Saturday, September 30, 2017

विजय पर्व दशहरा की हार्दिक शुभकामनायें





स्वर्ण जड़ित लंका बसी, रावण का था मान।
पवन पुत्र ने फूँक दी, जला दिया अभिमान।।1।।

रावण का पुतला जला, विजयी दशमी का पर्व।
परम सत्य विजयी हुआ, हुआ राम पर गर्व।।2।।

राम नाम की नाव में, होगा बेड़ा पार।
खो जाओ प्रभु ध्यान में, यह जीवन का सार।।3।।

राम ह्रदय ने जान ली, वानर दल की भक्ति।
मातृ सिया की खोज में, सभी लगा दी शक्ति।।4।।

विजयी हो के राम ने, किया दशानन अंत।
देने को आशीष थे, संग में सारे संत।।5।।

मने सदा सद्भाव से, मन भावन त्यौहार।
पूज राम को फिर करो, उनकी जय जयकार।।6।।

मिटे पाप संताप अब, आया पावन पर्व।
रावण वध से मिट गया, उसका सारा गर्व।।7।।


                                                                     डॉ0 सरस्वती माथुर














Friday, September 29, 2017



हिन्दी कहानी का विकास

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

हिन्दी की आधुनिक कहानी का विकास बीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुआ. किशोरीलाल गोस्वामी की इन्दुमती(1900 ई0) को कुछ विद्वान हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं. इस विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है. कुछ विद्वान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ग्यारह वर्ष का समय(1903 ई0), कुछ विद्वान बंग महिला की दुलाईवाली(1907 ई0) को हिन्दी की प्रथम कहानी मानते हैं. हिन्दी की प्रथम कहानी सम्बन्धी विद्वानों में व्यापक मतभेद होते हुये भी इस बात से सभी सहमत हैं कि हिन्दी कहानी का विकास बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शुरू हुआ, जबकि पश्चिम के कहानीकार एडगर एलन पो(1809 ई0-1849 ई0), ओ-हेनरी(1862 ई0-1910 ई0),गाइद मोपांसा(1850 ई0-1893 ई0), एल्टन पाब्लोविच चैखव(1860 ई0-1904 ई0), आदि कहानी विधा को उत्कृष्टता की ऊँचाई तक पहुँचा चुके थे.

हिन्दी में कहानी विधा का विकास बहुत तीव्र गति से हुआ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद्र, आदि कहानीकारों ने कहानी विधा को प्रौढ़ता प्रदान की. प्रेमचंद्र की कहानियाँ यथार्थ की भूमि पर रचित होने पर भी आदर्शोन्मुख थीं. गुलेरीजी की उसने कहा था कहानी प्लेटोनिक लव की बहु प्रसिद्ध कहानी है. प्रेमचंद्रोत्तर काल में जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी ने मानव मन की सूक्ष्म भावनाओं को कहानियों में अभिव्यक्त किया. यशपाल, रांगेय राघव, भैरव प्रसाद गुप्त, अमृतलाल नागर, अश्क, आदि कहानीकारों ने मार्क्सवाद से प्रभावित होकर सामाजिक समस्याओं को कहानियों में अभिव्यक्त किया. एक ही समय में दो धाराओं का उदय हिन्दी कहानी के आन्दोलनों का सूत्रपात कहा जा सकता है. यद्यपि स्वातन्त्रोत्तर काल के हिन्दी कहानी आन्दोलनों के समान इन कहानियों के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती.
सन् 1950 ई0 से हिन्दी कहानी विधा में एक स्पष्ट आन्दोलनात्मक स्वर सुनाई पड़ा. कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, मन्नू भन्डारी, अमरकान्त, निर्मल वर्मा, आदि कहानीकारों व डॉ0 नामवर सिंह, डॉ0 परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ0 बच्चन सिंह, डॉ0 इन्द्रनाथ मदान, आदि समीक्षकों ने इसे नयी कहानी नाम दिया. परवर्ती  काल में अ कहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समानांतर कहानी, सक्रिय कहानी, जनवादी कहानी, आदि आंदोलनों ने जन्म लिया. इन आन्दोलनों के कारण कहानी और कहानीकारों को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जाने लगा. प्रत्येक आंदोलन के अलग-अलग शास्त्र प्रस्तुत किये गये.

