उर्वशी हो तुम मेरी........
प्रेमी..............
प्रेमी..............
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
‘उर्वशी हो तुम मेरी’
कैसे कह दूँ! दर्द नहीं होता
दर्द में हो तुम
टीस उठतीं दिल में।
मरणासन्न अवस्था में
और नहीं देखा जाता।
चाहता है मन
माँग लूँ तुम्हें
आशा की किरण
जो मन में है
उसी के सहारे
विदा करा लूँ तुम्हें
‘मिली’ के
अमिताभ की तरह।
ले जाकर विदेश
इलाज कराऊँ।
‘गर तुम ठीक हो गयीं
तो क्या शेष जीवन
सहर्ष बिताओगी
मेरे साथ।
मानता हूँ; सहज नहीं होगा
तुम्हारे लिये।
पति और पुत्र को भूलकर
मेरे साथ रहना।
पर क्या! अभी सहज था
मुझे भूल पाना तुम्हारे लिये?
प्लीज! मुझसे कुछ और
चाह मत रखना।
इंसान हूँ, इंसान ही रहने देना
भगवान बनाने की कोशिश न करना।
उर्वशी हो तुम मेरी
शापित हो तुम भी
साथ एक ही मिलेगा
पति-पुत्र या प्रेमी।
प्रेमिका............
हाँ! उर्वशी हूँ मैं तेरी
शापित हूँ मैं भी
जानती हूँ साथ एक का ही मिलेगा
पति-पुत्र या प्रेमी
जीवन बीच धार संभव नहीं।
पर क्या पुरूषत्व तुम्हारा भी
सिर्फ नारी पर अधिकारों का है
कर्तव्य से पहले वचन लेना है।
प्रेम तुम्हारा भी है शर्तों पर आधारित।
मत मेरी साँसों के ठेकेदार बनो
ऋणी थी उनकी, जन्म दिया जिन्होंने।
अब कोई बन्धन स्वीकार नहीं।
सहज मन समर्पित किया जीवन जिसको
वो ही दर्द में साथ छोड़ गया।
एक प्रेमिल स्पर्श के लिये तड़पती रही सारी रात।
जीने दो मुझे अब अपने ढ़ंग से।
ना अधिकार किसी पे चाहती हूँ,
ना ही बोझिल हूँ अब कर्तव्यों के बोझ तले।
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