Sunday, June 30, 2019



पल भर जो मुस्कुरा लिये
जग की आँखों में चुभ गये।

                                       डॉ. मंजूश्री गर्ग


Friday, June 28, 2019



तपा शहर
क्रिकेट का बुखार
सिर पे चढ़ा।

                                     डॉ. मंजूश्री गर्ग

Thursday, June 27, 2019



प्यार भरी बातें
मीठी सी।
तकरार भरी
तीखी सी।
हैं अभी तक
याद दोनों ही।

                             डॉ. मंजूश्री गर्ग


Wednesday, June 26, 2019



संत कबीरदास- समाज सुधारक के रूप में

डॉ. मंजूश्री गर्ग

संत कबीरदास समसामयिक के साथ-साथ एक सार्वकालिक, सार्वभौमिक समाज सुधारक हैं.
                                           डॉ. मंजूश्री गर्ग

अर्थात् कबीरदास ने समाज को सुधारने के लिये जो काव्योक्तियाँ कही हैं वे जितनी सार्थक कबीर के समय में थीं उतनी ही सार्थक आज के समय में भी हैं और पृथ्वी के किसी भी समाज के लिये उपयोगी हैं. समाज में फैले जातिगत भेदभाव, वैमनस्य, रूढ़िवादिता, आडम्बर पर तो कबीर ने चोटें करी हैं साथ ही वे सबसे पहले समाज की सूक्ष्मतम इकाई व्यक्ति को सुधारने की बात करते हैं. यदि किसी भी समाज का प्रत्येक प्राणी सद्गुण सम्पन्न होगा तो स्वयं ही एक अच्छे समाज का निर्माण हो जायेगा.

कबीर व्यक्ति के सदाचरण, सत्संग, सद्गुरू के सानिध्य पर जोर देते हैं. सदाचरण के लिये कबीर व्यक्ति से प्राणिमात्र से प्रेम करने के लिये कहते हैं-

प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जिस रूचै, सिर दे सौ ले जाय।।

जिहि घट प्रीति न प्रेम रस, पुनि रसना नहिं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि भए बेकाम।।

सदाचरण में ऐसे व्यक्ति सहायक होते हैं तो समय-समय पर हमारे दोषों से हमें अवगत कराते रहते हैं ताकि हम उन्हें दूर करके सदाचारी बन सकें. इसीलिये कबीर कहते हैं-

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय।।

अपने मन के विकारों को दूर करने के लिये कबीर कहते हैं-

केसो कहा बिगारियो, जो मूडौ सौ बार।
मन को क्यों नहीं मूड़िये, जा में बिषै विकार।।

व्यक्ति के सदाचरण में सत्संगति का महत्वपूर्ण स्थान है, इसीलिये कबीर ने सत्संगति के महत्व का वर्णन किया है-

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय।
अंक भरे भरि भेरिये, पाप शरीर जाय।।

कबीर संगति साधु की, निष्फल कभी न होय।
ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय।।

लेकिन साधु की संगति करने से पहले साधु-असाधु की पहचान करनी भी जरूरी है इसीलिये कबीर कहते हैं-

भेष देख मत भूलये, बुझि लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहचान।।

और ऐसे आडम्बरधारी साधुओं से दूर रहने के लिये कहते हैं जो कपटी होते हैं-

बाना पहिरै सिंह का, चलै भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल।।

व्यक्ति के सदाचारी बनने में सद्गुरू का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है जो समय-समय पर हमें सही राह दिखाता रहता है-

गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहैं चोट।।

सद्गुरू ही हमें मुक्ति की राह दिखाता है और ईश्वर से मिलने का मार्ग प्रशस्त करता है इसीलिये तो कबीर कहते हैं-

गुरू गोविंद दोनों खड़े, काके लागौ पाय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविंद दियो बताय।।

कबीर जी ने स्वयं गृहस्थ जीवन जिया था. गृहस्थी व्यक्ति के सदाचारी गुणों के विषय में भी कबीर ने कहा है-

जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै सील विचार।
गुरूमुख बानी साधु संग, मन वचन सेवा सार।।

माँगन गै सो मर रहै, मरै जु माँगन जाहिं।
तिनते पहले वे मरे, होत करत हैं नाहिं।।

कबीर ने स्वयं गृहस्थ जीवन जिया और आजीविका के लिये जुलाहे का कार्य किया-

साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।

किसी से भी कटु वचन कहने को मना करते हैं-

कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि करै तन छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत अपार।।

कबीर ने अपने समय में फैले हिन्दु-मुस्लिम, ऊँच-नीच, जातिगत भेदभाव  के बीच फैले वैमनस्य को दूर करने का भी भरसक प्रयास किया. हिन्दु-मुस्लिम दोनों के ही धर्म में फैले आडम्बर का विरोध किया है-

पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजुँ पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाये संसार।।

काँकर-पाथर जोड़ के मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।

माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डार के, मन का मनका फेर।।

दिनभर रोजा रखत हैं, रात हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुशी खुदाय।।

वास्तव में कबीर के कथनों का यदि किसी भी समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी हो, चाहे वो संत हो, साधु हो, गृहस्थ हो, गुरू हो, शिष्य हो, पालन करे तो स्वतः ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो जायेगा।

