Sunday, December 30, 2018
Saturday, December 29, 2018
Friday, December 28, 2018
Thursday, December 27, 2018
छायावाद
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
छायावाद विशेष रूप से हिन्दी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्यधारा है
जो लगभग सन् 1918 ई0 से सन् 1930 ई0 तक की युगवाणी रही, जिसमें प्रसाद, निराला,
पंत, महादेवी प्रभृति मुख्य कवि हुए और सामान्य रूप से भावोच्छास-प्रेरित स्वछंद
कल्पना-वैभव की वह स्वछंद-प्रवृत्ति है जो देश-काल-गत वैशिष्ट्य के साथ संसार की
सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा-आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती
रही है. स्वच्छंदता की उस सामान्य भावधारा की विशेष अभिव्यक्ति का नाम हिन्दी साहित्य
में छायावाद पड़ा.
डॉ0
नामवर सिंह
छायावाद की परिभाषा-
सन् 1920 ई0 में श्री शारदा पत्रिका में प्रकाशित हिन्दी में
छायावाद शीर्षक निबंध के अनुसार मुकुटधर पांडेय ने कहा है- अंग्रेजी या
किसी पाश्चात्य साहित्य या बंग साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखने
वाले सुनते ही समझ जायेंगे कि यह शब्द मिस्टिसिज्म के लिये आया है.
सन् 1921 ई0 में सरस्वती पत्रिका के जून अंक में सुशील कुमार द्वारा
लिखित हिन्दी में छायावाद नामक निबंध में छायावादी कविता को कोरे कागद
की भाँति अस्पष्ट, निर्मल ब्रह्म की विशद छाया, वाणी की नीरवता, निस्तब्धता का
उच्छवास एवम् अनंत का विलास कहा गया है.
सन् 1928 ई0 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पुस्तक काव्य में रहस्यवाद के
विवेचन से ज्ञात होता है कि तात्विक दृष्टि से उन रचनाओं को रहस्यवाद कहा
जाता था और रूप विधान की दृष्टि से छायावाद.
सन् 1930 ई0 के आस-पास हिन्दी छायावादी कविताओं की आलोचना के सिलसिले में
अंग्रेजी के रोमांटिक कवि वर्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स, आदि के नाम लिये जाने लगे और
धीरे-धीरे छायावाद अंग्रेजी के रोमैंटिसिज्म(स्वच्छंदतावाद) का
पर्याय बन गया. आजकल हिन्दी साहित्य में छायावाद से अभिप्राय उन्हीं
कविताओं से होता है जिन्हें यूरोपीय साहित्य में रोमैटिसिज्म की संज्ञा दी
जाती है और जिसके अन्तर्गत रहस्य भावना और स्वच्छंदता-भाव के साथ-साथ और अनेक
विशेषतायें मिलती हैं.
डॉ0 नामवर सिंह लिखते हैं, “छायावाद विविध, यहाँ तक कि
परस्पर विरोधी सी प्रतीत होने वाली काव्य-प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है औऱ छानबीन
करने पर इन प्रवृत्तियों के बीच आन्तरिक संबंध दिखाई पड़ता है. स्पष्ट करने के
लिये यदि भूमिति से उदाहरण लें तो कह सकते हैं कि यह एक केन्द्र पर बने हुये
विभिन्न वृत्तों(co-centric circles) का समुदाय है. इसकी विविधता उस शतदल के समान है
जिसमें एक ग्रन्थि से अनेक दल खुलते हैं. एक युग चेतना ने भिन्न-भिन्न कवियों के
संस्कार, रूचि और शक्ति के अनुसार विभिन्न रूपों में अपने को अभिव्यक्त किया; कहीं एक पक्ष का अधिक विकास
हुआ तो अन्यत्र दूसरे पक्ष का-
एक छवि के असंख्य उडुगण
एक ही सब में स्पन्दन।
छायावाद एक प्रवहमान काव्यधारा थी, एक ऐतिहासिक उत्थान के साथ उसका उदय हुआ और
उसी के साथ उसका क्रमिक उत्थान और पतन हुआ. छायावाद के अठारह बीस वर्षों के इतिहास
में अनेक विशेषतायें जो आरम्भ में थीं वे कुछ दूर जाकर समाप्त हो गयीं और फिर अनेक
विशेषतायें जुड़ गयीं.
