Tuesday, May 31, 2016

कलमः कल और आज
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

कलम का मानव जीवन से अटूट रिश्ता है. कलम की ताकत को तलवार की ताकत से भी ज्यादा कहा जाता है. हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचंद को कलम का सिपाही कहा जाता है. होल्डर, पेन, डॉटपेन, जेलपेन सब कलम के ही आधुनिक रूप हैं.

साठ-सत्तर के दशक में सरकंडे से बनी कलम को ही कलम कहा जाता था. सरकंडे को आगे से छीलकर निब जैसा बनाया जाता था, फिर उसे स्याही में डुबोकर लिखा जाता था. बच्चे सर्वप्रथम इसी कलम की सहायता से तख्ती पर लिखना सीखते थे. कलम को खड़िया के घोल में डुबोकर तख्ती पर लिखा जाता था. तीसरी-चौथी कक्षा में आने पर बच्चों को कलम का और परिष्कृत रूप होल्डर दिया जाता था. होल्डर छः-सात इंच लम्बा होता था, आगे निब लगा होता था. इससे भी स्याही में डुबो-डुबोकर लिखा जाता था. साथ में बराबर स्याही  की दवात( Inkpot ) रखनी होती थी, क्योंकि एक बार स्याही में डुबोने पर एक अक्षर मुश्किल से लिखा जाता था. पाँचवी-छठी कक्षा में आने पर बच्चों को फाउंटेन पेन दिया जाता था. यह चार-पाँच इंच के लगभग लम्बे होते थे, इनमें स्याही एक बार में ही पर्याप्त मात्रा में भरने का प्रावधान होता था.आगे लिखने के लिये निब होती थी और निब में लगातार स्याही आने के लिये जीभ लगी होती थी. कभी-कभी लिखते समय निब टूट जाती थी तो उसको नये निब से बदल दिया जाता था. इस समय धीरे-धीरे डॉट पेन भी प्रचलन में आ गये थे, किन्तु इन्हें वैधानिक मान्यता नहीं मिली थी.
 स्कूल,कॉलेजका सब काम फाउंटेन पेन से ही करना होता था,ऑफिस का काम भी फाउंटेन पेन से ही होता था. यहाँ तक कि डॉटपेन से किये गये हस्ताक्षर मान्य भी नहीं थे.अस्सी और नब्बे के दशक में कलम के विकास में बहुत तीव्र गति से परिवर्तन हुये. न कलम का चलन रहा ना स्याही-दवात का. बच्चों को नर्सरी से ही लिखने के लिये पेंसिल दी जाने लगी और पहली-दूसरी कक्षा से डॉटपेन. पहले कलम पूजनीय होती थी, उसे सँभालकर रखा जाता था. आज का युग ( use & throw ) का है तो कलम भी बाजार में ( Disposable ) आने लगीं. जब से ( Gelpen ) बाजार में आये हैं ( Inkpen ) का अस्त्तित्व ही समाप्त सा हो गया है. (Gelpen ) से बिल्कुल ऐसे लिखा जाता है जैसे (Inkpen) से.
आजकल बाजार में लगभग पाँच रूपये से लेकर पाँच सौ रूपये तक के डॉट पेन उपलब्ध हैं, हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार खरीद सकता है. आजकल परीक्षाओं में भी विद्यार्थी डॉटपेन से लिख सकते हैं और सभी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में डॉटपेन से किये हस्ताक्षरों को वैधानिक मान्यता प्राप्त है.


