Tuesday, August 30, 2016

हाइकु

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

हौंसलों से ही
छूते हम आकाश
परों से नहीं ।

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Friday, August 26, 2016

बनेंगे, मिटेंगे, नये साँचे में ढ़लेंगे।
मिट्टी के पुतले, कब तक जियेंगे ।।

                      डॉ0 मंजूश्री गर्ग
कागजी फूल से, बनाबटी रिश्ते ।
खुशबू नहीं जिनमें, केवल नकली रंग।।

                            डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Tuesday, August 23, 2016

चाहे-अनचाहे मोड़ों ने दिया, जीवन को नया रूप,
जैसे सादा-सपाट कागज, कोई बन गया हो नाव।

                         डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Wednesday, August 17, 2016

रक्षा-बन्धन की शुभकामनायें

बरसों बाद
मिले भाई-बहिन
राखी पर्व  पे ।

रेशमी धागे
बँधे हैं सारी उम्र
स्नेह बन्धन ।

                     डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Sunday, August 14, 2016

भारत माँ

(डॉ0 मंजूश्री गर्ग)

सिर पे ताज हिमालय
चंदा-सूरज बिंदिया.
पहने परिधान हरितिमा के
गहने सारी नदियाँ.
पैरौं में पैजनियाँ बनी
सागर की उजली लहरें.
ऐसा अनुपम रुप है
मेरी भारत माँ का.
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हाइकु

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

कुंठित मन
बंजर धरा-सम
खिले ना फूल।

धूप धुली सी
बरसात के बाद
फैली आँगन।

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Saturday, August 13, 2016

बहने दो स्नेह की सहज, सरस, मधुर धारा,
सिंचित हो जिससे, महके जीवन-बगिया।

               डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Wednesday, August 10, 2016

भक्त ध्रुव



डॉ0 मंजूश्री गर्ग

भक्त ध्रुव राजा उत्तानपाद के पुत्र थे और राजा स्वायम्भुव मनु के पौत्र थे. राजा उत्तानपाद के दो रानियाँ थी. बड़ी रानी का नाम सुनीति था जो ध्रुव की माँ थी, छोटी रानी का नाम सुरूचि था जिसके पुत्र का नाम उत्तम था. राजा सुरूचि को अधिक प्यार करते थे, इसी कारण उसके पुत्र उत्तम को भी ध्रुव से अधिक प्यार करते थे.

एक दिन राज सिंहासन पर बैठकर राजा उत्तानपाद अपने पुत्र उत्तम को गोद में बैठाकर प्यार कर रहे थे, तभी पाँच बर्षीय ध्रुव भी वहाँ आया और उसके मन में भी पिता की गोद में बैठने की इच्छा हुई, किन्तु राजा ने रानी सुरूचि के डर से ध्रुव को गोद में नहीं लिया. उस समय सुरूचि ने ध्रुव को सुनाते हुये कहा, हे! ध्रुव तूने पूर्वजन्म में हरि भगवान की तपस्या व स्मरण नहीं किया, इसी से तू अभागा पैदा हुआ. यदि तू पूर्वजन्म में तपस्या करता तो मेरे गर्भ से उत्पन्न होता और तब तू राजा की गोद में बैठने का भी अधिकारी होता. ध्रुव वहाँ से रूदन करता हुआ अपनी माँ सुनीति के पास चला गया. सुनीति ने ध्रुव को रोता हुआ देखकर अपनी गोद में ले लिया, कारण जानने पर वो भी बहुत दुखी हुई.

