Tuesday, February 28, 2017

हिन्दी साहित्य: मस्त गगन में उड़ता पंछीमत पिंजरे में कैद करोजीते  ...

हिन्दी साहित्य: मस्त गगन में उड़ता पंछीमत पिंजरे में कैद करोजीते  ...: मस्त गगन में उड़ता पंछी मत पिंजरे में कैद करो जीते  जी  मर  जायेगा 'गर पिंजरे में कैद हुआ.                   डॉ0 मंजूश्री गर्ग...



दीवाली सा दिव्य आलोक हो जीवन में,
निराशा का अंधकार रहे ना मन में।
होली का उल्लास हो जीवन डगर में,
पल-प्रतिपल उमंग उठे बढ़ने की मन में।

                   डॉ0 मंजूश्री गर्ग





गजल

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

उगते हुये सूरज को ये ढ़कता है कौन।
घनघोर अँधेरे को फिर तोड़ता है कौन।।

जलती हुई शमा दम तोड़ चुकी कब का।
परवानों का राग फिर सुनाता है कौन।।

पंछियों का राग आज बंद हुआ नीड़ों में।
रात के सपनों को फिर चुराता है कौन।।

पथिक आज खो गये घनघोर कोहरे में।
सड़कों को आज फिर जगाता है कौन।।

उन्नति के पथ बढ़ रहे हैं हर तरफ।
हार के भाव फिर बढ़ाता है कौन।।

बादल का शोर बंद है हर तरफ।
खिलती बगिया को फिर रूलाता है कौन।।

दम घुटता है इस जिंदगी में जियें किस तरह।
उम्र भर नींद में फिर सुलाता है कौन।।

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Monday, February 27, 2017



बहने दो स्नेह की सहज, सरस, मधुर धारा।
सिंचित हो जिससे महके जीवन की बगिया।।
                डॉ0 मंजूश्री गर्ग

तुम आये तो जीवन की राह नजर आई,
अँधेरे में उजाले की ज्यों किरण नजर आई।
                डॉ0 मंजूश्री गर्ग


उदासी के किले में तुम कभी भी कैद मत होना,
हमारी याद आये जब तभी तुम मुस्करा लेना।
                              नित्यानंद तुषार

दीप में कितनी जलन है, धूप में कितनी तपन है।
यह बताएंगे तुम्हें वे, जिन्दगी जिनकी हवन है।
                                वीरेन्द्र मिश्र

जिन्दगानी दो निगाहों में सिमटती जा रही है,
प्यास बढ़ती जा रही है, उम्र घटती जा रही है।
                               वीरेन्द्र मिश्र

अमिय हलाहल मद भरे, श्वेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि परत जेहि चितवत इक बार।
                                    रसलीन
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Sunday, February 26, 2017


नींव के पत्थर
(डॉ0 मंजूश्री गर्ग)

हर कोई बेताब मीनार बनने को
नींव के पत्थर कहीं पाये नहीं जाते.
आखिर कॅयू?
क्योंकि भूल गये हम
सदियों पुरानी परम्परा
नींव रखने की.

नींव के प्रथम पत्थर को, कलावे से बॉधना
साथ में हल्दी की गॉठ, सुपारी का रखना.
करना उससे प्रार्थना कि दे मजबूती मीनार को.
लड्डुओं का भोग लगाना और मित्र परिवार में बॉटना.
मीनार के हर पत्थर से ज्यादा देना सम्मान




नींव के पत्थर को.

थोडा सा पाकर सम्मान नींव के पत्थर
अंधेरे में गुम रहकर भी सदियों तक
थामें रहते हैं मीनार को औदेते हैं स्थिरता.
भूकम्प के झटके हों या झंझा,तूफान
मीनार से पहले सहते हैं
नींव के पत्थर
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घुट-घट कर जियें,
         जिंदगी सारी।
अच्छा है एक पल में जियें,
           जिंदगी सारी।।
   
     डॉ0 मंजूश्री गर्ग



एक दिन.......
  डॉ0 मंजूश्री गर्ग

है कविता में सूरज सी आग
तो खिलेगी धूप सी एक दिन।

है अगर चाँदनी चाँद सी
तो देगी शीतल छाँव एक दिन।

धुंध हो, या हों बादल, बाधायें
किसकी दूर होती नहीं एक दिन।
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Saturday, February 25, 2017


नाम मिटे तो ऐसे कि जैसे नदी सागर हो गयी।
यश ढ़ले तो ऐसे कि जैसे सूरज ढ़ले औ' चाँद निकले।।