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Sunday, May 29, 2016

जय-विजय की कथा
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

एक बार सनत् कुमार बिष्णु भगवान के दर्शन के लिये बैकुण्ठ लोक को गये, किन्तु वहाँ के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें बच्चे समझकर अन्दर जाने से रोक दिया. परिणाम स्वरूप सनत् कुमारों ने क्रोधवश जय-विजय को श्राप दिया कि तुमने हमारा तीन घड़ी समय नष्ट किया है, इसलिये तुम्हें तीन बार मृत्यु लोक में दैत्य योनि में जन्म लेना होगा. जब स्वयं बिष्णु भगवान बाहर आये तो उन्होंने सनत् कुमारों को वहाँ क्रोध की अवस्था में जय-विजय को श्राप देते हुये देखा. तब बिष्णु भगवान ने सनत् कुमारों का अभिवादन किया और कहा कि जय-विजय तो मेरी ही आज्ञा का पालन कर रहे थे. जय और विजय ने भी सनत् कुमारों के चरण पकड़ कर अनुरोध किया कि हमसे जो भूल हुई है उसे क्षमा करने की कृपा कीजिए और श्राप से मुक्त कर दीजिए. तब सनतकुमारों ने कहा कि दिया हुआ श्राप तो वापस नहीं हो सकता किन्तु साथ ही यह वरदान भी देते हैं कि हर जन्म में तुम्हारी मृत्यु प्रभु के ही हाथों होगी और तीसरी बार तुम्हें मुक्ति मिलेगी.
जय-विजय ने प्रथम जन्म हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में लिया. जब हिरण्याक्ष को मारने के लिये प्रभु ने वाराह अवतार लिया और हिरण्यकश्यप को मारने के लिये नृसिंह अवतार लिया. दूसरे जन्म में जय-विजय रावण और कुम्भकर्ण बने, तब प्रभु ने राम अवतार लेकर रावण और कुम्भकर्ण को मारा. तीसरे जन्म में जय-विजय ने शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में जन्म लिया, तब प्रभु ने कृष्ण अवतार लेकर शिशुपाल और दन्तवक्र को मारकर दैत्य योनि से मुक्त कर बैकुंठ-धाम भेज दिया.

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Friday, May 27, 2016

प्रद्युम्न की कथा
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
प्रद्युम्न श्रीकृष्ण और रूक्मिणी के पुत्र थे. जब वह अठारह दिन के थे तो शम्बासुर नामक राक्षस प्रद्युम्न को उठा कर ले गया और उन्हें समुद्र में फेंक दिया. समुद्र में एक मछली ने उन्हें निगल लिया. एक बार वह मछली मछेरे के जाल में आ गयी और शम्बासुर के रसोईघर में लाई गयी. जब मछली का पेट चीरा गया तो उसमें से एक सुन्दर बालक निकला. उस अत्यन्त सुन्दर बालक का मायावती( जो शम्बासुर के यहाँ रसोइया बनकर रह रही थी) ने पालन-पोषण किया. मायावती प्रद्युम्न के प्रति रति भाव रखती थी. धीरे-धीरे प्रद्युम्न बड़ा होने लगा और सांसारिक बातों को समझने लगा. एक दिन प्रद्युम्न ने मायावती से पूछा, हे माता! तुम मेरी माँ होकर मुझे पति भाव से क्यों देखती हो. तब मायावती ने कहा, तुम पूर्वजन्म में मेरे पति कामदेव थे और मैं तुम्हारी पत्नी रति. एक बार कामदेव ने देवताओं के हित के लिये शिवजी की तपस्या भंग की थी. तब शिवजी ने क्रोधित होकर कामदेव को भस्म कर दिया था. किन्तु बाद में उन्हें बोध हुआ कि कामदेव निर्दोष है तब रति का विलाप सुन, उसे आर्शीवाद देते हुये शिवजी ने रति से कहा, हे रति! तू चिन्तित मत हो. तेरा पति द्वापर सुग में जब कृष्णावतार होगा और श्रीकृष्ण-रूक्मिणी का विवाह होगा तो रूक्मिणी के गर्भ से जन्म लेगा और तुझे शम्बासुर की रसोई में मिलेगा. पन्द्रह वर्ष की आयु में वह शम्बासुर को मारकर तुझे द्वारिका ले जायेगा. वहाँ तेरा और उसका विधिवत विवाह होगा. एक दिन प्रद्युम्न ने शम्बासुर को युद्ध के लिये ललकारा और द्वन्द्व युद्ध करते हुये शम्बासुर को मार दिया. फिर प्रद्युम्न और रति विमान में बैठकर द्वारिका जा पहुँचे. वहाँ बड़ी धूमधाम के साथ दोनों का विधिवत विवाह हुआ.