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Monday, June 24, 2019




कमान खुश है कि तीर उसका कामयाब रहा।
मलाल भी है कि अब लौट के न आएगा।।

                                                       कृष्ण कुमार नाज

Sunday, June 23, 2019



पीते हैं रोज
अश्रु कहाँ हैं खारे
जीते हैं हम।

                                  डॉ. मंजूश्री गर्ग

Saturday, June 22, 2019



जग को दे दें
महक औ' उजाला
फूल, दीप सा।

                                          डॉ. मंजूश्री गर्ग

Friday, June 21, 2019




कवि प्रस्तुत पंक्तियों में परिवार के सदस्यों में आपस प्रेम-भाव बनाये रखने के लिये कहते है. एक बार यदि रिश्ते टूट जाते हैं तो कुछ समय पश्चात् आपसी सुलह हो जाने पर भी मनों में गाँठ अवश्य पड़ जाती है-
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिलै, मिलै गाँठि परि जाय।।
                                 रहीमदास
इसीलिये कवि कहते हैं-
रूठे सुजन मनाइये जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिर फिर पोइये जो टूटे सौ बार।।
                                 रहीमदास

Thursday, June 20, 2019



शब्दों के वाणों से जब घायल होते हैं
अपने ही अपनों के दुश्मन होते हैं।
वाणी पे संयम से यदि काम लें
कितने ही महाभारत रूक सकते हैं।
                             डॉ. मंजूश्री गर्ग




पक्षी समूह
तीर सा बनाकर
उड़े आकाश।

                                     डॉ. मंजूश्री गर्ग

Wednesday, June 19, 2019







तिनके गूँथ
अनुपम घोंसला
बया ने रचा।

                                    डॉ. मंजूश्री गर्ग

Monday, June 17, 2019



शीश मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
एहि बानक मो मन बसैं, सदा बिहारी लाल।।

                                   बिहारी लाल

Sunday, June 16, 2019





हाइकु

डॉ. मंजूश्री गर्ग

नया सबेरा
रोशन होंगीं राहें
चहके मन.
1.

काटे पत्थर
पत्थरों से फूटती
जल धारायें.
2.

शिमला सजे
देवदार के वृक्ष
चीड़ के वृक्ष.
3.

गगन चुम्बी
इमारतें खड़ी हैं
दिल्ली शहर.
4.

नदी जल में
किल्लोल करती
पानी की बूँदें.
5.

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पिता के प्रति अभिव्यक्त उद्गार-

ओ पिता
तुम गीत हो घर के
और अनगिन काम दफ्तर के

छाँव में हम रह सकें यूँ ही
धूप में तुम रोज जलते हो।
तुम हमें विश्वास देने को
दूर, कितनी दूर चलते हो।

            डॉ0 कुँअर बेचैन

Friday, June 14, 2019



अपनों के बीच
पहचान अपनी
बहुत भारी पड़ी।
अपनों से ही
नाता टूट गया।

                     डॉ. मंजूश्री गर्ग


Thursday, June 13, 2019




पति-पत्नी एक-दूसरे की प्रगति में बाधक नहीं बनते, वरन् एक-दूसरे को सहयोग देते हैं. आपस में किसी भी बात का छिपाव सहन नहीं कर पाते, इसी संवेदना की अभिव्यक्ति कवि ने यशोधरा के कथन से की है-
सिद्धि हेतु स्वामी गये यह गौरव की बात।
पर चोरी चोरी गये यह बड़ी आघात।।
सखी वे मुझसे कहकर जाते।
                  मैथिलीशरण गुप्त

Wednesday, June 12, 2019




तेरी नजरों में सँवरते रहे हम
तेरी बाँहों में पिघलते रहे हम।
नित अस्तित्व अपना खोकर
तुझ में ही ढ़लते रहे हम।

                     डॉ. मंजूश्री गर्ग

Tuesday, June 11, 2019






 आप सभी को यह सूचित करते हुये हर्ष हो रहा है कि मेरा एक और हाइकु-संग्रह इन्द्रधनुष प्रकाशित हुआ है।

प्रकृति के रंग, प्रेम के रंग, भक्ति के रंग मिलकर अनगिन रंग बनाते हैं. जैसे पीला, लाल और नीला रंग मिलकर अनगिन रंग बनाते हैं. जीवन में प्रकृति, प्रेम और भक्ति मिलकर भावों के अनेकों रंग सजाते हैं. इन्हीं रंगों के संयोजन से इंद्रधनुष सजते हैं. प्रस्तुत हाइकु-संग्रह इन्द्रधनुष में विविध संवेदनाओं के इंद्रधनुषी रंग संजोने का प्रयास किया है.  









मौन भी है अस्त्र
बिना शब्द करता है प्रहार।

                             डॉ. मंजूश्री गर्ग




Monday, June 10, 2019



धूप की तो बात और है
छाँव भी छाँव चाहती
भरी दोपहरी जून में।

                                   डॉ. मंजूश्री गर्ग


Sunday, June 9, 2019




धूल रोज करता हूँ साफ ह्रदय-पटल से
चरण-चिह्न अंकित हैं मेरे ह्रदय-पटल पे।

                             डॉ. मंजूश्री गर्ग


Friday, June 7, 2019



उसका कुछ तो इलाज करवाओ
उसके व्यवहार में सरलता है।
                        -बाल स्वरूप राही

Thursday, June 6, 2019



पँख मिले उल्लास के, लक्ष्य बादलों पार।
मंजिल मुझसे कह रही, सपने कर साकार।।

                                                                     कुलभूषण व्यास


Wednesday, June 5, 2019



निंदा किसी की हम किसी से भूल कर भी न करें,
ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूल कर भी न करें,
हे प्रभु आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये----

सत्य बोलें, झूठ त्यागें, मेल आपस में करें,
दिव्य जीवन हो हमारा, यश तेरा गाया करें,

हे प्रभु आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये----
                          राम नरेश त्रिपाठी



रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठलैंहें लोग सब, बाँटि न लैहें कोय।।
                               रहीमदास

Monday, June 3, 2019



सबै सहाय सबल कै, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय।।

                                                                                     कविवर वृंद