छायावाद काव्य-धारा की तीन प्रमुख विशेषतायें हैं-
1. व्यैक्तिकता
2. सूक्ष्मता
3. भावुकता
1. व्यैक्तिकता-
छायावाद व्यक्तिवाद की कविता है, जिसका आरंभ व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करने
और करवाने से हुआ, किन्तु पर्यवसान संसार और व्यक्ति की स्थायी शत्रुता में हुआ.
व्यक्तिगत आनुभूतियों की अभिव्यक्ति में आधुनिक कवियों ने जो निर्भीकता और साहस
दिखलाया वह पहले किसी कवि में नहीं मिलता. आधुनिक लिरिक अथवा प्रगीत इसी
व्यैक्तिकता के प्रतीक हैं. मध्य युग के संत कवि और रीति काल के रीतिवादी कवि
प्रायः निर्वैयक्तिक ढ़ंग से अपनी बात कहते थे. संतों और भक्तों के पदों में जो
निर्वैक्तिक ढ़ंग दिखाई पड़ता है, वह केवल भगवान के प्रति निवेदन है अपने
व्यक्तिगत जीवन के विषय में कवि प्रायः मौन ही रहे हैं, लेकिन छायावादी कवियों ने मैं
शैली अपनाकर धीरे-धीरे शक्ति संचय कर अपने सुख-दुःख काव्य में अभिव्यक्त किये.
कहीं-कहीं प्रकृति के माध्यम से रहस्यात्मकता का पुट देकर अपने मनोभावों को
अभिव्यक्त किया. श्री सुमित्रानंदन पंत ने अपने काव्य-संग्रह- उच्छ्वास, आँसू,
ग्रंथि में प्रणयानुभूति की अबाध अभिव्यक्ति की है. श्री जयशंकर प्रसाद द्वारा
रचित आँसू में भी मूलतः मानवीय प्रेम के मनोभावों को अभिव्यक्त किया गया है
लेकिन रहस्यात्मकता का पुट होने के कारण सभी प्रेमानुभूतियाँ असीम की ओर इंगित
करती हैं. छायावाद की प्रणय संबंधी व्यैक्तिकता का प्रसार क्रमशः जीवन के अन्य
क्षेत्रों में भी हुआ. श्री सूर्य कांत त्रिपाठी निराला का विप्लवी बादल इसी
व्यैक्तिक विद्रोह का अग्रदूत है. सरोज स्मृति और वन-बेला भी इसके
उदाहरण हैं. श्रीमती महादेवी वर्मा ने अपने रहस्य-गीतों के माध्यम से
आत्माभिव्यक्ति ही की है. वस्तुतः यह व्यक्तिवाद ही छायावादी काव्य के विविध
वृत्तों का केंद्र बिंदु है.
उदाहरण-
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित न कर सका।
जाना तो अर्थोगमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित काय।
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अतः दधि मुख।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
सूक्ष्मता-
व्यैक्तिक अभिव्यक्ति की आंकाक्षा ने छायावादी कवियों को व्यक्तिनिष्ठ बनाया,
वे संसार की सभी वस्तुओं को आत्मरंजित करके देखने के अभ्यस्त हो गये. विश्व की
व्यथा से स्वयं व्यथित होने की अपेक्षा वह अपनी व्यथा से विश्व के व्यथित होने की
कल्पना करने लगा. द्विवेदी युग का काव्य आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में
जहाँ इतिवृत्तात्मक था वहाँ छायावादी काव्य रागात्मक हो उठा.