स्वातन्त्रोत्तर काल में कुछ नये कहानीकारों ने कहानियाँ लिखनी प्रारम्भ कीं, जिनका कथ्य और शिल्प दोनों ही पूर्ववर्ती लेखकों से भिन्न थे. सन् 1954 ई0 में कहानी पत्रिका का प्रकाशन हुआ, जिसने नयी कहानी को परिभाषित किया और कहानी के विकास में महत्तवपूर्ण योगदान दिया. शिवप्रसाद सिंह की दादी माँ को सबसे पहली नयी कहानी माना जाता है, जो प्रतीक नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई. इस समय की अन्य चर्चित कहानियाँ हैं- शिवप्रसाद सिंह की आर-पार की माला, मार्केण्य की गुलरा के बाबा तथा पानफूल. नयी कहानी अपने परिवेश के प्रति प्रतिबद्ध व अनुभूति से ओत-प्रोत थी. नयी कहानी का रचनाकार अपने यथार्थ का भोक्ता था, कोई आदर्शवक्ता या उपदेशक नहीं. नयी कहानी में पति-पत्नी, माँ-बेटे, आदि सामाजिक संबंधों में आये बदलाव का चित्रण बहुत व्यापक स्तर पर हुआ है और सामाजिक विसंगतियों को अभिव्यक्त किया गया है. 1950 के आस-पास कहानी में जो जड़ता आ गयी थी, जो ठहराव आ गया था, नयी कहानी ने उसे दूर करने में वास्तव में सफलता प्राप्त की. वह अधिकाधिक सहज हो गयी.

सन् 1960 ई0 में हिन्दी कहानी के क्षितिज पर एक और आंदोलन ने जन्म लिया, जो अकहानी के नाम से विख्यात हुआ, इसे साठोत्तरी कहानी और समकालीन कहानी नामों से भी पुकारा गया. अकहानी कहानी की पारंपरिक अवधारणाओं से भिन्न असम्बद्ध कहानी है. अकहानी कहानी में कथा या घटना को अस्वीकार कर संत्रास, आत्मपीड़न, ऊब, अकेलापन, अजनबीपन और विसंगति, आदि मानसिक उद्वेगों की अभिव्यक्ति हुई है. दूधनाथ सिंह की रक्तपात, सुखांत, ज्ञानरंजन की पिता, रमेशबक्षी की पिता-दर-पिता, गंगाप्रसाद विमल की शीर्षक हीन, रवीन्द्र कालिया की एक डरी हुई औरत, आदि इस समय की चर्चित कहानियाँ हैं. अकहानी आंदोलन दो उद्देश्यों को लेकर चला, कथाहीनता और मूल्यहीनता और उसे इसमें सफलता भी मिली. धीरे-धीरे नयी कहानी रूढ़ होने की स्थिति में आ गयी और उसमें खास किस्म की मैनेरिज्म(ओढ़ी हुई पद्धति) पैदा हो गयी थी. नयी कहानी की रूढ़ि और मैनेरिज्म को तोड़ने के लिये जो आंदोलन उभरे, उनमें सचेतन कहानी एक महत्वपूर्ण आंदोलन है. उसका प्रारंभ नवंबर 1964 में प्रकाशित आधार(सं0 डॉ0 महीप सिंह) के सचेतन कहानी विशेषांक से माना जाता है. सचेतन कहानीकारों ने मनुष्य को सर्वांग और संपूर्ण रूप में देखना चाहा, उसके अचेतन और अवचेतन अस्तित्व से लेकर उसके सचेतन रूप तक. सचेतन कहानी व्यक्ति को संघर्षों से पलायनवादी न बनाकर जागरूक व सक्रिय बनाती है. सचेतन कहानी का आंदोलन एक वैचारिक आंदोलन है और शिल्पगत प्रयोग. धुँधले कोहरे(महीप सिंह), बर्फ(सुरेन्द्र अरोड़ा),बीस सुबहों के बाद(मनहर चौहान), लौ पर रखी हुई हथेली(रामकुमार भ्रमर), और भी कुछ(महीप सिंह), आदि इस समय की प्रमुख कहानियाँ हैं. सचेतन कहानी ने ही पहली बार रूपवाद, व्यक्तिवाद, मृत्युवाद, अनास्थावाद, अस्पष्ट रहस्यवाद, तथा नियतिवाद के विरूद्ध मोर्चा लिया और हिन्दी कहानी को इन भँवरों से दूर रहने का संकेत दिया.