              डॉ0 मंजूश्री गर्ग





कितनी निर्मोही, निर्दयी नदी हो गयी,
वनांचल छोड़ सागर की हो गयी।

      डॉ0 मंजूश्री गर्ग












Friday, February 24, 2017


झूठे ख्बाब दिखा रहे हो
हमको तुम बहला रहे हो।
गहरे पानी में क्या?
कागज की किश्ती चला रहे हो।

         डॉ0 मंजूश्री गर्ग













गजल
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

धड़कन की तरह महसूस करो तुम,
मैं हूँ दिल की तरह तेरे तन में बसी हुई।

खुशबू की तरह महसूस करो तुम,
मैं हूँ फूल की तरह तेरे मन में खिली हुई।

झंकार की तरह महसूस करो तुम,
मैं हूँ घुंघरू की तरह तेरे पग में बँधी हुई।
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Thursday, February 23, 2017

समय की दहलीज पर
जला दो आज चिरागें।
रोशन हो जायेंगी
आने वाली राहें अँधेरी।

     डॉ0 मंजूश्री गर्ग



नदिया ही आयेगी, कब सागर आयेगा।
है मान उसमें भी, बिन बुलाये तो न आयेगी।।

   डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Wednesday, February 22, 2017

कविवर वृंद के दोहे

अपनी पहुँच विचारि कै, करतब करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए, जेति लाँबि सौर।।1।।

विद्या धन उद्यम बिना, कहौ जु पावै कौन।
बिना डुले ना मिलै, ज्यों पँखा की पौन।।2।।

भले बुरे सब एक सौं, जो लौं बोलत नाहिं।
जानि परतु हैं काक-पिक, ऋतु बसंत के माहिं।।3।।

सबै सहाय सबल कै, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय।।4।।

कारज धीरे होतु है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरूवर फलै, केतक सीचौं नीर।।5।।

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Monday, February 20, 2017


जल जैसा सरल जीवन............

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

जल जैसा सरल जीवन

प्यार से रखोगे
तुम्हारे ही साँचें में
ढ़ल जायेगा।

तपाओगे
भाप बन के
उड़ जायेगा।

जमाओगे
बर्फ बन के
पिघल जायेगा।
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Saturday, February 18, 2017


उर्वशी हो तुम मेरी........

प्रेमी..............

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

उर्वशी हो तुम मेरी
कैसे कह दूँ! दर्द नहीं होता
दर्द में हो तुम
टीस उठतीं दिल में।
मरणासन्न अवस्था में
और नहीं देखा जाता।

चाहता है मन
माँग लूँ तुम्हें
आशा की किरण
जो मन में है
उसी के सहारे
विदा करा लूँ तुम्हें
मिली के
अमिताभ की तरह।
ले जाकर विदेश
इलाज कराऊँ।

गर तुम ठीक हो गयीं
तो क्या शेष जीवन
सहर्ष बिताओगी
मेरे साथ।
मानता हूँ; सहज नहीं होगा
तुम्हारे लिये।
पति और पुत्र को भूलकर
मेरे साथ रहना।

पर क्या! अभी सहज था
मुझे भूल पाना तुम्हारे लिये?

प्लीज! मुझसे कुछ और
चाह मत रखना।
इंसान हूँ, इंसान ही रहने देना
भगवान बनाने की कोशिश न करना।

उर्वशी हो तुम मेरी
शापित हो तुम भी
साथ एक ही मिलेगा
पति-पुत्र या प्रेमी।


प्रेमिका............

हाँ! उर्वशी हूँ मैं तेरी
शापित हूँ मैं भी
जानती हूँ साथ एक का ही मिलेगा
पति-पुत्र या प्रेमी
जीवन बीच धार संभव नहीं।

पर क्या पुरूषत्व  तुम्हारा भी
सिर्फ नारी पर अधिकारों का है
कर्तव्य से पहले वचन लेना है।
प्रेम तुम्हारा भी है शर्तों पर आधारित।

मत मेरी साँसों के ठेकेदार बनो
ऋणी थी उनकी, जन्म दिया जिन्होंने।
अब कोई बन्धन स्वीकार नहीं।
सहज मन समर्पित किया जीवन जिसको
वो ही दर्द में साथ छोड़ गया।
एक प्रेमिल स्पर्श के लिये तड़पती रही सारी रात।
जीने दो मुझे अब अपने ढ़ंग से।
ना अधिकार किसी पे चाहती हूँ,
ना ही बोझिल हूँ अब कर्तव्यों के बोझ तले।

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