प्रकृति चित्रण करते समय भी छायावादी कवियों का ध्यान प्राकृतिक दृश्यों का स्थूल
आकार का वर्णन करने की अपेक्षा प्रकृति के अन्तः स्पन्दन की ओर गया है. छायावादी
कवियों ने प्रकृति के छिपे हुये इतने सौन्दर्य-स्तरों की खोज की कि वह आधुनिक मानव
के भौतिक और मानसिक विकास का सूचक बन गया. वास्तव में प्रकृति ने ही मानव-मन में
सौन्दर्य-बोध जगाया और मनुष्य ने उद्बुद्ध होकर प्रकृति में नवीन सौन्दर्य की खोज
की. छायावाद के व्यक्तिनिष्ठ दृष्टिकोण ने प्रकृति-सौन्दर्य में ही सूक्ष्मता नहीं
दिखाई वरन् मानव-सौन्दर्य में भी स्थूल शारीरिकता की जगह स्वस्थ, माँसल तथा
भावात्मक सुषमा की प्रतिष्ठा की. इन्हीं सब बातों के कारण आलोचकों ने छायावाद को स्थूल
के विरूद्ध सूक्ष्म का विद्रोह कहा है.
उदाहरण-
मैं नीर भरी दुःख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली.
महादेवी
वर्मा
भावुकता-
व्यक्तिवाद के मूल से ही छायावाद में भावुकता की अतिशयता का समावेश हुआ.
आधुनिक परिस्थितियों ने इस युग के व्यक्ति को अधिक संवेदनशील बना दिया; वह अपने उल्लास, आह्लाद,
व्यथा, आदि किसी को भी दबा सकने में असमर्थ थे. छायावादी कवि में उच्छल भावुकता का
अबाध उद्गार है यहाँ तक की भावुकता छायावाद की पर्याय हो गयी. यद्यपि भावों की
व्यंजना पहले भी कवियों ने की है किन्तु उनमें संयम और मर्यादा थी.
उदाहरण-
हर-एक पत्थरों में वह मूर्ति ही छिपी है
शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया, वही है।
इस भाव को हमारे उसको तो देख लीजे
धरता है वेश वो ही जैसा कि उसको दीजे
यों ही अनेक-रूपी बनकर कभी पुजाया
लीला उसी की जग में सबमें वही समाया।
जयशंकर प्रसाद
Wednesday, December 26, 2018
Monday, December 24, 2018
Sunday, December 23, 2018
Saturday, December 22, 2018
Thursday, December 20, 2018
खड़ी बोली हिन्दी गद्य के
विकास में विभिन्न संस्थाओं व पत्र-पत्रिकाओं का योगदान
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
मुगल शासन काल में देश के विभिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली
दरबार में शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली शिष्ट समुदाय की
परस्पर बोल-चाल की भाषा थी. अमीर खुसरो ने विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में ही
ब्रजभाषा के साथ-साथ खड़ी बोली में कुछ पद्य और पहेलियाँ रची थीं. औरंगजेब के समय
से फारसी मिश्रित खड़ी बोली हिन्दी या रेखता में शायरी शुरू हो गयी थी और उसका
प्रचार फारसी पढ़े-लिखे समाज में निरन्तर बढ़ता गया. मुगल साम्राज्य के ध्वंस के
बाद दिल्ली के आस-पास की व्यापारिक जातियाँ व्यापार के लिये पूर्वी शहरों जैसे-
लखनऊ, फैजाबाद, प्रयाग, काशी, आदि की ओर गयीं, जिनकी व्यवहारिक भाषा खड़ी बोली
हिन्दी थी. अंग्रेज शासन स्थापित होते-होते देश के अधिकांश उत्तरी भागों में खड़ी
बोली हिन्दी का प्रसार हो गया था.
फोर्ट विलियम क़ॉलेज की स्थापना
फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना सन् 1803 ई0 में हुई थी. इसकी स्थापना के बाद
हिन्दी खड़ी बोली गद्य का विकास तीव्र गति से हुआ. यद्यपि सन् 1741 ई0 में
रामप्रसाद निरंजनी ने भाषा योग वशिष्ठ ग्रंथ खड़ी बोली गद्य में लिखा था और
सन् 1761 ई0 में पं0 दौलतराम ने हरिषेणाचार्य द्वारा रचित जैन पद्म पुराण का
भाषानुवाद किया था. साथ ही फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना से पहले मुंशी सदासुखलाल
की ज्ञानोपदेश की पुस्तक सुखसागर और इंशा अल्ला खाँ की उदयभानचरित या
रानी केतकी की कहानी लिखी जा चुकी थी. फिर भी फोर्ट विलियम कॉलेज का हिन्दी
खड़ी बोली गद्य के विकास में योगदान सराहनीय है. फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यापक
गिल क्राइस्ट ने सन् 1803 ई0 में देशी भाषाओं(उर्दू और हिन्दी) में गद्य पुस्तकें
तैय्यार कराने की अलग-अलग व्यवस्था की. फोर्ट विलियम कॉलेज के आश्रय में ही
लल्लूलालजी गुजराती ने प्रेमसागर और सदल मिश्र ने नासिकेतोपाख्यान की
रचना की.