नयी कहानियाँ मासिक पत्रिका का स्वामित्व 1968 में अमृतराय के पास आने पर अमृतराय ने अपना नाम करने के लिये सहज कहानी आंदोलन का सूत्रपात किया, जिसमें कुछ भी नया नहीं था. अमृतराय सहज कहानी को परिभाषित करते हुये कहते हैं, सहज वह जिसमें आडंबर नहीं है, बनावट नहीं है, ओढ़ी हुई पद्धति(मैनरिज्म) या मुद्राकोष नहीं है, आइने के सामने खड़े होकर आत्मरति के भाव से अपने अंग-प्रत्यंग को अलग-अलग कोणों से निहारते रहने का प्रबल मोह नहीं है. सहज कहानी का आंदोलन अमृतराय और उनकी पत्रिका तक ही सीमित रहा. पत्रिका के प्रकाशन के बंद होने के साथ ही यह आंदोलन भी समाप्त हो गया.

सन् 1972 ई0 में कहानीकार कमलेश्वर ने सारिका पत्रिका के अपने संपादकीय मेरा पन्ना में एक नये कहानी आंदोलन का सूत्रपात किया, जिसका नाम उन्होंने समांतर कहानी दिया. साथ ही सारिका पत्रिका के धारावाहिक रूप में समांतर कहानी पर तीन विशेषांक निकाले. भीष्म साहनी, शैलेश मटियानी, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, इस आंदोलन के प्रमुख कहानीकार हैं. इस समय की कहानियों में आम आदमी के जीवन के समांतर सार्थक अनुभूतियों को अभिव्यक्ति मिली. तीसरी आँख(कामतानाथ), गौरव(से0 रा0 यात्री), निर्वासित(सूर्यबाला), दुश्मन(दिनेश पालीवाल), शहादतनामा(जितेन्द्र भाटिया), आदि इस समय की प्रमुख कहानियाँ हैं. समांतर कहानी ने व्यक्ति की असहायता, नैतिक संकट, मूल्यहीनता तथा विघटन को समग्र सामाजिक तंत्र के परिप्रेक्ष्य में देखा. समांतर कहानी आंदोलन कमलेश्वर ने खुद को केंद्र में रखकर शुरू किया था और स्वंय को प्रेमचंद्र के पश्चात् सबसे बड़ा कहानीकार सिद्ध करने की कोशिश की. किंतु व्यक्ति केंद्रित कोई भी आंदोलन दीर्घजीवी नहीं होता, यही समांतर कहानी आंदोलन का भी हुआ. अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में जनवादी कहानी आंदोलन ने जन्म लिया. सन् 1977 ई0 में दिल्ली विश्व विद्यालय में जनवादी विचार मंच की स्थापना हुई. और सन्1982 ई0 में जनवादी लेखक संघ की स्थापना हुई. कलम(कलकत्ता), कथन(दिल्ली), उत्तरार्ध(मथुरा) जैसी पत्रिकाओं में जनवादी कहानी पर व्यापक रूप से चर्चा की गयी. जनवादी कहानी अपनी मूल प्रकृति में सामान्य जन की पक्षधर है, जिसकी शुरूआत हमें प्रेमचन्द्र की कहानियों में देखने को मिलती है और कुछ न कुछ झलक उपर्युक्त वर्णित विभिन्न आंदोलनों में भी झलकती है. किंतु 
जनवादी कहानी को सबसे अधिक समृद्ध जनवादी कहानी आंदोलन के आधीन ही किया गया. आस्मां कैसे-कैसे(स्वयं प्रकाश), कल्पवृक्ष(रमेश उपाध्याय), लोग हाशिये पर(धीरेन्द्र अस्थाना), खून की लकीर(सुरेन्द्र मनन), आलू की आँख(राजेश जोशी), आदि कहानियों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं. जनवादी कहानी ने आम आदमी के संघर्ष को समांतर कहानी की भाँति कृत्रिमता से न गढ़कर सहज रूप से अभिव्यक्त किया. यद्यपि जनवादी कहानी आंदोलन ने हिन्दी कहानी की मुख्य धारा से जुड़कर एक ऐतिहासिक कार्य किया, किंतु अधिकांश लेखकों ने किसान जीवन की वास्तविकता को बिना जाने पहचाने, मजदूरों की समस्याओं को बिना नजदीक से महसूस किये कहानियां लिखी, जिसके कारण ये जनवादी कहानियां रपट मात्र बनकर रह गयीं.
सन् 1979 ई0 में राकेश वत्स ने मंच पत्रिका के माध्यम से सक्रिय कहानी आंदोलन के नाम से एक नया कहानी आंदोलन चलाया, उनके अनुसार कहानी में पात्रों का सक्रिय होना आवश्यक है. सक्रिय कहानी भी वर्तमान आर्थिक-सामाजिक शोषण के विरोध को अपनी कहानी की मूल संवेदना मानती है और इस दृष्टि से सक्रिय कहानी समानांतर कहानी और जनवादी कहानियों के निकट है. समानांतर कहानी की भाँति सक्रिय कहानी का फलक भी सीमित होने के कारण कहानी साहित्य में कोई व्यापक प्रभाव नहीं छोड़ पाया.

