Tuesday, January 30, 2018



मेरी बगिया के फूल!


डॉ0 मंजूश्री गर्ग

मेरी बगिया के फूल
ना यूँ मुरझाया करो।
तुम्हें देखकर ही
उदास पलों में
मुस्काये हैं हम।
जग की आँखों में
चुभे हैं हम।
तुम्हारे लिये ही
काँटे बने हैं हम।

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Monday, January 29, 2018



मिट्टी एक..........

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

मिट्टी एक, रूप अनेक
कभी बन घट, बुझाती प्यास
और कभी मानव बन
स्वयं बनती प्यास।
कभी बन मूर्ति देती वर
और कभी मानव बन
स्वयं बनती याचक।

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Sunday, January 28, 2018



आधुनिक ओवन का विकास

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

प्राचीनकाल में अग्नि के आविष्कार के साथ मानव ने अपना भोजन पकाना प्रारम्भ कर दिया था, जो कि सुपाच्य, स्वादिष्ट व स्वास्थ्यवर्धक भी था. धीरे-धीरे मानव ने अपनी आवश्यकता व साधनों के अनुसार चूल्हों के रूपों का आविष्कार किया. प्रारम्भ में मानव कुछ लकड़ियों के ढ़ेर को जलाकर उसी पर मिट्टी के बर्तन रखकर खाना पकाते थे. फिर कुछ ईंटों का तीन तरफ से घेरा बनाकर, एक तरफ लकड़ी जलाने की जगह खाली रखकर चूल्हे का प्रारम्भिक रूप तैयार हुआ. इसके ऊपर आसानी से खाने बनाने का बर्तन टिक जाता था और एक ही तरफ से हवा जाने के कारण आग भी ठीक से लगती थी, अपनी आवश्यकता के अनुसार आँच को कम या ज्यादा भी किया जा सकता था. फिर इन्हीं चूल्हों को मजबूत आकार देने के लिये ईंटों पर भूसा मिश्रित मिट्टी का लेप करके सुखा लिया जाता था. चूल्हे का यह रूप सबसे अधिक प्रचलित रहा. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तो प्रायः सभी घरों की रसोई के एक कोने में या रसोई के बीच में स्थायी चूल्हा बना हुआ अवश्य पाया जाता था. फिर इस चूल्हे में एक बदलाव आया और यह अचल से चल भी हो गया. नीचे लोहे के आधार पर पाये लगाकर ऊपर चूल्हा बनाया जाने लगा. जिसे अपनी सुविधानुसार अंदर-बाहर ले जाया जा सकता था. चूल्हे का ही एक और प्रतिरूप प्रकाश में आया, ये प्रायः लोहे की बाल्टियों से बनाये जाते थे, इसमें बाल्टी के लगभग मध्य में चेद करके लोहे की सलाखें रखी जाती थीं और नीचे के हिस्से में चौकोर सा हिस्सा काटकर निकाल दिया जाता था और ऊपर के हिस्से में चारों तरफ मिट्टी-भूसा मिश्रित लेप लगा दिया जाता था और ऊपर तीन पाये बर्तन टिकाने के लिये बनाये जाते थे, ऊपर हैंडिल होने के कारण अंगीठियाँ सुविधानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जायी जा सकती थीं. इन अँगीठियों में नीचे से हवा जाने के कारण आग आसानी से जल जाती थी, पहले छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़े या कच्चे कच्चे कोयले(जली हुई लकड़ी को बुझाने पर प्राप्त ठंड़ा कार्बन) ही जलाये जाते थे, फिर धीरे-धीरे बाजार में पत्थर का कोयला आने लगा. पत्थर के कोयलों को सुलगते कच्चे कोयलों या जलते लकड़ी के टुकड़ों पर रख दिया जाता था--- दस-पन्द्रह मिनट में पत्थर के कोयले सुलगने लगते थे, ये आँच काफी समय तक रहती थी. सर्दियों के मौसम में तो पत्थर के कोयले की अँगीठियों से कमरा गर्म करने का काम भी लिया जाता था. किन्तु कभी-कभी ये अँगीठियाँ हानिकारक भी हो जाती थीं, जबकि असावधानीवश बंद कमरे में सोते समय अँगीठी जलाकर छोड़ दी जाती थी. पत्थर के कोयले ले निकलने वाली कार्बनडाइआक्साइड गैस कमरे से बाहर न निकल पाने के कारण सो रहे व्यक्तियों की मृत्यु का कारण भी बन जाती थी।

पत्थर के कोयले ने काफी समय तक क्रांति मचाये रखी. कोयले की खानें अधिकांशतः बिहार राज्य में हैं. पत्थर के कोयले ने हलवाईयों का काम भी काफी आसान कर दिया, बड़ी-बड़ी भट्टियों में काफी समय तक जलने वाली पत्थर के कोयले की अँगीठी और भट्टियों का ही प्रचलन अधिकांशतः रहा. यद्यपि इस समय विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ खाना पकाने के अन्य साधन भी प्रकाश में आने लगे थे. जैसे- लकड़ी के बरूदे की अँगीठी, स्टोव, हीटर, एल0 पी0 जी0 पर चलने वाला गैस चूल्हा.