स्कूल बुक सोसायटी(ईसाइयों का योगदान)
सन् 1803 ई0 में हिन्दी गद्य के विकास का सबसे अधिक लाभ ईसाई धर्म प्रचारकों
ने उठाया. विलियम केरे और अन्य अंग्रेज पादरियों के प्रयास से ईसाई धर्म पुस्तकों
का हिन्दी में अनुवाद हुआ. सिरामपुर प्रेस से ईसाई धर्म की पुस्तकें तो
प्रकाशित हो ही रही थीं. धीरे-धीरे ईसाइयों के छोटे-छोटे स्कूल खुलने के साथ-साथ
शिक्षा सम्बंधी पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगीं. सन् 1833 ई0 में आगरा के पादरियों
ने स्कूल बुक सोसायटी स्थापना की. जिसने सन् 1837 ई0 में इंग्लैंड के एक
इतिहास का और सन् 1839 ई0 में मार्शमैन साहब के लिखे प्राचीन इतिहास का अनुवाद कथासार
नाम से पं0 रतन लाल ने किया. सन् 1855 ई0 से सन् 1862 ई0 के बीच मिर्जापुर के
आरफान प्रेस से शिक्षा संबंधी पुस्तकें- भूचरित्र दर्पण, भूगोल विद्या, मनोरंजक
वृतांत, जंतु प्रबंध, विद्यासागर, विद्वान संग्रह, आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं.
हिन्दी पत्र-पत्रिकायें-
ईसाइयों के द्वारा हिन्दी गद्य का प्रचार-प्रसार तो अवश्य किया गया, लेकिन
हिन्दी धर्म की स्थूल और बाहरी बातों जैसे- मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, जाति-पाँति,
छुआछूत, आदि का खंडन कर ही अपने ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे थे. जिसके विरोध
स्वरूप हिन्दुओं के शिक्षित वर्ग में स्वधर्म रक्षा की आकुलता उत्पन्न हुई. अतः
राजा राम मोहन राय ने हिन्दू धर्म की कुरीतियों को दूर कर शुद्ध ब्रह्मोपासना का
प्रवर्तन करने के लिये ब्रह्म समाज की नींव डाली. राजा राम मोहन राय ने सन्
1815 ई0 में वेदांत सूत्रों के भाष्य का हिन्दी में अनुवाद करके प्रकाशित कराया व
सन् 1829 ई0 में बंगदूत नाम का संवाद पत्र भी हिन्दी में निकाला. राजा साहब
की भाषा कुछ बँगलापन लिये हुये थी. 30 मई, सन् 1826 ई0 को पं0 जुगल किशोर(कानपुर)
ने हिन्दी में उदन्त मार्तण्ड नामक समाचार पत्र निकाला, जो एक साल चलकर बंद
हो गया.
उन्नीसवीं सदी से पहले अदालत की भाषा फारसी थी जिससे आम जनता को कठिनाईयों का
सामना करना पड़ता था. सन् 1836 ई0 में अंग्रेजी सरकार ने इश्तहारनामे निकाले
और अदालती कार्यवाही देश की प्रचलित भाषाओं में होने के आदेश दिये, मुसलमानों के
घोर प्रयत्न करने के कारण दफ्तरों के कामकाज की भाषा फारसी के स्थान पर उर्दू हो
गयी. ऐसी विपरीत परिस्थिति में राजा शिव प्रसाद जी का ध्यान हिंदी भाषा की ओर गया
और हिन्दी भाषा के उत्थान के लिये प्रयत्नशील हुये. सन् 1845 ई0 में हिन्दी भाषा
में काशी से बनारस अखबार प्रकाशित किया जिसकी भाषा उर्दू होते हुये भी लिपि
देवनागरी थी. सन् 1850 ई0 में बाबू तारा मोहन मित्र ने सुधाकर नामक हिन्दी
पत्र निकाला. सन् 1852 ई0 में मुंशी सदासुखलाल के प्रबंध व संपादन में बुद्धि
प्रकाश निकला, जो कई वर्ष तक चलता रहा. इस प्रकार मुसलमानों के विरोध के
बाबजूद उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दी गद्य का विकास होने लगा और
हिन्दी में अखबार निकलने लगे व पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं.
