Friday, December 31, 2021

 


नव वर्ष की

नव बेला में

नव उत्साह ले

आओ! मिलकर

करें स्वागत

नव वर्ष का।

देहरी पे दो दीप जलायें

मन में प्यार की ज्योत जलायें।

 

             डॉ.मंजूश्री गर्ग


 नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें-2022

खुशी के पल

तरंगें उठती मन

जल समान।

               डॉ. मंजूश्री गर्ग


Thursday, December 30, 2021


अँधेरी रातें सही

नये साल का उजाला तो साथ है।

जगमग है जहाँ सारा

दीवाली सा उत्साह तो साथ है।।

 

             डॉ.मंजूश्री गर्ग 

Wednesday, December 29, 2021



नई उमंगें

नई चाह मन में 

जिलाती हमें।


           डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Saturday, December 25, 2021

मौन निमंत्रण देते हमको ये मुस्काते फूल। विविध रंग नयनों में भरते, गंध मन में।। डॉ. मंजूश्री गर्ग

Thursday, December 16, 2021

मन-मन्दिर जगी प्रेम-ज्योति मिटा अँधेरा। डॉ. मंजूश्री गर्ग

Monday, December 13, 2021


छाया तो छाया है, छाया का अस्तित्व क्या।

जब तक साथ हो तुम, है वजूद मेरा।।


                         डॉ.मंजूश्री गर्ग

Saturday, December 11, 2021

 

साहित्य की प्रेरणाः संवेदना

डॉ. मंजूश्री गर्ग

अनुभूति(संवेदना) साहित्य की प्रेरणा है और अनुभव संवेदनाओं को गहनता प्रदान करते हैं.

                                                      डॉ. मंजूश्री गर्ग

साहित्य की मूल प्रेरणा संवेदना है, जब कोई सह्रदय व्यक्ति अपनी या किसी अन्य प्राणी की वेदना को देखकर या सुनकर इतना मर्माहत हो जाता है कि जब तक उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर लेता, किसी प्रकार उसके मन को शांति नहीं मिलती. जिस प्रकार चित्रकार अपनी अनुभूति को चित्रों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, संगीतकार अपनी ह्रदयगत अनुभूतियों को संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, उसी प्रकार साहित्यकार अपनी अनुभूतियों को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, फिर चाहे माध्यम कहानी हो या कविता, उपन्यास हो या नाटक कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता. सशक्त शब्दों में कही गई बात का पाठक या श्रोता पर समान प्रभाव पड़ता है.

साहित्यकार शब्दों के माध्यम से किसी घटना विशेष का एक चित्र सा पाठक के सामने बनाता है. कभी-कभी उस घटना की गूँजें भी सुनाई देती हैं,जैसे-  आदि कवि वाल्मीकि को यदि क्रौंच पक्षी के वध से इतनी सघन वेदना न हुई होती तो कवि के मुख से कभी भी प्रस्तुत आदि श्लोक न निकला होता-

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम शाश्वती समा।

यत्क्रौंच मिथुनादेकम् अवधी काममोहितम्।।

प्रस्तुत श्लोक को पढ़कर जहाँ आँखों के सामने बहेलिए द्वारा क्रौंच पक्षी के वध का चित्र बनता है वहीं वाण की गूँज और क्रौंच पक्षी की चीख की अनुभूति भी होती है.

संवेदनायें प्रेरणायें कैसे बनती हैं-

जब किसी कलाकार की वेदना इतनी घनीभूत हो जाती है कि उसके मन में मैं और पर का भेद समाप्त हो जाता है. किसी भी पात्र के सुख-दुख, उसके जीवन चरित्र की घटनायें कवि या लेखक को अपने ऊपर घटित होती हुई सी प्रतीत होती हैं और वो सहजता से उन्हें अपने काव्य में आभिव्यक्त करता है. काव्य में अभिव्यक्त ये संवेदनायें इतनी परिष्कृत होती हैं कि ये समसामयिक होते हुये भी सार्वभौमिक, सार्वकालिक, सार्वदेशिक बन जाती हैं. जिन्हें संवेदनशील ह्रदय पढ़कर या सुनकर रसदशा को प्राप्त होता है अर्थात् आनन्दित होता है. सुसंस्कृत साहित्य मानव मन की वेदनाओं को परिष्कृत करने का भी काम करता है, इसीलिये अच्छा साहित्य समाज के लिये वरदान होता है.

