
साथ ही पुत्र के जीतने पर माता यशोदा की ह्रदयग्राही खुशी का वर्णन प्रस्तुत गीत में
कवि ने किया है--------
हरि तब अपनी आँख मुँदाई।
सखा सहित बलराम छुपाने जहँ तहँ गई भगाई।
कान लागि कह्यौ जननि य़शोदा वा घर में बलराम।
बलराम को आवन दैहों श्रीदामा सौं काम
दौरि-दौरि बालक सब आवत छुवत महरि कौ गात।
सब आए रहे सुबल श्रीदामा हारे अब कैं तात।
सोर पारि हरि सुबलहिं धाए गहयौ श्रीदामा जाइ।
दै दै सौंह नंदबाबा की, जननी पै लै आइ।
हँसि-हँसि तारी देत सखा सब भए श्रीदामा चोर।
सूरदास हँसि कहतिं जसोदा जीत्यौ है सुत मोर।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उचित ही लिखा है-
यशोदा के बहाने सूर ने मातृ ह्रदय का
ऐसा स्वाभाविक, सरल और ह्रदयग्राही चित्र खींचा है कि आश्चर्य होता है।
कृष्ण बड़े हो गये हैं बाहर सखाओं के साथ खेलना ही शुरू नहीं कर दिया वरन्
श्रीकृष्ण के मन में गाय दुहने की उत्सुकता भी पैदा हो गयी है. इसीलिये ग्वालिनी
के संग बैठकर गाय का दुहना देखते हैं और कहते हैं-----------
धेनु दुहत हरि देखत ग्वालिनी।
आपुन बैठ गए तिनके संग सिखवहु मोहि कहत गोपालनि।
और फिर एक दिन गाय चराने को मचलने लगते हैं------------
मैया हौं गाय चरावन जैहौं।
तू कहत महरि नन्दाबाबा सौं बड़ो भयो न डरैहौं।
सूरदास रचित काव्य में राधा और कृष्ण के बीच प्रेम का विकास शनैः शनैः
स्वाभाविक ढ़ंग से हुआ है जो शैशवोचित चपलता से प्रारम्भ होता है और धीरे-धीरे
अनुराग बढ़ता जाता है--------
श्याम का राधा से पूछना-
बूझत श्याम, कौन तू गौरी।
कहाँ रहत, काकी तू बेटी, देखी नाहिं कहूँ ब्रज खोरी।
और राधा का उत्तर देना-
काहे को हम ब्रज तन आवति, खेलत रहत आपनि पौरी।
सुनति रहति श्रवनन नंद ढोता करत रहत माखन दधि चोरी।
-बालसुलभ वार्तालाप का ही उदाहरण है.
ऐसे ही प्रस्तुत उदाहरण में आपसी नोंक-झोंक का वर्णन कवि ने किया है------
श्रीकृष्ण का गाय दुहना-
धेनु दुहत अति ही रति बाढ़ी।
एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी।
और इस पर राधा का उत्तर-
तुम पै कौन दुहावै गैया।
इत चितवत उत धार चलावत, एहि सिखयो है मैया।
जिस रागात्मकता के साथ सूरदासजी ने श्रीकृष्ण के बाल-जीवन की विविध लीलाओं को
अभिव्यक्त किया है उसी प्रकार श्रीकृष्ण और बलराम के मथुरा गमन पर वात्सल्य- वियोग
का वर्णन भी किया है. सूरदास द्वारा वर्णित प्रवासजन्य विरह का चित्रण उभयपक्षीय
है. कृष्ण के मथुरा गमन से नन्द-यशोदा, गोप-गोपियाँ, राधारानी ही दुःखी नहीं है,
वरन् कृष्ण भी मथुरा में अनन्त वैभव-विलास में रहते हुये भी माता यशोदा व
ब्रज-वासियों को नहीं भुला पाते. श्रीकृष्ण तभी तो नन्द के ह्रदय को कठोर बताते
हुये कहते हैं----------
कहियो नन्द कठोर भये।
हम दोउ वीरैं डारि परघरैं मानों थाति सौंपि गए।
ऐसे ही माता यशोदा की याद करते हुये श्रीकृष्ण कहते हैं-----
जा दिन ते हम तुम तें बिछुरे काहु न कह्यौ कन्हैया।
कबहुँ प्रात न कियो कलेवा साँझ न पीनी छैया।
कान्हा की याद में माता यशोदा का ह्रदय भी व्यथित हो रहा है--------
जद्यपि मन समुझावत लोग।
शूल होत नवनीत देखिकै मोहन के मुख जोग।
और माता यशोदा पथिकों के हाथ संदेश भेजती हैं-----
संदेशो देवकी सौ कह्यो।
हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियौ।
वास्तव में सूरदासजी ने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं और मातृभावना को लेकर जिस
रागात्मकता के साथ वात्सल्य रस की धारा प्रवाहित की है, उससे वात्सल्य भाव को रसों
में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है.