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Monday, May 23, 2016

                                                   श्रीकृष्ण और सुदामा की कथा






डॉ0 मंजूश्री गर्ग
श्रीकृष्ण और सुदामा संदीपन ऋषि के आश्रम(उज्जैन) में एक साथ विद्या अध्ययन करते थे. एक बार गुरू पत्नी ने श्रीकृष्ण और सुदामा को वन में ईंधन के लिये लकड़ी लेने भेजा, साथ में कलेवा(नाश्ता) के लिये चने दिये. दोनों का कलेवा सुदामा के ही पास था. वन से लौटते समय अचानक तेज आँधी-बारिश आने के कारण रात दोनों को वन में बितानी पड़ी. सुदामा चुपचाप अकेले चने खाते रहे, जब श्रीकृष्ण ने सुदामा से कहा, हे भाई! तुम क्या खा रहे हो, यदि तुम्हारे पास कोई खाने की वस्तु हो तो हमें भी दो. तब सुदामा ने झूठ बोला कि मेरे पास खाने की कोई वस्तु नहीं है, मेरे दाँत तो ठंड के कारण कटकटा रहे हैं. इस प्रकार सुदामा ने श्रीकृष्ण के हिस्से का कलेवा(चने) भी स्वयं खा लिया. परिणाम स्वरूप सुदामा को भविष्य में घोर दरिद्रता का सामना करना पड़ा.
एक बार सुदामा के परिवार को दरिद्रता के कारण दो दिन बिना आहार के ही बिताने पड़े. तीसरे दिन उनके दो छोटे बच्चे भूख से व्याकुल होकर रोने लगे. तब सुदामा की पत्नी सुशीला ने विनती करते हुये अपने पति से कहा, हे नाथ! लक्ष्मीपति श्रीद्वारिकानाथ आपके परममित्र और गुरू-भाई हैं. यदि आप उनके पास जायें तो वो आपकी दरिद्रता दूर करने का अवश्य प्रयास करेंगे. सुदामा ने बहुत मना किया, लेकिन सुशीला के बार-बार आग्रह करने पर सुदामा अपनी पत्नी द्वारा दिये चावलों की पोटली बगल में दबाकर श्रीकृष्ण के दर्शन की अभिलाषा मन में लिये वैभवपूर्ण द्वारिका पुरी को चल दिये.
सुदामा जब राजमहल के पास पहुँचे तो द्वारपाल ने उन्हें द्वार पर रोक दिया और श्रीकृष्ण को समाचार कहा कि एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण आपसे मिलने आया है, उसका नाम सुदामा है और आपको अपना मित्र बताता है. सुदामा का नाम सुनकर श्रीकृष्ण तुरन्त ही सिंहासन से उठकर स्वयं सुदामा से मिलने दौड़ पड़े, सुदामा को सहर्ष गले से लगाया ससम्मान राजभवन में अन्दर लाकर सिंहासन पर बैठाया. स्वयं अपने हाथों से सुदामा के चरण धोये और रूक्मिणी, आदि आठों पटरानियों के साथ मिलकर आदर-सत्कार किया. सुदामा संकोच वश भेंट स्वरूप लाई चावलों की पोटली श्रीकृष्ण को नहीं दे रहे थे, तब श्रीकृष्ण ने सुदामा के मन का भाव जानकर स्वयं ही चावलों की पोटली ले ली और बहुत ही स्नेह सहित चावल खाये. यद्यपि सुदामा के मन में धन की कोई लालसा नहीं थी, फिर भी श्रीकृष्ण ने सुदामा की दरिद्रता दूर कर सुदामा के घर का जीर्णोद्धार किया. धन-धान्य व सभी सुख-सुविधाओं से सुदामा का घर भर दिया.
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Sunday, May 22, 2016