नयी कहानी आंदोलनों के साथ-साथ तथा उसके पश्चात् भी स्वातंत्र्योत्तर कहानी, आज की कहानी, समकालीन कहानी, साठोत्तरी कहानी, जनवादी कहानी, आदि  विभिन्न कहानी आंदोलनों ने हिन्दी  कहानी के विकास में महत्तवपूर्ण योगदान दिया है.
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Wednesday, September 27, 2017





आराधना माँ दुर्गा की

शारदीय नवरात्र
प्रकृति सुन्दरी
कर रही आराधना
माँ दुर्गा की।

नदी का निर्मल जल
अमृत तुल्य चाँदनी
कर रही अभिषेक
माँ दुर्गा का।

झर-झर झरते
फूल हारसिंगार के
सजा रहे भवन
माँ दुर्गा का।

नाना रंग गुड़हल,
गुलमेंहदी, गुलदाऊदी
कर रहे श्रृंगार
माँ दुर्गा का।

          डॉ0 मंजूश्री गर्ग



















Tuesday, September 26, 2017



पुरूरवा की कलम से




डॉ0 मंजूश्री गर्ग

देवलोक की परी हो तुम
जानता हूँ, इसी से
चाहकर भी कभी
पाने की कोशिश नहीं की।

मुस्कानों के फूल
खिलाता रहा
और गंध की स्याही में
डुबो-डुबो कर लिखता रहा।

भेजता रहा संदेशे
पवन के हाथ।
                         गंध तुम्हें पसन्द थी
                         आखिर तुम बेचैन हो गयीं
                         पाने को उसी गंध को।

                        प्यार मेरा सच्चा था
                        इसी से मजबूर हो गयीं
                         आने को भूलोक पर।

                       उर्वशी! सच कहूँ
                      तुम्हे पाकर
                      जीवन मेरा
                      सार्थक हुआ है
                       बरसों की तपस्या का फल
                        आज मुझे मिला है।

























Sunday, September 24, 2017


शंख
डॉ0 मंजूश्री गर्ग


शंख की उत्पत्ति देवासुरों द्वारा किये गये समुद्रमंथन के समय चौदह रत्नों में से एक रत्न के रूप में भी हुई. पांचजन्य नामक शंख समुद्मंथन के समय प्राप्त हुआ, जो अद्भुत स्वर, रूप व गुणों से सम्पन्न था. इसे भगवान विष्णु जी ने एक आयुध के रूप में स्वयं धारण किया. अधिकांश देवी-देवता शंख को आयुध के रूप में धारण करते हैं.