जब से लकड़ी काटने के लिये जगह-जगह आरा मशीनें लगीं, तो लकड़ी चीरने पर काफी मात्रा में लकड़ी का बरूदा निकलने लगा. लकड़ी के बरूदे की अँगीठियों को जलाने में इसी बरूदे का सदुपयोग होता था, इसका आकार पत्थर के कोयले की अँगीठी से एकदम भिन्न था, ये प्रायः एक फुट लम्बी और और आठ या दस इंच व्यास की होती थी. केन्द्र में एक पाइप होता था और ऊपर ढ़क्कन. अँगीठी भरते  समय बीच में पाइप लगा देते थे और चारों तरफ बरूदा भर दिया जाता था, अँगीठी में नीचे की तरफ तीन इंच व्यास का एक छेद होता था, जिसमें एक गोलाकार लकड़ी जलायी जाती थी. छोटे परिवारों के लिये ये अँगीठियाँ बहुत उपयोगी सिद्ध हुई. ईंधन का खर्च कम पड़ता था, क्योंकि इसमें सुविधा थी कि एक बार काम करने के बाद इसे बंद करके दोबारा भी आवश्यकतानुसार जलाया जा सकता था.
कैरोसिन के स्टोव ने क्रांति मचा दी, आग जलाना बहुत ही आसान हो गया, जहाँ अँगीठियों, चूल्हों में आग जलाने में घंटों लग जाते थे, वहीं स्टोव पर दो-चार मिनट में ही आग जल जाती थीं. स्टोव के भी दो रूप हैं--- गैस का स्टोव और बत्ती वाला स्टोव. धीरे-धीरे बिजली से चलने वाले हीटर का प्रचलन भी बढ़ने लगा.

एल0 पी0 जी0 के चूल्हे आधुनिक युग की महत्वपूर्ण देन है, इसमें साधारणतया दो बर्नर होते हैं लेकिन आजकल तीन बर्नर और चार बर्नर के चूल्हे भी आ रहे हैं माचिस की तीली जलाते ही सैकेंड में आग लग जाती है. महानगरों में साठ के दशक से ही इसका प्रचलन शुरू हो गया था किंतु धीरे-धीरे छोटे-छोटे शहरों में ही नहीं गाँवों और कस्बों में भी इसका प्रचलन बढ़ गया. अस्सी के दशक में तो हलवाईयों ने भी पत्थर के कोयले की भट्टियों से निजात पा ली और गैस चालित भट्टियों पर अपना पकवान बनाने का काम शुरू कर दिया. बायो-गैस प्लांट के अनुसंधान के बाद तो गाँवों के घर-घर में गैस के चूल्हे दिखाई देने लगे, इससे एक तो लकड़ी के चूल्हे व अँगीठी के धुँऐं से होने वाले प्रदूषण से ग्रामीण महिलाओं को राहत मिली, दूसरे गाँवों में बहुतायत की मात्रा में पाये जाने वाले गोबर का भी सदुपयोग होना शुरू हो गया.

आधुनिक युग में खाने पकाने के नित नये साधनों का प्रचलन बढ़ रहा है, इनमें से ओवन, हॉट प्लेट, ओ0 टी0 जी0, कुकिंग रेंज, माइक्रोवेव ओवन का महत्वपूर्ण स्थान है. ओवन के बाजार में आने से घर में केक, पेस्ट्री, बिस्कुट,आदि बेकरी की खाद्य वस्तुयें बनाने में सुविधा हो गयी. माइक्रोवेव ओवन तो आधुनिक युग का क्रांतिकारी आविष्कार है. इसमें खाना बहुत ही कम समय में बनता है और पौष्टिकता भी अधिक बनी रहती है. माइक्रोतरंगों की तीव्रता का पता इसी बात से चलता है कि यदि माइक्रोवेव ओवन में कोई धातु का बर्तन रख दें, तो मिनटों में पिघल जाता है, इसीलिये माइक्रोवेव ओवन में धातु के बर्तन में खाना बनाना वर्जित है, काँच के बर्तन ही इसके लिये अधिक उपयुक्त हैं. उपर्युक्त सभी साधन बिजली पर आश्रित हैं.

वास्तव में आधुनिक ओवन के विकास की कहानी बहुत ही रोमांचकारी व आश्चर्यजनक है. यह न केवल सदियों पुराने मानव-जीवन में हुये परिवर्तन को दर्शाती है वरन् स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में हुई तीव्र प्रगति को भी दर्शाती है क्योंकि भारत में खाना पकाने के साधनों में नित नये परिवर्तन पिछले पाँच दशकों में ही हुये हैं.