सुनीति ने ध्रुव से कहा, कुमाता(सुरूचि) सही कहती हैं, श्री नारायण की तपस्या करने से ही मनुष्य की सब अभिलाषायें पूर्ण हो सकती हैं, अतः तुझे उन्हीं की शरण में जाना चाहिये. माता की बात सुनकर ध्रुव घर से बाहर निकल श्री नारायण
की तपस्या के लिये वन की ओर चला गया. वह अपने मन में सोचता जा रहा था कि मैं अज्ञानी बालक श्री नारायण को किस प्रकार प्राप्त कर सकूँगा. तभी मार्ग में ध्रुव को नारद जी मिले जो उसकी परीक्षा लेने के लिये ही आये थे कि ध्रुव अपने प्रण पर अटल हैं या नहीं. नारद जी ने ध्रुव को घर वापस जाने के लिये काफी समझाया लेकिन ध्रुव को अपने प्रण पर अटल देखकर नारद जी ने ध्रुव को श्री नारायण के दर्शन प्राप्त करने का उपाय बताया और कहा- मथुरापुरी जाकर, वहाँ उत्तर दिशा की ओर मुख करके श्री नारायण जी के स्वरूप – उनका स्याम रंग है, कमल के समान नेत्र हैं, सिर पर रत्न जड़ित मुकुट एवं कानों में मकराकृत कुंडल धारण किये हुये हैं, मुख चन्द्रमा के समान है, बैजंती माला एवं कौस्तुभ मणि गले में है और मंद-मंद मुस्कान है- का ध्यान करते हुये द्वादशाक्षर मंत्र(ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करना. श्री नारायण भगवान अवश्य प्रसन्न होंगे और तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी. ध्रुव ने देवर्षि नारद जी को प्रणाम किया और मथुरापुरी को चल दिया.

ध्रुव के घर त्यागने के बाद राजा उत्तानपाद और सुनीति दोनों ही घर पर बहुत दुखी हुये, सोच रहे थे अबोध बालक न जाने कहाँ भटक रहा होगा. तभी नारद जी ने आकर उन्हें समझाया कि ध्रुव अपने प्रण पर अटल है. मैंने उसे घर जाने के लिये बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं माना, उसके मन में नारायण जी से मिलने की सच्ची प्रीति है. उसका अटल प्रण देखकर ही मैंने उसे नारायण जी की सहज प्राप्ति का मार्ग बताया है, मैं अभी वहीं से आ रहा हूँ. तुम चिन्ता मत करो. ध्रुवको ऐसा अटल पद प्राप्त होगा, जैसा तुम्हारे वंश में आज तक किसी को नहीं मिला.

उधर ध्रुव ने भी मथुरापुरी पहुँचकर कुश-आसन बिछाकर उत्तर की ओर मुँह करके, नारायण जी के चतुर्मुखी स्वरूप का ध्यान करते हुये, द्वादश अक्षर मंत्र(ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करना प्रारम्भ कर दिया. धीरे-धीरे ध्रुव श्री नारायण जी के ध्यान में इतना लीन हो गया कि उसने अन्न-जल का भी त्याग कर दिया. छठे महीने ध्रुव ने अपना मुँह बंद करके श्वाँस लेना भी छोड़ दिया और उसका समस्त अन्तःकरण श्री नारायण जी के स्वरूप से द्रवीभूत हो गया. तब श्री नारायण जी ने अपने चतुर्मुखी स्वरूप में ध्रुव को दर्शन दिये, दर्शन पाकर ध्रुव अति प्रसन्न हुआ. नारायण जी ने ध्रुव से वरदान माँगने को कहा तो ध्रुव ने कहा, हे भगवन्! जब मुझे आपके चरणों के दर्शन प्राप्त हो गये, फिर माँगने के लिये और क्या शेष है मैं तो आपके चरणों की भक्ति चाहता हूँ. भक्त ध्रुव से भगवान अति प्रसन्न हुये और कहा, अभी तुम घर जाओ, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी राह देख रहे हैं. राजगद्दी तुम्हें ही मिलेगी, तुम 36,000 वर्ष तक राज्य करोगे और मरने पर हम तुझे रहने के लिये ब्रह्म-लोक से भी ऊँचे ध्रुव-लोक में स्थान देंगे. देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्प वर्षा की. उसी समय नारद जी ने राजा उत्तानपाद को आज्ञा दी कि तुम्हारा पुत्र प्रभु दर्शन कर घर आ रहा है, उसे आदर पूर्वक घर ले आओ. नारद जी के वचन सुनकर राजा उत्तानपाद बहुत प्रसन्न हुये और उसे सहर्ष महल में ले आये. कुछ समय बीत जाने पर ध्रुव के युवा होने पर राजा उत्तानपाद ध्रुव को राजसिंहासन पर बैठाकर स्वयं तपस्या करने वन को चले गये.