श्रीकृष्ण के ह्रदय पर भृगु ऋषि का चिह्न
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
एक बार अन्य ऋषियों के कहने पर भृगु ऋषि ब्रह्मा, बिष्णु, महेश की परीक्षा लेने गये कि तीनों में कौन सबसे बड़ा है. पहले भृगुजी ब्रह्मा जी की सभा में गये और बिना दण्डवत किये ही बैठ गये. ब्रह्मा जी बहुत क्रोधित हुये, किन्तु इन्हें अपना पुत्र समझकर कुछ नहीं कहा. फिर भृगु जी शिवजी के कैलाश पर्वत गये, शिवजी भृगु जी से मिलने के लिये हाथ फैलाकर खड़े हो गये, लेकिन भृगु जी यह कहकर दूर ही खड़े रहे कि तुम धर्म-कर्म छोड़कर मरघट में बैठे रहते हो. अतः मुझे स्पर्श मत करो. यह सुनकर शिवजी को अत्यन्त क्रोध आया और वे त्रिशूल लेकर मारने के लिये दौड़े. उस समय पार्वती जी ने यह कहकर शिवजी को शांत किया कि भृगु आपके छोटे भाई हैं, इसलिये इनका अपराध क्षमा करो. तब भृगुजी बैकुंठ में श्रीबिष्णु भगवान के पास गये जहां श्री हरि रत्न-जड़ित शैय्या पर सोये हुये थे. भृगु जी ने अपने बायें चरण से उनके वक्षस्थल पर प्रहार किया, चरण-प्रहार लगते ही श्री हरि उठकर बैठ गये और अपने कर-कमलों से भृगु जी के चरणों को पकड़कर कहने लगे, हे मुनि श्रेष्ठ! आपके चरण कमल अति कोमल हैं और मेरा ह्रदय वज्र के समान कठोर है, अतः आपको कहीं चोट तो नहीं लगी. भगवन्! यदि मुझे आपके आगमन का समाचार मिला होता तो मैं स्वयं बढ़कर आपकी अगवानी करता. अब आपके चरण-चिह्न को मैं सदैव अपने ह्रदय पर धारण किये रहूँगा. यद्यपि लक्ष्मी जी क्रुद्ध होकर शाप भी देना चाहती थीं किंतु श्री हरि के भय से कुछ न कह सकीं. तब भृगु ऋषि ने अन्य ऋषिमुनियों को सारा वृतान्त सुनाते हुये कहा कि श्री नारायण से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है.

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Tuesday, May 17, 2016

नल-दमयंती की प्रेम कथा


डॉ0 मंजूश्री गर्ग

नल निषाद देश का योग्य शासक था. उसके शासन काल में राज्य में सुख-समृद्धि छायी हुई थी. साथ ही नल सुन्दर, वीर और बलशाली था. एक दिन एक ब्राह्मण नल के दरबार में आया और उसको विदर्भ देश के राजा भीम की पुत्री दमयन्ती के बारे में बताया, जो बहुत ही सुन्दर, सुशील व गुणवान थी. ब्राह्मण ने कहा कि तुम्हारे योग्य दमयन्ती ही है, दमयन्ती का एक चित्र भी बनाया. राजा नल दमयन्ती के चित्र को देखकर व गुणों को सुनकर उस पर मोहित हो गये. एक दिन अपने बाग में दमयन्ती के ध्यान में मग्न राजा नल घूम रहे थे तभी एक सुनहरे पंख वाला हंस उनके पास आया. राजा नल ने यह जानने के लिये कि क्या दमयन्ती भी उन्हें चाहती है हंस को विदर्भ देश भेज दिया. दमयंती पहले से ही राजा नल के गुणों को सुनकर उन पर मुग्ध थीं और उन्हें पतिरूप में पाना चाहती थीं. जब हंस ने आकर राजा नल का संदेश दमयन्ती को दिया तो दमयन्ती नल का संदेश पाकर बहुत खुश हुईं. दमयन्ती ने अपने मन के उद्गार भी हंस के द्वारा राजा नल के पास भिजवाये, जिन्हें सुनकर राजा नल बहुत प्रसन्न हुये.
राजा भीम ने दमयन्ती के लिये स्वयंवर का आयोजन किया. स्वयंवर में भाग लेने के लिये विभिन्न देशों के राजकुमारों के साथ नल भी आये. साथ ही स्वर्ग के देवता –इन्द्र, वरूण, अग्नि और यम भी स्वयंवर में भाग लेने के लिये आये. जब स्वयंवर कक्ष में दमयन्ती अपने हाथों में वरमाला लेकर आयीं तो देखा कि अन्य राजकुमारों के साथ पाँच नल रूप के राजकुमार वर के रूप में खड़े हैं, क्योंकि चारों देवताओं ने भी नल का रूप धारण किया हुआ था. दमयंती ने उस समय धैर्य से काम लिया और ध्यानपूर्वक देखा. चारों देवता जो नल रूप में खड़े थे उनकी पलकें नहीं झपक रहीं थीं, जबकि वास्तविक नल की पलकें बराबर झपक रहीं थीं. दमयंती ने उसी को वरमाला पहना दी. तब देवता अपने असली रूप में आ गये और नल-दमयंती को आर्शीवाद देकर स्वर्ग को चले गये.