भारतीय काव्य चिन्तन में संवेदना

अपने नाट्य शास्त्र में जब भरतमुनि ने कहा- तत्र विभानुभाव संचारी संयोगाद्रसः निष्पत्ति। तो वह इस सिद्धान्त के मूल में संवेदना के तत्व को ही स्वीकार कर रहे थे. तत्र जिसका अर्थ स्वयं भरतमुनि ने रंगमंच से लिया है, उसमें कोई लोकव्यवहार ही अभिनीत किया जाता है. लोक की कोई भी गतिविधि जिसे दर्शक अपने भाव एवम् ज्ञानक्षेत्र में रखता है, फिर भी उस अभिनय प्रस्तुति विशेष को देखकर वह विभाव, अनुभाव और संचारी के संयोग से रसदशा को प्राप्त होता है. यह ज्ञातव्य है कि विभाव, अनुभाव और संचारी में से कोई भी कभी लोक निरपेक्ष नहीं हो सकता. वह वाह्य संसार के प्रति किसी मनुष्य के सम्बन्ध, मानसिक या इन्द्रियगत को ही संकेतित करता है. काव्य में स्थित संवेदन तत्व ही अपने विभिन्न उपादानों द्वारा अभिव्यक्त या प्रस्तुत किया जाता है, तभी श्रोता या दर्शक को रसबोध हो पाता है.

संस्कृत साहित्य में रसबोध का वर्चस्व सदा रहा है जिसका एकमात्र उद्देश्य यही मानना था और है कि काव्य रचना में रस ही मूलभूत तत्व है और इसकी निष्पत्ति जिस प्रक्रिया से होती है वह संवेदना की संवेदनशील मन में एक प्रक्रिया है. बाद के आचार्यों ने इस संवेदन तत्व को ही अधिक प्रभावकारी रूप में अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से नये-नये काव्य सिद्धान्तों को जन्म दिया. जो देखने में कलावादी लगते हैं लेकिन वास्तव में काव्य की आत्मा को अभिव्यक्त करते हैं कि किस प्रकार काव्य आधिक प्रभावकारी रूप से अभिव्यक्ति पा सके.

ध्वनिवादी काव्य की आत्मा ध्वनि मानते हैं, परन्तु इसे मानने वाले शब्द औऱ अर्थ की उपेक्षा न करके उच्च श्रेणी के काव्य के लिये अभिधार्थ तक सीमित न रहकर अर्थ प्रतीति को व्यंगार्थ या ध्वनि या प्रतीयमान अर्थ की अभिव्यक्ति को आवश्यक मानते हैं. आनन्दवर्धन ने लिखा है-

यत्रार्थः शब्दों वा तमर्थमुप सर्जनी कृत स्वार्थो।

व्यक्तः काव्य विशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कार्यतः।।

अर्थात् जहाँ अर्थ अपने को अथवा शब्द अपने को गुणीभूत करके उस(प्रतीयमान) अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं. उस काव्य विशेष को विद्वान जन (ध्वनि) काव्य कहते हैं. यह प्रतीयमान अर्थ श्रोता या पाठक को भावबोध या संवेदना की उच्चतर कक्षा में अवस्थित कर देता है.

भारतीय काव्य चिन्तन में लोक से जुड़ाव और लोकानुभवगत अथवा संवेदना को स्थान अवश्य ही मिला है. काव्य प्रकाश में मम्मट काव्य के हेतु बताते हुये शक्ति, प्रतिभा, निपुणता काव्य विषयों के ज्ञान के साथ-साथ लोकशास्त्र अनुशीलन पर भी जोर देते हैं जिसका अभिप्राय अर्थलोक के सम्यक् बोध और उसके मनोगत प्रभाव से है.

भवभूति करूणेव एकोरसः कहकर में करूण रस के एकाधिकार की घोषणा करते हैं जो संवेदना का ही पर्याय है.

पाश्चात्य काव्य चिन्तन में संवेदना-

पाश्चात्य काव्य मर्मज्ञों में सर्वप्रथम अरस्तु का नाम विचारणीय है, जिन्होंने विरेचन-सिद्धान्त की स्थापना की. विरेचन से अभिप्राय है शुद्धिकरण. जिस प्रकार वैद्य जड़ी-बूटियों के द्वारा रोगी काया को निरोगी बनाता है, उसी प्रकार साहित्यकार समाज की संवेदनाओं को शब्द कला के माध्यम से सुष्टुरूप में सृजित कर उनका परिष्कार करता है जिसका लाभ रचनाकार के साथ-साथ पाठक या श्रोता को भी मिलता है.  

इटली के विद्वान बर्नदते क्रोचे ने साहित्य में अभिव्यंजना की स्थापना की. क्रोचे के मतानुसार व्यक्ति के मन में वाह्य संसार के वाह्य स्वरूप उत्पन्न अनेक छायाचित्र रहते हैं. अनुभूति के कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब व्यक्ति इन छायाचित्रों को अभिव्यंजित करने के लिये विवश हो जाता है. ये अनुभूति के क्षण संवेदनाओं के ही क्षण हैं, जो समाज में घटित घटनाओं के छायाचित्र के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होते हैं और इनका आवेग ही साहित्यकार को शब्दों के माध्यम से साहित्य में संवेदनाओं को अभिव्यंजित करने के लिये विवश करता है.