शंख समुद्र की घोंघा जाति का प्राणिज द्रव्य है. यह दो प्रकार का होता है-दक्षिणावर्ती और उत्तरावर्त्ती. दक्षिणावर्त्ती का मुँह दक्षिण की ओर खुला रहता है और यह बजाने के काम नहीं आता है. यह अशुभ माना जाता है, जिस घर में यह होता है वहाँ लक्ष्मी का निवास नहीं होता है. इसका प्रयोग अर्ध्य देने के लिये किया जाता है. उत्तरावर्त्ती शंख का मुँह उत्तर दिशा की ओर खुला रहता है. इसको बजाने के लिये छिद्र होते हैं. इसकी ध्वनि से रोग उत्पन्न करने वाले किटाणु मर जाते हैं या कमजोर पड़ जाते हैं. उत्तरावर्त्ती शंख घर में रखने से लक्ष्मी का निवास होता है.

अर्थववेद के अनुसार शंख ध्वनि व शंख जल के प्रभाव से बाधा, आदि अशान्तिकारक तत्वों का पलायन हो जाता है. प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीस चन्द्र वसु ने अपने यंत्रों के द्वारा यह खोज की थी कि एक बार शंख फूँकने पर उसकी ध्वनि जहाँ तक जाती है वहाँ तक अनेक बीमारियों के कीटाणुओं के दिल दहल जाते हैं और ध्वनि स्पंदन से वे मूर्छित हो जाते हैं. यदि निरन्तर प्रतिदिन यह क्रिया की जाये तो वहाँ का वायुमण्डल हमेशा के लिये ऐसे कीटाणुओं से मुक्त हो जाता है.
                









Saturday, September 23, 2017


निभाता है प्रीत......

प्रातः काल में भरता
पूरब की माँग
साँध्य समय
सजाता बिंदी
पश्चिम के माथ
निभाता है प्रीत
सूरज दोनों से ही।

         डॉ0 मंजूश्री गर्ग








Thursday, September 21, 2017


नवरात्री की हार्दिक शुभकामनायें

हाइकु

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

नव रात्रों में
नव रूपों में देवी
दर्शन देतीं.
1.

पहले दिन
शैलपुत्री रूप में
ध्यान करें.
2.

दूसरे दिन
ब्रह्मचारिणी रूप
देवी दर्शन.
3.

चंद्रघण्टा माँ
भयमुक्त करें
तीसरे दिन.
4.

माँ कुष्माण्डा
सूर्य सी तेजस्वी
रोग हरती. (चौथे दिन)
5.


पाँचवे दिन
स्कंदमाता रूप में
माँ सुख देती.
6.


कात्यायनी माँ
सिंह पे सवार हो
वर हैं देती. (छठे दिन)
7.

सातवें दिन
कालरात्रि रूप में
देवी दर्शन.
8.

आठवें दिन
महागौरी रूप में
माँ के दर्शन.
9.

सिद्धिदात्री माँ
नवें दिन आकर
आशीष देतीं.
10.


Wednesday, September 20, 2017


हिन्दी गजल में रसाभिव्यक्ति
डॉ0 मंजूश्री गर्ग

                          
हिन्दी गजल की मुख्य संवेदनायें सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों से जुड़ी हैं जो कि हास्य-व्यंग्य के रस में डुबोकर अभिव्यक्त की गयी हैं. इसके अतिरिक्त हिन्दी भाषी गजलकारों ने अपनी गजलों में श्रृंगार रस से परिपूर्ण गजलें भी कही हैं जो कि गजलों का पहले मुख्य विषय रहा था. हिन्दी गजलों में हमें सभी रसों की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है.