6 मार्च, सन् 1835 ई0 को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार
का प्रस्ताव पारित हो जाने से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने लगे. अंग्रेजी सरकार
चाहती थी कि हिन्दी भाषा को शिक्षा क्रम में शामिल किया जाये लेकिन सर सैय्यद अहमद
के नेतृत्व में मुसलमान हिन्दी भाषा का विरोध कर अंग्रेजो को उर्दू भाषा की ओर
झुकाने का प्रयत्न करते रहे. राजा शिवप्रसाद जी लगातार हिन्दी भाषा का समर्थन करते
रहे. उर्दू भाषा और हिन्दी भाषा का झगड़ा भारतेन्दु युग तक चलता रहा.
सन् 1856 ई0 में राजा शिव प्रसाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त
हुये. राजा साहब ने स्वयं पाठ्यक्रम के लिये उपयोगी कई कहानियाँ लिखीं जैसे- राजा
भोज का सपना, वीरसिंह का वृतांत, आलसियों का कोड़ा, आदि. शिक्षा सम्बन्धी कई
पुस्तकें लिखीं व अपने मित्रों पं0 श्रीलाल, पं0 बंशीधर, आदि को पुस्तकें लिखने के
लिये प्रेरित किया. सन् 1852 ई0 से सन् 1862 ई0 के बीच अनेक शिक्षा संबंधी
पुस्तकें प्रकाशित हुईं जैसे- पुष्प वाटिका(गुलिस्ताँ का अनुवाद), भारतवर्षीय
अनुवाद, जीविका परिपाटी(अर्थशास्त्र की पुस्तक), जगत वृतांत,आदि. इन पुस्तकों
की हिन्दी उर्दूपन लिये हुये थी.
सन् 1861 ई0 में राजा लक्ष्मण सिंह ने आगरा से प्रजा हितैषी नाम का
पत्र निकाला, जिसकी भाषा शुद्ध हिन्दी थी. शुद्ध और सरल हिन्दी में ही अभिज्ञान
शाकुंतल का अनुवाद प्रकाशित किया. हिन्दी गद्य के विकास में फ्रेडरिक पिंकाट
का योगदान भी अविस्मरणीय है. फ्रेडरिक पिंकाट के संपादन में आईने सौदागरी(व्यापार
पत्र) उर्दू भाषा में निकलता था जिसमें वह स्वयं हिन्दी भाषा में लेख लिखकर
प्रकाशित करते थे और अन्य हिन्दी समाचार पत्रों जैसे- हिंदोस्तान, आर्य दर्पण,
भारत दर्पण से उद्धरण भी प्रकाशित करते थे.
जिस प्रकार संयुक्त प्रांत(उत्तर प्रदेश) में राजा शिव प्रसाद शिक्षा विभाग
में रहकर किसी न किसी प्रकार हिन्दी भाषा का विकास कर रहे थे उसी प्रकार पंजाब में
नवीन चंद्र राय हिन्दी भाषा के विकास में अपना सहयोग दे रहे थे. मार्च, सन 1867 ई0
में ज्ञानदायिनी नाम से एक पत्रिका निकाली जिसमें शिक्षा संबंधी व साधारण
ज्ञान के लेख प्रकाशित होते थे. सन् 1863 ई0 से सन् 1879 ई0 के बीच नवीन चंद्र राय
नें हिन्दी भाषा में विभिन्न विषयों में हिन्दी में पुस्तकें तैय्यार कीं व ब्रह्म
समाज के सिद्धांतों के प्रचार के लिये कई पत्रिकायें निकालीं.