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Monday, May 16, 2016

होने को निबद्ध सागर की बाहों में,
हैं आकुल सरिता की लघु लहरें।

प्रगाढ़ आलिंगन सागर की बाँहों का
करता है शांत सरिता की उन्मत्तता।

                                डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Thursday, May 12, 2016

जीवन के दो ही रंग

कभी दिन, कभी रात ।
कभी धूप,  कभी छाँव ।
कभी सुख, कभी दुःख ।
कभी जीत, कभी हार ।
                             डॉ0 मंजूश्री गर्ग


Wednesday, May 11, 2016

दुःख के पर्वतोॆ में से जो सुख की धारा बहती है वही पयस्विनी होती है.

                                                                   डॉ0 मंजूश्री गर्ग

गुरू तो सिर्फ राह दिखा सकता है तुम्हें. यदि मंजिल पानी है तो चलना स्वयं ही होगा.

                                                                    डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Monday, May 9, 2016

10.
कल्कि अवतार



डॉ0 मंजूश्री गर्ग


कलियुग के अंत में विष्णु भगवान का अवतार कल्किनाम से होगा. वे हाथ में तलवार लेकर, नीले घोड़े पे बैठकर, अत्याचारी और पापी जनों को मारते हुये संसार में सतयुग के कर्मों की स्थापना कर धर्म को बढायेंगे.
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Saturday, May 7, 2016

9.
बुद्ध अवतार



डॉ0 मंजूश्री गर्ग

कलियुग के प्रारम्भ में ई0 पू0 583 में लुम्बिनी(नेपाल) में कपिलवस्तु के राजा(शाक्य) शुद्धोधन के यहाँ भगवान बुद्ध ने जन्म लिया. बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था. सोलह साल की उम्र में यशोधरा से विवाह किया, जिससे राहुल उत्पन्न हुये. उंतीस वर्ष की आयु में सत्य की खोज में राजमहल की सब सुख-सुविधायें छोड़्कर  घर को त्याग दिया.

पैंतीस वर्ष की आयु में भगवान बुद्ध को गया में पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ, तभी से उन्हें बुद्धकहा जाने लगा और उस पीपल वृक्ष को बौद्धि-वृक्ष’. भगवान बुद्ध ने सत्य, अहिंसा का महत्व जन-जन को समझाया और राक्षसों का मन यज्ञ करने से हटाया. ई0पू0 483 में भगवान बुद्ध ने कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया.

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8.
कृष्ण अवतार



डॉ0 मंजूश्री गर्ग

द्वापर युग में मथुरा नरेश कंस की बंदी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव के पुत्र के रूप में भगवान श्री कृष्ण ने कारागार में जन्म लिया और नंद-यशोदा को गोकुल में अपनी बाल-चरित्र की विविध लीलाओं से सम्मोहित किया. श्री कृष्ण ने वृंदावन में राधा और गोपियों के साथ रास रचाये. श्री कृष्ण ने बचपन में कंस द्वारा भेजे गये राक्षसों का भाई बलभद्र के साथ मिलकर वध किया. श्री कृष्ण ने कंस, काल-यवन एवं जरासंध जैसे पापी राक्षसों को मारकर पृथ्वी का भार दूर किया.श्री कृष्ण ने  रूक्मिणी, आदि आठ पटरानियों से व सौलह हजार रानियों से विवाह किया और  गुजरात में समुद्र में द्वारिकापुरी बसाई. महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण ने कौरवों को अपनी सारी सेना दी और पांडवों की तरफ स्वयं रहे. अर्जुन के सारथि बने. युद्ध प्रारंभ होने से पहले श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया, जो आज भी अमृत वाणी के समान है.
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Friday, May 6, 2016