राजसिंहासन पर आसीन होने के उपरान्त ध्रुव ने ऐसा नीतिपूर्वक राज्य किया कि संपूर्ण प्रजा प्रसन्न हो गयी. राज्य में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे. कोई आदमी दुखी या दरिद्र न था. ध्रुव ने अपने भाई उत्तम को भी राज्य-अधिकार सौंप रखे थे, जिन्हें वह ध्रुव की आज्ञा से प्रसन्नता पूर्वक करता था. अपने पुत्र उत्कल के युवा होने पर ध्रुवजी ने राजसिंहासन उत्कल को सौंप दिया और स्वयं अपनी रानी सहित बद्रीनारायण में पहुँचकर श्रीनारायण का तप और स्मरण करने लगे.

ध्रुव जी के शरीर त्यागने पर स्वर्ग से सुन्दर विमान आया और पार्षदों ने उन्हें ध्रुवलोक चलने को कहा. तब ध्रुव ने कहा, मेरी छोटी माता सुरूचि गुरू के समान है, जिनकी प्रेरणा से ही मैं इस पद को प्राप्त कर सका हूँ. अतः मैं उनको भी ध्रुवलोक ले जाना चाहता हूँ. तब पार्षद बोले, हे ध्रुव जी! प्रभु ने हमें आपकी दोनों माताओं सहित ही आपको ले आने की आज्ञा दी है, वे आपसे पहले ही  ध्रुवलोक पहुँच जायेंगी. यह सुनकर ध्रुव बहुत हर्षित हुये और पत्नी सहित विमान में बैठकर ध्रुवलोक को चले गये. देवताओं ने उनपर फूल बरसाये.