स्वामी दयानंद सरस्वती ने सन् 1865 ई0 में आर्य समाज की स्थापना की और सत्यार्थ
प्रकाश का प्रकाशन हिन्दी भाषा में हुआ. आर्य समाज के प्रभाव से संयुक्त
प्रांत के पश्चिमी जिलों और पंजाब में हिन्दी गद्य का प्रचार तेजी से हुआ. पं0
श्रद्धा राम फुल्लौरी ने भी हिन्दी भाषा में अनेक पुस्तकें लिखी. पं0 श्रद्धा राम
फुल्लौरी ने सत्यामृत प्रवाह(सिद्धांत ग्रंथ) लिखा व सन् 1877 ई0 में भाग्यवती नामक
एक सामाजिक उपन्यास लिखा.
राजा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का प्रभाव हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य दोनों
पर ही बहुत अधिक है. भारतेन्दु जी के विषय में पं0 रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है- उन्होंने
जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप
दिया, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य को भी नये मार्ग पर लाकर खड़ा किया और वे वर्तमान
हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गये. मुंशी सदासुख लाल की भाषा साधु होते हुये भी
पंडिताऊपन लिये थी, लल्लूलाल में ब्रजभाषापन और सदलमिश्र में पूरबीपन था. राजा शिव
प्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही परिमित न था, वाक्यविन्यास तक में घुसा था, राजा
लक्ष्मण सिंह की भाषा विशुद्ध और मधुर अवश्य थी, पर आगरे की बोलचाल का पुट उसमें
कम न था. भाषा का निखरा हुआ शिष्ट सामान्य रूप भारतेन्दु की कला के साथ ही प्रकट
हुआ.
भारतेन्दु जी ने हिन्दी साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और वे शिक्षित जनता के
साहचर्य में हिन्दी को ले आये. भारतेन्दु जी ने स्वयं अनेक विधाओं में हिन्दी में
रचना की और नये-नये विषयों की ओर अन्य लेखकों को भी प्रोत्साहित किया. आधुनिक
हिन्दी गद्य साहित्य का प्रवर्तन नाटक विधा से हुआ. भारतेन्दु जी से पहले महाराज
विश्वनाथ सिंह द्वारा रचित आनंद रघुनंदन नाटक के अतिरिक्त कोई भी नाटक
नाटकत्व गुणों से पूर्ण नहीं लिखा गया था. सन् 1868 ई0 में भारतेन्दु जी ने विद्या
सुन्दर नाटक बँगला भाषा से अनुवाद कर लिखा, जिसमें हिन्दी गद्य का बहुत ही
सुधरा हुआ रूप देखने को मिलता है. भारतेन्दु जी ने अपना मौलिक नाटक वैदिक हिंसा
हिंसा न भवति लिखा. भारतेन्दु जी ने अनेक पत्र-पत्रिकायें निकालीं जैसे
कवि वचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैग्जीन, बाल बोधिनी. जिस हिन्दी को पूरे
भारतवर्ष की जनता ने सहर्ष स्वीकार किया उसका रूप इन्हीं पत्रिकाओं में देखने को
मिलता है. भारतेन्दु जी के समय के लेखकों में मौलिकता थी, इन्होंने अन्य
भाषाओं(बँगला, मराठी, उर्दू, अंग्रेजी) से अनुवाद नहीं किया जैसा कि बीस-पच्चीस
साल पूर्व के लेखकों की रचनाओं में देखने को मिलता है. पं बद्रीनारायण चौधरी, पं0
प्रतापनारायण मिश्र, बाबू तोताराम, ठाकुर जगमोहन सिंह, लाला श्रीनिवास दास, पं0
बालकृष्ण भट्ट, पं0 केशवराम भट्ट, पं0 अंबिकादत्त व्यास, पं0 राधाचरण गोस्वामी,
आदि अनेक प्रौढ़ और प्रतिभाशाली लेखकों ने हिन्दी साहित्य के इस नूतन विकास में
अपना योगदान दिया और विभिन्न प्रकार के गद्य प्रबन्ध, नाटक, उपन्यास, आदि लिखे.