1.श्रृंगार रस-
श्रृंगार रस में प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के पारस्परिक प्रेम को अभिव्यक्त किया जाता है. इसके दो भेद हैं-संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार. हिन्दी गजलों में श्रृंगार रस के दोनों ही भेद देखने को मिलते हैं.

संयोग श्रृंगार-   जब प्रेमी प्रेमिका के बहुआयामी रूप का वर्णन करता है तो संयोग श्रृंगार रस की व्युत्पत्ति होती है-
नाजुके लब की नाजुकी जनाब क्या कहिए?
तुम्हारा चेहरा लग रहा गुलाब क्या कहिए?
                                 अनन्त सक्सैना 

ऐसे ही जब प्रेमी-प्रेमिका के बीच कुछ दूरी होती है और प्रेमी-प्रेमिका अपना प्रेम प्रेम भरी मुस्कुराहट के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं तो वहाँ अनूठा स्पर्श संयोग श्रृंगार रस झलकता है-
बैठकर मुस्का रही हो तुम
सच बहुत ही भा रही हो तुम।
बाँसुरी विस्मित समर्पित सी
गीत मेरा गा रही हो तुम।
एक अभिनव प्रेम का दर्शन
दृष्टि से समझा रही हो तुम।
                     डॉ0 रोहिताश्व अस्थाना

गजल की प्रस्तुत पंक्तियों में शायर ने संयोग के पलों में नायक के द्वारा नायिका से की गयी याचना को अभिव्यक्त किया है-

बात जो दिल ने कही है अब उसे तुम बोल दो
फूल से नाजुक लबों को अब जरा तुम खोल दो।
जिन्दगी अब तक हमारी रंग रहित है नीर सी
प्यार का रंग प्यार से इसमें सदा को घोल दो।
                                     नित्यानंद तुषार

वियोग श्रृंगार-   हिन्दी गजलों में गजलकारों ने वियोग के पलों में नायक-नायिका के मन में उठने वाले मनोभावों की भी सुन्दर अभिव्यक्ति की है. बरखा के दिनों में वियोगियों को एक-दूसरे की याद बहुत सताती है- 

बारिशें जब भी हुई हैं धूप के संग-संग यहाँ
तब तुम्हारी याद के परदे अचानक हिल गए।
                                  नित्यानंद तुषार

और यादों के साये में पत्रों के माध्यम से ही नायक-नायिका एक-दूसरे को अपने मन की बात बता सकते हैं. इसी का एक सुन्दर उदाहरण हमें प्रस्तुत शेअर में देखने को मिलता है-
सुर्ख होठों से लगाकर सिर्फ जिनको तुम पढ़ो
खत बहुत ऐसे तुम्हारी याद लिखवाने लगी।
                               नित्यानंद तुषार

विरह के क्षणों में अश्क भी शहद की बूँदों की तरह मधुर ही लगते हैं-

तेरी यादों में सुलगता रहा दिल चंदन सा
जब पिये अश्क लगा शहद की बूँदें पी हैं।
                             डॉ0 कुँअर बेचैन

विरह में नायक की जड़वत दशा को अभिव्यक्त करता हुआ प्रस्तुत शेअर-

गम के पत्थर में किसी बुत-सा छिपा बैठा हूँ मैं
अब तेरी मुस्कान की छैनी ही बाहर लायेगी।
                             डॉ0 कुँअर बेचैन

इस प्रकार गजल का एक-एक शेअर ही श्रृंगार रस की अनुभूति कराने में सक्षम है. 