आई.. रिचर्डस ने सम्प्रेषण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया. अनके अनुसार किसी विशेष वातावरण का किसी व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है और वह उससे सन्दर्भित कोई कृति प्रस्तुत करता है. यदि उस कृति से दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में भी पहले व्यक्ति जैसा प्रभाव पड़े तो इसे ही सम्प्रेषणीयता कहते हैं अर्थात् कुछ विशेष परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न मस्तिष्क एक जैसी ही अनुभूति प्राप्त करते हैं, यही प्रेषणीयता है. यह अनुभूति संवेदना का ही पर्याय है जो साहित्यकार की रचना की मूल प्रेरणा है.

टी. एस. इलियट ने काव्य में निर्वैयक्तिकता के सिद्धान्त की स्थापना की, जिसका सामान्य अर्थ है व्यक्तिगत भावों की विशिष्टता का सामान्यीकरण. इलियट ने निर्वैयक्तिकता के सिद्धान्त से भी यही ध्वनि निकलती है कि कवि या लेखक की रचना करने की मूल प्रेरणा संवेदना ही होती है. अपनी तीव्र संवेदना को पात्र और कथानक के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं कि वह संवेदना और अनुभव उसके अपने होते हुये भी सभी पाठकों व श्रोताओं की संवेदनायें व अनुभव बन जाते हैं.

आधुनिक काव्य-चिन्तन में संवेदना-

रचना के लिये अज्ञेय जी दो चीजें आवश्यक मानते हैं- एक तो कलात्मक अनुभूति या संवेदना, दूसरे उसके प्रति वह तटस्थ भाव जो उसे सम्प्रेषित कर सके. अज्ञेयजी के अनूसार संवेदनायें प्रेरणा कैसे बनती हैं--------

अनुभूति को ग्रहण कर उसे रचना के रूप में लाने तक रचनाकार एक अन्तःप्रक्रिया से गुजरता है. वह यन्त्रणा भरी प्रक्रिया अनुभूति को सम्प्रेषित कर लेने के बाद ही शान्त होती है.

डॉ0 नवीन चन्द्र लोहनी के अनुसार , वास्तव में संवेदना ही वह तत्व है जो कि कवि को काव्य रचना हेतु अग्रसर करती है. संवेदन जितना तीव्र होगा, उतना ही उसका असर होगा और उसकी अभिव्यक्ति भी उसकी शक्ति व क्षमता के साथ हो सकेगी और उसका प्रभाव भी उतना ही क्रान्तिकारी होगा. संवेदन की यही आप्लावित करने वाली शक्ति रचनाकार को दृष्टा, उन्मेष्टा, सन्द्याता, सार्थवाह एवम् सृष्टा बनाती है. यही वह शक्ति है जो रचनाकार को इतर जगत को तृतीय नेत्र से देखने की प्रेरणा देती है और परघटित एवम् इतर जगत में भावविचार एवम् कल्पना के सहारे प्रवेश कर उसे रचना के माध्यम से सम्प्रेषित करने का माध्यम प्रदान करती है.

मृदुला गर्ग कहती हैं, जिस तरह प्रकृति और परिवेश के बीच संतुलन बिगड़ने से पर्यावरण प्रदुषित होने लगता है, वैसे ही स्व और परिवेश का संतुलन बिगड़ने से साहित्य का स्तर गिरने लगता है. स्व उससे मेरा अभिप्राय है मौलिक चिंतन और अनुभूति से बना आत्मबोध. आत्मबोध और युगबोध एक दूसरे के पूरक होते हैं. इस सूक्ष्म और गत्यात्मक संतुलन को बनाये रखने के लिये साहित्यकार को जिस सहजवृत्ति की आवश्यकता होती है, वह है सम-अनुभूति या समभाव. मात्र सहानुभूति नहीं. सहानुभूति में दृष्टा और दृश्य में दूरी बनी रहती है. कर्ता, कर्म से एकात्म नहीं होता. इसलिये उससे राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, समाज सुधारक, चिकित्सक आदि का काम भले चल जाये, सर्जक का नहीं चलता. यहाँ सम-अनुभूति या समभाव संवेदना का ही पर्याय है,

 

जो काव्य की मूल प्रेरणा है.

मुक्तिबोध ने संवेदना के दो रूप- संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन बताते हुये उसका काव्य में उपस्थित होना अनिवार्य माना है, जगत जीवन के संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना के भीतर समाई मार्मिक आलोचना दृष्टि के बिना कवि कर्म अधूरा रह जाता है.