हिन्दी गद्य के समुचित विकास का अनुमान भारतेन्दु जी के समय प्रकाशित होने
वाली पत्र-पत्रिकाओं से चलता है-
अल्मोड़ा अखबार, (सन् 1871 ई0,
सं0 पं0 सदानंद सलवास)
हिन्दी दीप्ति प्रकाश, (सन् 1872 ई0, कलकत्ता, सं0 कार्तिक प्रसाद खत्री)
बिहार बंधु, (सन् 1872 ई0, केशवराम भट्ट)
सदादर्श, (सन् 1874 ई0, दिल्ली, लाला श्रीनिवास दास)
काशी पत्रिका, (सन् 1876 ई0, बाबा बलदेव प्रसाद, शिक्षा संबंधी मासिक)
भारत बंधु, (सन् 1876 ई0, अलीगढ़, तोताराम)
भारत मित्र, (सन् 1877 ई0, कलकत्ता, रूद्रदत्त)
मित्र विलास, (सन् 1877 ई0, लाहौर, कन्हैयालाल)
हिन्दी प्रदीप, (सन् 1877 ई0, प्रयाग,
बालकृष्ण भट्ट)
आर्य दर्पण, (सन् 1877 ई0, शाहजहाँपुर, मु0 वख्तावर सिंह)
सार सुधानिधि, (सन् 1878 ई0, कलकत्ता, सदानंद मिश्र)
उचित वक्ता, (सन् 1878 ई0, कलकत्ता, दुर्गा प्रसाद मिश्र)
सज्जन कीर्ति सुधाकर, (सन् 1879 ई0, उदयपुर, बंशीधर)
भारत सुदशाप्रवर्तक, (सन् 1879 ई0, फरूखाबाद, गणेश प्रसाद)
आनंद कादंबिनी, (सन् 1881 ई0, मिर्जापुर, बदरी नारायण चौधरी उपाध्याय)
देश हितैषी, (सन् 1881 ई0, अजमेर)
दिनकर प्रकाश, (सन् 1883 ई0, लखनऊ, रामदास वर्मा)
धर्म दिवाकर, (सन् 1883 ई0, कलकत्ता, देवीसहाय)
प्रयाग समाचार, (सन् 1883 ई0, देवकीनंदन त्रिपाठी)
ब्राह्मण, (सन् 1883 ई0, कानपुर, प्रतापनारायण मिश्र)
शुभ चिंतक, (सन् 1883 ई0, जबलपुर, सीताराम)
सदाचार मार्तंड़, (सन् 1883 ई0, जयपुर, लालचन्द शास्त्री)
हिंदोस्थान, (सन् 1883 ई0, इंग्लैंड, राजा रामपाल सिंह)
पीयूष प्रवाह, (सन् 1884 ई0, काशी, अंबिका दत्त व्यास)
भारत जीवन, (सन् 1884 ई0, काशी, रामकृष्ण वर्मा)
भारतेंदु, (सन् 1884 ई0, वृंदावन, राधाचरण गोस्वामी)
कविकुलकुंज दिवाकर, (सन् 1884 ई0, बस्ती, रामनाथ शुक्ल)
भारतेन्दु जी के समय लेखकों ने साहित्य निर्माण के साथ-साथ हिन्दी भाषा और
नागरी अक्षरों की उपयोगिता के लिये भी सम्यक् प्रचार किया क्योंकि उस समय अदालतों
की भाषा उर्दू थी और शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को सरकारी नौकरियों
के योग्य बनाना था. अतः स्कूलों में या तो उर्दू की शिक्षा दी जाती थी या अंग्रेजी
के साथ उर्दू की. स्वयं भारतेन्दु जी हिन्दी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता
समझाने के लिये बहुत से नगरों में व्याख्यान देने के लिये जाते थे. वे जहाँ जाते
थे अपना यह मूलमंत्र अवश्य सुनाते थे,
निज भाषा उन्नति अहै, सब
उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के,
मिटत न हिय को सूल।।
इसी प्रकार पं0 प्रताप नारायण मिश्र भी हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तानी का
प्रचार करते थे. हिंदी प्रचार के लिये सभायें भी स्थापित हुईं. अलीगढ़ में बाबू
तोताराम ने भाषा संवर्द्धिनी सभा की स्थापना की. सन् 1886 ई0 में प्रयाग
में हिंदी उद्धरिणी प्रतिनिधि सभा की स्थापना हुई. सन् 1893 ई0 में बाबू