Friday, January 26, 2018



किसको कहें अपना,
अपने ही दुश्मन यहाँ।
गाइड ही मिसगाइड करते,
विश्वासी ही विश्वासघात।

                     डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Thursday, January 25, 2018


26 जनवरी, 2018 गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें


हिम श्रेणी अंगूर लती सी
फैली, हिम जल है हाला।
चंचल नदियाँ साकी बनकर
भरकर लहरों का प्याला।
कोमल कूल करों में अपने
छलकाती निशिदिन चलती।
पीकर खेत खड़े लहराते
भारत पावन मधुशाला।

                 डॉ0 हरिवंशराय बच्चन

Wednesday, January 24, 2018



बनेंगे, मिटेंगे, नये साँचे में ढ़लेंगे।
मिट्टी के पुतले, कब तक जियेंगे।।

                                                    डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Tuesday, January 23, 2018


हाइकु

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

खुशी के फूल
खिले आज मन में
खिला आनन।

फूल खिले तो
बही भीनी खुशबू
बहकी हवा.

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Sunday, January 21, 2018

22 जनवरी, 2018 बसंत पंचमी पर हार्दिक शुभकामनायें

सरस्वती वन्दना



शत-शत नमन माँ शारदे
जन्म-दिवस है आपका
जन्म-दिवस सब कलाओं का
जन्म हो हम सबके मन
नव राग, नव बसंत का।
        
      डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, January 19, 2018


परम्परायें

परम्परायें बेड़ियाँ नहीं,
पथ प्रदर्शक हैं हमारी,
धरोहर हैं संस्कृति की।
बाधक गर बने प्रगति-पथ में,
तोड़नी पड़ती हैं कभी-कभी।

                        डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Thursday, January 18, 2018



तुम्हारी ही तरह
पल-पल है बदलता
मिजाज मौसम का
कभी नरम, कभी गरम।

             डॉ0 मंजूश्री गर्ग





Wednesday, January 17, 2018


ताजी हवा के झोंके दम तोड़ते दरवाजों पे।
बंद कमरों की घुटन कम होती ही नहीं।।
                         डॉ मंजूश्री गर्ग

Tuesday, January 16, 2018


ऊँचाई नहीं होती है पतंग की
ऊँचाई होती है पेड़ की
जो धरती में गढ़ा होता है।

क्योंकि पतंग की ऊँचाई
डोर से बँधी होती है
जो होती है किसी और के हाथ
जो जब चाहे ऊपर उठा दे
जब चाहे नीचे गिरा दे
जब चाहे किसी से मिला दे
जब चाहे धरती पे गिरा दे।

अब तुम सोच लो ऊँचा उठना है
पेड़ सा या पतंग सा
पेड़ के लिये धरती में गढ़ना होता है
और पतंग के लिये डोर किसी और के हाथों में
देने की मजबूरी है।


       सुरेन्द्र शर्मा



Monday, January 15, 2018




उत्तरायण
हुये हैं सूर्य
बढ़ रहा है ताप।
धीरे-धीरे-धीरे
हुये हैं कम
सर्दियों के सितम।

             डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Sunday, January 14, 2018


समय की छलनी में,
छनेंगे सभी।
रेत के कण,
बह जायेंगे धार में।
हीरे के कण,
चमकेंगे युगों तक।

           डॉ0 मंजूश्री गर्ग


Saturday, January 13, 2018


दो जन मिले बिना, सम्भव नहीं,
बात प्यार की हो, या तकरार की।

                          डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, January 12, 2018


हाइकु

रूको ना तुम
प्रगति है वहीं पे
गति है जहाँ।

जलकर भी
कहाँ बाती जलती
जलता दिया।

                      डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Thursday, January 11, 2018


नाजुक डाल
झुक-झुक जाये
ना टूटे,
टूटे
मजबूत पेड़
आँधी में।

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

           

Tuesday, January 9, 2018


प्रतिबंधित जीवन में,
उन्मुक्तता  है कैद।
भावनाओं की कैद में
भावना   है  कैद।
               डॉ0 मंजूश्री गर्ग











Sunday, January 7, 2018


मंजिल पानी है गर
अवरोधों से डरना कैसा!
कौन है? जिसने ताप सहा नहीं
सूरज जैसा चमका जो भी।
              डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Saturday, January 6, 2018



शांत बहुत शांत हैं सागर की लहरें
तूफान आने की प्रबल संभावनायें हैं.

                                                      डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, January 5, 2018



जग विष भी देगा तो अमृत हो जायेगा।
मीरा की तरह दीवानी हूँ मैं तेरे नाम की।।

                                                             डॉ0मंजूश्री गर्ग