2. हास्य रस-

हिन्दी गजल में शुद्ध हास्य रस की अभिव्यक्ति बहुत ही कम देखने को मिलती है जहाँ कहीं हास्य रस दिखाई देता है उसमें व्यंग्य का पुट अवश्य मिला होता है शायर ने उचित ही कहा है-
लीडरी अब बन गई है जोकरी हम क्या करें
अब सुनाकर हास्य रस की पोइट्री हम क्या करें।
                                     काका हाथरसी

समाज में फैली आर्थिक विसंगति की अभिव्यक्ति प्रस्तुत शेअर में शायर ने हास्य में व्यंग्य का पुट मिलाकर की है-

इनको न मिल सके हैं भरपेट गुड़-चने भी
उनको सता रही है बादाम की समस्या।
                                   हरिओम बेचैन

प्रस्तुत शेअर में शायर ने हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज में फैली दहेज-प्रथा की कुरीति पर करारा प्रहार किया है-

मौत दुल्हन की बुलाए से न आई होती
क्यों न ससुराल गई साथ में पीहर लेकर।
                                                  डॉ0 सारस्वत मोहन मनीषी
3.करूण रस-

गजल विधा में करूण रस की अभिव्यक्ति बहुत ही कम हूई है, हिन्दी गजलों में 
भी करूण रस की अभिव्यक्ति बहुत ही कम हुई है किन्तु जहाँ कहीं करूण रस की
अभिव्यक्ति हिन्दी गजल में दिखाई देती है वो बहुत ही भावप्रद है जैसा कि प्रस्तुत शेअर में-
हम द्वार पर खड़े थे पत्रों की प्रतीक्षा में
पर तार हाथ आया प्रिय प्रीति के निधन का।
                                डॉ0 कुँअर बेचैन

कहाँ तो प्रेमी प्रिय के पत्रों की प्रतीक्षा कर रहा हो, कहाँ इसी समय उसे प्रीति के निधन का समाचार मिले. इससे अधिक सघन दुःख और क्या होगा, ऐसा करूण रस काव्य में और कहाँ मिलेगा.

4. रौद्र रस-
रौद्र रस की अभिव्यक्ति गजल विधा की प्रकृति के अनुकूल नहीं है किन्तु हिन्दी गजलों मं अक्सर गजलकारों ने अपने आक्रोश को अभिव्यक्त किया है.
उदाहरण-
आज के माहौल का खूख्वार चेहरा देखकर
गठरियाँ खुलने लगीं खुद ही ठगों के बीच में।
                                  डॉ0 कुँअर बेचैन
रौद्र रस का पुट लिये एक और शेअर-
जुल्म अत्याचार शोषण हो न पाए अब कहीं
हो अगर ऐसा कहीं उससे सदा टकराइए।
                                नित्यानंद तुषार 

5. वीर रस-
हिन्दी गजलों में वीर रस से ओत-प्रोत गजलें भी देखने को मिलती हैं जो कि शान्त मन में भी ओज को उत्पन्न करने में सहायक हैं जैसा कि प्रस्तुत शेअर को पढ़कर अनुभव होता है-
शान्त मत बैठो कि हल्ला बोलने की है घड़ी
शब्द को इस वक्त शंख-ध्वनि बनाओ दोस्तों।
                                     शिव ओम अम्बर
वीर-रस में रची एक और हिन्दी गजल-
रख न अभी हथियार लड़ाई लम्बी है
रह चौकस, हुशियार लड़ाई लम्बी है।
निर्णय होना शेष, स्पष्ट हो न सकी
अभी जीत या हार लड़ाई लम्बी है।
अभी कवच मत खोल अभी ही दुश्मन का
हो सकता है वार लड़ाई लम्बी है।
अभी समर है शेष, न हो संघर्ष विरत
रख खुद को तैयार लड़ाई लम्बी है।
वृत्ति जुझारू बनी रहे इस कारण तू
युद्ध-युद्ध उच्चार लड़ाई लम्बी है।
अभी कहाँ विश्राम की उठ निज शस्त्रों की
और तेज कर धार लड़ाई लम्बी हैः
लड़ता है हौसला सिपाही का केवल
शस्त्र नहीं आधार लड़ाई लम्बी है।
योद्धा का संकल्प, शौर्य, उत्सर्ग, अभय
जीता है हर बार लड़ाई लम्बी है।
                         चन्द्रसेन विराट

6. भयानक रस-
गजल विधा सरस भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है इसमें भयानक रस की अभिव्यक्ति को कोई स्थान नहीं होता, किन्तु हिन्दी गजल में कुछ शेअर ऐसे अवश्य लिखे गये हैं जिन्हें पढ़कर भय उत्पन्न होता है. जैसे-