श्याम सुंदर दास, पं0 राम नारायण मिश्र, ठाकुर शिव कुमार सिंह के सहयोग से काशी
नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई. नागरी प्रचारिणी सभा के दो
मुख्य उद्देश्य थे- नागरी अक्षरों का प्रचार और हिन्दी साहित्य की समृद्धि. सन्
1895 ई0 में जब लॉर्ड मैकडानल काशी आये तो सभा ने उन्हें जनता की कठिनाईयों से परिचित
कराया कि किस प्रकार सरकारी दफ्तरों में हिन्दी भाषा के प्रयोग के बिना जनता
परेशान हो रही है. पं0 मदन मोहन मालवीय ने अदालती लिपि और प्राइमरी शिक्षा नाम
की एक अंग्रेजी पुस्तक लिखकर प्रकाशित की जिसमें नागरी लिपि को सरकारी दफ्तरों से
दूर रखने के दुष्परिणामों का अनुसंधानपूर्ण विस्तृत वर्णन किया. सन् 1896 ई0 से नागरी
प्रचारिणी पत्रिका प्रकाशित होने लगी जिसमें साहित्यिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक,
दार्शनिक, आदि अनेक विषयों में लेख प्रकाशित होने लगे. काशी नागरी प्रचारिणी
सभा का सबसे बड़ा कार्य हिन्दी का सबसे बड़ा और प्रामाणिक व्याकरण व शब्दकोश(शब्द
सागर) का निर्माण है. भारतेन्दु जी के समय से चले रहे अथक प्रयासों के फलस्वरूप सन् 1990 ई0 में
अंग्रेजी सरकार ने अदालती कार्यवाही के लिये नागरी लिपि को मान्यता दे दी.
भारतेन्दु जी के समय हिन्दी गद्य का बहुमुखी विकास तो हुआ लेकिन भाषा की
शुद्धता व व्याकरण सम्बन्धी त्रुटियों की ओर लेखकों का अधिक ध्यान नहीं गया.
द्विवेदी युग में हिन्दी भाषा की अशुद्धियों को दूर करने का प्रयास किया गया व
व्याकरण सम्बन्धी अनियमितता को दूर किया गया. सन् 1905 ई0 में आचार्य महावीर
प्रसाद द्विवेदी सरस्वती पत्रिका के संपादक हुये और उन्होंने लेखकों का
ध्यान भाषा की शुद्धता की ओर दिलाया. सरस्वती पत्रिका में जो भी लेख
प्रकाशित होते थे उन्हें वे स्वयं ठीक करते थे. उस समय हिन्दी भाषा में विभक्तियों
को लेकर भी लेखक काफी असमंजस में थे कि विभक्तियाँ शब्दों से मिलाकर लिखी जायें या
अलग से. पं0 गोविंद नारायण मिश्र ने विभक्ति-विचार नाम की एक छोटी सी
पुस्तक लिखी व हिन्दी भाषा की शुद्ध विभक्तियों को बताकर उन्हें शब्दों के साथ
मिलाकर लिखने की सलाह दी. जिसे सभी लेखको ने सहर्ष स्वीकार किया. वाक्य-विन्यास
में अधिक स्पष्टता आई. विराम चिह्नों का आवश्यक प्रयोग होने लगा. अंग्रेजी, बँगला,
आदि अन्य समुन्नत भाषाओं की उच्च विचारधारा से परिचित और अपनी भाषा पर भी यथेष्ट
अधिकार रखने वाले लेखकों की कृपा से हिन्दी भाषा की अर्थोद्घाटिनी शक्ति की अच्छी
वृद्धि हुई और अभिव्यंजन प्रणाली का समुचित विकास हुआ. हिन्दी भाषा सघन और गुंफित
विचार सूत्रों को व्यक्त करने तथा सूक्ष्म व गूढ़ भावों को अभिव्क्त करने में
समर्थ हुई. धीरे-धीरे हिन्दी साहित्य का स्तर ऊँचा उठने लगा. आज हिन्दी भाषा में
सभी विषयों- विज्ञान, तकनीकी, वाणिज्य, अर्थशास्त्र, आदि में पुस्तकें लिखी जा रही
हैं.
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