7.
राम अवतार



डॉ0 मंजूश्री गर्ग


त्रेता युग में अयोध्यापुरी में राजा दशरथ के यहाँ श्री रामचंद्र ने जन्म लिया. श्री राम ने बाल्यावस्था में ही अनेक राक्षसों को मारकर विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा की थी. बिना परिश्रम श्री राम ने शिव-धनुष को तोड़्कर राजा जनक की पुत्री सीता से विवाह किया था. अपनी माता कैकेयी व पिता की आज्ञा के अनुसार श्री राम  चौदह वर्ष के लिये वन में गये, वहाँ अनेक राक्षसों को मारा व अनेक ऋषियों को व अपने भक्तों को दर्शन देकर कृतार्थ किया.
रावण द्वारा सीता हरण करने पर, श्री राम ने वानर-भालुओं की मदद से लंका पर विजय प्राप्त की व रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद, आदि महाप्रतापी राक्षसों को मारकर, उनके भार से पृथ्वी को मुक्त किया. चौदह वर्ष बाद श्री राम अयोध्या आकर राजगद्दी पर आसीन हुये. श्री रामचंद्र के न्यायोचित धर्म के कारण त्रेतायुग में भी सतयुग का आभास होता था. इसीलिये श्री राम के राज्य-काल को धर्म-राज्यया राम-राज्यकहा जाता है.
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6.
परशुराम अवतार


डॉ0 मंजूश्री गर्ग


जमदग्नि और रेणुका के चारों पुत्रों में से परशुराम सबसे छोटे थे. वे बड़े क्रोधी, युद्ध-कर्ता और महान विजयी थे. उन्होंने इक्कीस बार देवताओं और ब्राह्मणों के द्रोही क्षत्रियों को मारकर उनके वंश का नाश किया था.
एक बार जमदग्नि ने रेणुका के पर-पुरूष की जल-क्रीड़ा पर आसक्त होने के कारण अपने पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी; किंतु बड़े तीन पुत्रों ने मना कर दिया, तब पिता की आज्ञा का पालन करते हुये परशुराम ने अपनी माता व बड़े तीन भाइयों का वध किया. प्रसन्न होकर जमदग्नि ने परशुराम से वर माँगने को कहा. तब परशुराम ने अपनी माता और भाइयों को पुनः जीवित होने का वर प्राप्त किया. उनकी कृपा से माता और तीनों भाई पुनः जीवित हो गये.

एक बार परशुराम की अनुपस्थिति में सहस्त्राबाहु के सौ पुत्र अपने पिता का बदला लेने के उद्देश्य से जमदग्नि ऋषि को मारकर, उनका सिर काटकर अपने साथ ले गये. जब परशुराम को यह समाचार ज्ञात हुआ तो उन्होंने उसी समय क्रोधावेश में आ यह प्रतिज्ञा की कि, “मैं पृथ्वी को विप्रद्रोही क्षत्रियों से हीन कर दूँगा.” इसी प्रतिज्ञा के फलस्वरूप परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन कर, कुरूक्षेत्र में नहाकर, उन राजाओं कि सारी पृथ्वी कश्यप-वंशी ब्राह्मणों को दान कर दी. 

Thursday, May 5, 2016

5.


मतस्य अवतार की कथा

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

एक बार प्रलय रात्रि के समय ब्रह्मा जी अचेतावस्था में सोये हुये थे. दिन होने पर उन्हें जम्हाई आई. उस समय हयग्रीव नामक दैत्य उनके मुख से वेद निकाल कर पाताल लोक में ले गया. यह देखकर ब्रह्मा जी ने नारायण जी से प्रार्थना की कि, “ हे महाराज! हयग्रीव दैत्य वेद चुराकर ले गया है. मुझमें और देवताओं में उसे जीतने की सामर्थ्य नहीं है, इसलिये आप वेदों को लाने का कोई उपाय कीजिये.” तब भगवान मतस्य(मछली) का रूप रखकर पाताल लोक से वेदों को लेकर आये.
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4.
वामन अवतार