चक्रव्यूहों में फँसी है साँस ये
मौत कितनी क्रूर होती जा रही।
ये निराशायें मनीषी वज्र सी
आस चकनाचूर होती जा रही।
                                  डॉ0 सारस्वत मोहन मनीषी

7. वीभत्स रस-
भयानक रस की भाँति ही वीभत्स रस की अभिव्यक्ति गजल विधा के प्रतिकूल है, फिर भी हिन्दी गजल में वीभत्स रस की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है. हिन्दी भाषी गजलकारों ने कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो वीभत्स रस उत्पन्न करने में सहायक हैं. जैसे-
                                           वक्त करता रहा खून की उल्टियाँ
हम उठाते रहे मुल्क में हाशिया।
                   डॉ0 महेन्द्र कुमार अग्रवाल

जिनकी आँखों में घिनौनी भावना का चित्र था
हम प्रसूनों की तरह उस भीड़ में धँसते गये।
                                 डॉ0 अजय प्रसून

उपर्युक्त शेअरों में रेखांकित शब्द वीभत्स रस की व्युत्पत्ति में सहायक हैं.

8. शान्त रस-
गजल विधा में शान्त रस की अभिव्यक्ति गजल के प्रारम्भिक समय से होती आ रही है. प्राचीन समय में गजल के दो प्रमुख विषय थे इश्क मजाजी और इश्क हकीकी. इश्क हकीकी में कही गयी गजलें शान्त रस की ही अभिव्यक्ति करती हैं. हिन्दी गजलों में भी शान्त रस की अभिव्यक्ति की गयी है. जैसे-

याद जब उसकी मेरी आँखों में जल भर लायेगी
तब ही मेरी प्यास खुद मुझको मेरे घर लायेगी.
                                    डॉ0 कुँअर बेचैन

उपर्युक्त शेअर में शायर ने आत्मा और परमात्मा के मिलन के भाव को शान्त रस के माध्यम से अभिव्यक्त किया है. ऐसे ही शान्त रस के माध्यम से शायर ने जिन्दगी के अन्तिम क्षणों की अभिव्यक्ति की है-
  
राह में थककर जहाँ बैठी अगर यह जिन्दगी
मौत आई, बाँह थामी और उठाकर ले गयी.
                                    डॉ0 कुँअर बेचैन
9. अद्भुत रस-                                                 
हिन्दी गजलों में कहीं-कहीं गूढ़ भावाभिव्यक्ति के साथ-साथ अद्भुत रस की अनुभूति भी होती है. जैसे-
आँधियाँ आईं तो डाली से बिछुड़ जाना पड़ा
फूल था लेकिन मुझे पंछी-सा उड़ जाना पड़ा।
                                    डॉ0 कुँअर बेचैन

आँधियाँ आने पर तो डाली से टूटकर फूल धूल में गिर जाना चाहिये, लेकिन आश्चर्य है कि फूल गिरा नहीं वरन् पंछी की तरह आकाश में उड़ गया. उपर्युक्त शेअर में जहाँ अद्भुत रस की अनुभूति होती है वहीं शायर का गूढ़ भाव भी अभिव्यक्त हो रहा है कि मौत रूपी आँधी आने पर डाली रूपी परिवार से बिछुड़ कर इंसान को आकाशलोक में जाना ही पड़ता है.

नव रस के साथ-साथ वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति भी हिन्दी गजलों में देखने को मिलती है. जैसै-
जन्म से बोझ पा गए बच्चे
पालने में बुढ़ा गए बच्चे।
डस्टबिन से उठा चले रोटी
लोरियों को गिरा गए बच्चे।
                     शिवओम अम्बर 

वात्सल्य रस की अनुभूति कराता हुआ एक और शेअर-

नन्हें बच्चों से कुँअर छीन के भोला बचपन
उनको हुशियार बनाने पे तुली है दुनिया।
                                    डॉ0 कुँअर बेचैन