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Tuesday, August 2, 2016

गंगा अवतरण की कथा
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

राजा हरिश्चन्द्र के वंश में ही राजा सगर हुये जिन्होंने धर्मपूर्वक राज्य करते हुये, अन्य राजाओं को जीतकर अपना राज्य बहुत बढ़ा लिया। उसके साठ हजार एक पुत्र थे। कुछ समय पश्चात् राजा सगर ने सौ अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। निन्यानवें यज्ञ तो भली-भाँति सम्पूर्ण हो गये परन्तु जब सौवाँ यज्ञ आरम्भ करके श्याम-कर्ण घोड़ा छोड़ा और अपने साठ हजार पुत्रों को उसकी रक्षा के लिये साथ किया, तब इन्द्र ने अपने इन्द्रासन चले जाने के भय से छल द्वारा घोड़े को पकड़कर कपिलमुनि के आश्रम में बाँध दिया और स्वयं इन्द्रलोक चले गये। जब राजकुमारों को अपना घोड़ा कहीं दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने सारा वृतान्त राजा सगर को सुनाकर आज्ञा माँगी कि यदि आप आज्ञा दें तो हम पृथ्वी को खोदकर घोड़ा ढ़ूँढ़ निकालें। राजा सगर ने आज्ञा दे दी, तब सगर पुत्रों ने पृथ्वी को इस प्रकार खोदा कि भरत-खण्ड में सात छोटे-छोटे समुद्र बन गये। जब वे घोड़े को ढ़ूँढ़ते हुये कपिलमुनि के आश्रम में पहुँचे, तो देखा कि कपिलमुनि आँख बंद करके तपस्या कर रहे हैं और घोड़ा उनके पीछे बँधा है। राजकुमारों की आवाज सुनकर कपिलमुनि की समाधि भंग हो गयी और मुनि ने राजकुमारों की ओर देखा, तो वे सब साठ हजार सगर पुत्र उसी जगह जलकर भस्म हो गये।
जब राजा सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों का कोई समाचार नहीं मिला तो राजा ने अपने पौत्र अंशुमान को अपने चाचाओं और घोड़े का पता लगाने के लिये भेजा। अंशुमान उन्हें ढ़ूँढ़ता हुआ कपिलमुनि के आश्रम पहुँचा, वहाँ उसने मुनि को प्रणाम कर उनकी बहुत भाँति से स्तुति की। तब कपिलमुनि प्रसन्न होकर अंशुमान से बोले- हे सगर पौत्र! तू अपना घोड़ा ले जा, लेकिन तेरे समस्त चाचा मेरी क्रोधाग्नि द्वारा भस्म हो चुके हैं। इसलिये जब गंगाजी पृथ्वी पर आवेंगी, तभी उनका उद्धार हो सकेगा।यह सुनकर अंशुमान कपिलमुनि को दण्डवत कर, श्याम कर्ण घोड़े को ले, पितामह राजा सगर के पास आये और सारा वृतान्त सुनाया। पहले तो राजा सगर को बहुत दुःख हुआ, फिर ईश्वर-इच्छा जानकर धैर्य धारण किया, सौंवा यज्ञ सम्पूर्ण कर राज्य अंशुमान को सौंप स्वयं वन को चले गये।
कुछ समय तक राज्य करने के बाद राजा अंशुमान ने राज्य अपने पुत्र दिलीप को सौंप दिया और स्वयं वन में जाकर अपने चाचाओं के उद्धार के हेतु पृथ्वी पर श्रीगंगाजी को अवतरण करने के लिये श्रीहरिजी का तप करने लगे, वहीं राजा अंशुमान को मुक्ति प्राप्त हो गयी। तत्पश्चात् राजा दिलीप ने भी गंगा जी को पृथ्वी पर लाने के हेतु तप करके अपना शरीर त्याग दिया, लेकिन गंगा जी तब भी पृथ्वी पर नहीं आयीं। राजा दिलीप के स्वर्गवास के समय उनके पुत्र भगीरथ बाल्यावस्था में ही थे। मित्रों के साथ खेलते हुये भगीरथ ने यह वृतान्त सुना कि अनके पिता और पितामह ने गंगा जी को पृथ्वी पर लाने के लिये तप करते हुये अपना शरीर त्याग दिया है, तब उन्होंने प्रण किया कि जब तक मैं गंगाजी को पृथ्वी पर लाने में सफल नहीं हो जाऊंगा राज सिंहासन पर आरूढ़ नहीं होऊँगा। यह निश्चय कर तप करने के लिये वन में चले गये।
भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा जी ने उन्हें दर्शन देते हुये कहा- हे पुत्र! तेरी क्या इच्छा है.” भगीरथ ने उनकी दण्डवत परिक्रमा करके उत्तर दिया- हे माता! कपिलदेव की क्रोधाग्नि द्वारा मेरे साठ हजार पितामह जलकर भस्म हो गये हैं, इसलिये मेरी यह इच्छा है कि आप पृथ्वी पर पधार कर उनकी भस्म को अपने साथ बहाकर ले जायें, तो उन सबका उद्धार हो जाये। यह सुनकर गंगा जी बोलीं- 
हे भगीरथ! मुझे पृथ्वी पर आना स्वीकार है, परन्तु मेरे आकाश से गिरने के वेग को न सह सकने के कारण पृथ्वी रसातल को चली जायेगी। इसलिये तुम किसी ऐसे शक्तिशाली देवता की आराधना करो, जो मेरे वेग को सह सके। तब भगीरथ ने महादेव जी को प्रसन्न करने के लिये तप किया। जब शंकर जी ने प्रसन्न होकर भगीरथ को दर्शन दिये, तो भगीरथ ने उनसे प्रार्थना की कि- हे कैलाश पति! आप कृपा कर गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण कीजिए जिससे मेरे पूर्वजों का उद्धार हो जाये। तब शंकर जी ने भगीरथ से कहा- हे भगीरथ! मुझे तुम्हारी बात स्वीकार है। जब गंगा जी पृथ्वी पर आने लगीं तब शंकर जी ने उस जल को अपनी जटाओं में ही समा लिया। तत्पश्चात् भगीरथ ने शंकर जी से पुनः विनती की, तब शंकर जी ने भगीरथ को एक रथ देते हुये कहा- हे भगीरथ! तू इस रथ पर सवार होकर आगे-आगे चल, तब गंगा जी तेरे पीछे-पीछे चलेंगी। यह कहकर शंकर जी ने अपने सिर की जटाओं में से जल की एक छोटी धारा पृथ्वी पर गिरा दी। तब भगीरथ शंकर जी के दिये हुये रथ पर बैठकर वहाँ चल दिये जहाँ उसके पूर्वजों की भस्म पड़ी हुई थी। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा जी ने उसके साठ हजार पूर्वजों का उद्धार कर दिया और गंगा जी सागर में मिल गयीं। कपिलमुनि का आश्रम गंगा सागर महातीर्थ का पुण्य स्थल बन गया, जहाँ प्रतिवर्ष मकर संक्राति के दिन महापर्व का आयोजन होता है।
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