डॉ0 मंजूश्री गर्ग



राजा बलि प्रहलाद के पौत्र थे. उसने अपने पराक्रम से तीनों लोकों में अपना शासन स्थापित किया था. उसने विश्व विजयी बनने के लिये सौ यज्ञ करने का संकल्प किया था. निन्नियानवें यज्ञ तो भली प्रकार सम्पन्न हो गये किंतु जब सौंवा यज्ञ करने लगा तो देवताओं की माता अदिति, जो देवताओं का राज्य छिन जाने से अति दुखित थी और भी दुःखी हुई. तब उन्होंने अपने को निःसहाय पा विष्णु भगवान की आराधना की कि किसी तरह मेरे पुत्रों का राज्य वापस मिल जाये.
विष्णु भगवान ने अदिति की आराधना से प्रसन्न हो अदिति और कश्यप के यहाँ पुत्र रूप में जन्म लिया. थोड़ा बड़े होने पर ब्रह्मचारी का वेश बना, हाथ में दण्ड-कमण्डल ले राजा बलि के सौंवे यज्ञ में चले गये. उनके तेज से पूरी यज्ञशाला प्रकाशमान हो गयी. राजा बलि ने वामन भगवान को उच्च आसन पर बैठाया और कुछ दान माँगने के लिये अनुग्रह किया. तब वामन भगवान ने केवल तीन पग धरती माँगी. राजा बलि ने कहा, “प्रभु! आप जहाँ से चाहें भूमि नाप लें.” तब वामन भगवान ने अपना विराट रूप रखकर एक पग में स्वर्गलोक के सातों भुवन और दूसरे पग में पाताललोक के सातों भुवन नाप लिये. तब राजा बलि शर्मिंदा होकर हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गये तो वामन भगवान ने राजा बलि के मस्तक पर पैर रखकर तीसरे पग की धरती मापी. इस प्रकार वामन भगवान ने देवताओं को उनका राज्य वापस दिलाया और राजा बलि को सुतल लोक का राज्य दिया.

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Wednesday, May 4, 2016

3.
कच्छ्प(कछुआ) अवतार 
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

भाई होते हुये भी देवताओं और दानवों मे प्रायः आपस में युध्द होते रहते थे. कभी देवता दानवों को हराकर उनका राज्य, शक्ति, आदि छीन लेते थे और कभी दानव देवताओं को हराकर उनका राज्य, आदि छीनकर उन्हें श्रीहीन कर देते थे. एक बार सब देवताओं ने मिलकर नारायण भगवान से प्रार्थना की कि, “हे प्रभु! कोई ऐसा उपाय बताइये कि हम कभी भी दानवों से पराजित न हों. हम, हमारा राज्य अमर हो जाये.” तब नारायण भगवान ने कहा कि तुम दानवों के साथ मिल समुद्र-मंथन करो. उसमें से जो अमृत निकलेगा उसे पीकर तुम अमर हो जाओगे. तब देवताओं ने दानवों से मित्रवत् बात करते हुये समुद्र-मंथन के लिये राजी किया और मंदराचल पर्वत को मथानी बनाने के लिये क्षीरसागर में रखा किंतु अपने वजन के कारण मंदराचल पर्वत सागर में डूबने लगा. तब नारायण भगवान ने कच्छप का रूप रखा और मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर स्थित किया. जब तक समुद्र-मंथन हुआ मंदराचल पर्वत कच्छप भगवान की पीठ पर स्थित रहा. समुद्र-मंथन के बाद वह समुद्र में डूब गया. समुद्र-मंथन से चौदह रत्नों के साथ जब अमृत निकला तो छल से मोहिनी रूप रखकर नारायण भगवान ने अमृत देवताओं को पिला दिया.


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2. नृसिंह अवतार
डॉ0 मंजूश्री गर्ग