यह संवेदना रचनाकार के मानस को किस प्रकार प्रभावित करती है और किस प्रकार रचना प्रक्रिया में अनिवार्य सहयोग देती है, इसके बारे में मुक्तिबोध कहते हैं, लेखक, जो कि अपनी संवेदनात्मक क्षमता से साहित्य सृजन करता है, वह संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार परिचालित होता है. वह अपनी अभिव्यक्ति का पैटर्न भी, संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार बनाता है. दूसरे शब्दों में, संवेदनात्मक उद्देश्य, एक ओर आत्म चरित्रात्मक होते हैं, तो दूसरी ओर वे एक विशेष प्रकार का कलात्मक प्रभाव उत्पन्न करने के लिये अभिव्यक्ति का विशेष पैटर्न गूँथते हैं, तो तीसरी ओर ये संवेदनात्मक उद्देश्य अपने धक्के से ह्रदय में स्थित जीवन अनुभवों अर्थात् ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान को जाग्रत और संकलित करके उन्हें अपनी दिशायें प्रवाहित करते हैं. जाग्रत अन्तश्चेतना में अर्थात् इस प्रक्रिया में कल्पना उत्तेजित होकर संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार अनुभवों के साकार चित्र प्रस्तुत करती जाती है.

इस प्रकार भारतीय काव्य शास्त्रियों के मतों, पाश्चात्य काव्य शास्त्रियों के मतों व आधुनिक विचारकों के मतों के अनुशीलन से यही निष्कर्ष निकलता है कि साहित्य की मूल प्रेरणा संवेदना ही है.

उदयभानु हंस द्वारा प्रस्तुत मुक्तक भी इसी मत की पुष्टि करते हैं कि साहित्य की मूल प्रेरणा संवेदना है------------

      जब कवि का ह्रदय भाव-प्रवण होता है

      अनुभूति का भी स्रोत गहन होता है

      लहराने लगे बिन्दु में ही जब सिन्धु

      वास्तव में वही सृजन का क्षण होता है।

 

      जब भाव के सागर में ज्वार आता है

      अभिव्यक्ति को मन कवि का छटपटाता है

      सीपी से निकलते हैं चमकते मोती

      संवेदना से ही सृजन का नाता है।

 

 

 

       


Wednesday, December 8, 2021


हजार गम सही दिल में खुशी मगर यह है,

हमारे होठों पर मांगी हुई हँसी  तो नहीं।


                कृष्ण बिहारी नूर

Tuesday, December 7, 2021

 

सर्दी की धूप

चाँदनी सी शीतल

सुहानी लगे।


                          डॉ. मंजूश्री गर्ग

Monday, December 6, 2021


मय पी के जो गिरता है तो लेते हैं उसे थाम

नजरों से गिरा जो उसे फिर किस ने सँभाला।


                          नजीर अकबराबादी 

Saturday, December 4, 2021

 


हिन्दी भाषा का मानक रूप पुस्तक मैंने हिन्दी व्याकरण पर लिखी है. इस पुस्तक में बहुत ही सरल और सहज भाषा में हिन्दी व्याकरण को विस्तार से समझाने का प्रयास किया है. प्रारम्भ में हिन्दी भाषा का क्रमिक विकास और भविष्य पर लेख लिखा है. पुस्तक में हिन्दी भाषा का वर्णन दो भागों में किया है-

1.       भाषा की संरचना- इसमें भाषा की लिपि, वर्ण, शब्द(शब्द स्रोतों के साथ-साथ शब्द रचना का वर्णन करते हुये उपसर्ग, प्रत्यय, संधि, समास, आदि का वर्णन किया है), पद, पदबन्ध(पदबन्ध के साथ ही संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, आदि का वर्णन किया है), वाक्य, विराम चिह्न, आदि का वर्णन किया है.

2.       2. भाषा की शक्ति- इसमें भाषा की शक्ति, मुहावरे-लोकोक्ति, प्रतीक-विधान, बिम्ब-विधान, अलंकार, आदि का वर्णन किया है.


प्रिय पाठकों आपको यह जानकर हर्ष होगा कि मेरी पुस्तक हिन्दी भाषा का मानक रूप अब 

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पारस छूकर लोहा सोना बन जाता,

पर, पारस पारस ही रहता।।


              डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Thursday, December 2, 2021



सम्बन्धों की देहरी पर खिले प्यार के फूल।

रखना कदम आगे विश्वासों के साथ।।


                डॉ. मंजूश्री गर्ग

  

Wednesday, December 1, 2021


मेरे मिलन में तुम हो प्रिये! मेरे विरह में भी तुम।

मेरी जीत में तुम हो प्रिये! मेरी हार में भी तुम।

मेरी मुस्कान में तुम हो प्रिये! मेरे अश्रु में भी तुम।

 मेरी साँसों की लय में तुम ही तुम हो प्रिये!

 

                    डॉ. मंजूश्री गर्ग