हिरण्याक्ष के वध से उसका भाई हिरण्यकश्यप और माता दिति बहुत दुःखी हुईं. तब हिरण्यकश्यप ने माँ को सांत्वना दी और नारायण को हराने के लिये असीम शक्ति प्राप्त करने की कामना ले, मंदराचल पर्वत पर जा ब्रह्मा की आराधना की. कठोर तप करते हुये सौ वर्ष बीत गये , तब ब्रह्मा जी ने उसे दर्शन दिये और वर माँगने को कहा. तब हिरण्यकश्यप ने वर माँगा कि, “हे ब्रह्मा जी! मुझे ऐसी शक्ति दो कि तीनों लोको में कोई भी मुझे न मार सके. न मनुष्य न पशु, ना दिन को मरूँ ना रात को, ना अस्त्र से ना शस्त्र से मरूँ अर्थात तीनों लोक मेरे आधीन हों.” वर सुनकर ब्रह्मा जी बड़े असमंजस में पड़ गये, फिर मन में सोचा कि यदि इसे वर नहीं देता तो यह और तपस्या करेगा अर्थात वर देना ही सही है, नारायण ही इस समस्या का कुछ हल निकालेंगे. ब्रह्मा जी हिरण्यकश्यप को मन चाहा वर दे, ब्रह्मलोक को चले गये.
ब्रह्मा जी से असीम शक्ति प्राप्त कर हिरण्यकश्यप ने देवता, मनुष्य सबको जीतकर अपने आधीन कर लिया  और तीनों लोको में अपने ही नाम का जप करवाने लगा. कोई भी उसके डर से नारायण का नाम नहीं लेता था. किंतु हिरण्यकश्यप के ही घर उसका पुत्र प्रहलाद हरिभक्त पैदा हुआ, जो दिन-रात नारायण के ही नाम का जप करता था. इसीलिये हिरण्यकश्यप ने अपने बेटे को मारने के अनेक प्रयत्न किये. कभी पहाड़ों से नीचे फेंका, कभी आग में जलाकर मारने की कोशिश की; श्री नारायण ने हर समय, हर जगह अपने प्रिय भक्त  प्रहलाद की रक्षा की और उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ. तब स्वयं हिरण्यकश्यप तलवार ले प्रहलाद को मारने के लिये उठा, वो समय शाम का था. तभी खंभे में से नृसिंह भगवान प्रकट हुये और उन्होंने अपने तेज नाखुनों से हिरण्यकश्यप का वध कर दिया. इस तरह आधा मनुष्य, आधा सिंह का रूप रख, शाम के समय बिना अस्त्र-शस्त्र से हिरण्यकश्यप का वध कर नृसिंह भगवान ने ब्रह्मा जी के वर का मान भी रख दिया और आतंकी दैत्य हिरण्यकश्यप का वध भी कर दिया. तब सभी देवताओं ने नृसिंह भगवान की स्तुति की और प्रहलाद उनके चरणों में गिर गया, जिसे उन्होंने प्रेमवश अपनी गोद में बैठा लिया.
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Monday, May 2, 2016

भगवान बिष्णु
दस अवतारों की कथा
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
1.
वाराह अवतार
ब्रह्मा जी ने नारायण की आज्ञानुसार सृष्टि की रचना की, मानव जीवन के लिये पृथ्वी की उत्पत्ति की, जिस पर विभिन्न वनस्पति, पर्वत, नदी, वन, विभिन्न जीव-जंतुओं का विस्तार किया; दिति के पुत्र व हिरण्यकश्यप के भाई हिरण्याक्ष पृथ्वी को उठाकर पाताल लोक ले गया. पृथ्वी के बिना सारी सृष्टि आधार हीन हो गयी. इससे ब्रह्मा जी बहुत दुःखी हुये और उन्होंने बिष्णु भगवान की आराधना की. कहा कि, “हे प्रभु! मैंने आपकी आज्ञानुसार सृष्टि की रचना की, संसार को बसाने के लिये पृथ्वीका निर्माण किया, किंतु हिरण्याक्ष दैत्य पृथ्वीको उठाकर पाताल लोक ले गया है. बिना पृथ्वी संसार कैसे बसेगा.
बिष्णु भगवान ने ब्रहमा जी की आर्त वाणी सुनकर तुरंत ही वाराह(शूकर) का रूप धारण किया  और पाताल लोक जाकर अपने दो दातों पर पृथ्वी को उठा लिया. जब हिरण्याक्ष ने यह दृश्य देखा तो अपनी गदा से पृथ्वी लिये हुये वाराह भगवान पर प्रहार किया; किंतु वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष के प्रहार को बीच में ही रोक दिया और अपनी गदा के तेज प्रहार से हिरण्याक्ष का वध कर, पृथ्वी को पाताल लोक से बाहर ला अपनी कुछ शक्ति के साथ जल पर स्थापित कर दिया. पृथ्वी को जल पर स्थापित देखकर ब्रह्मा जी सहित सभी देवता अत्यंत प्रसन्न हुये और सबने वाराह भगवान की स्तुति करते हुये पुष्प वर्षा की.