हिन्दी कहानी का विकास
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
हिन्दी की आधुनिक कहानी का
विकास बीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुआ. किशोरीलाल गोस्वामी की इन्दुमती(1900
ई0) को कुछ विद्वान हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं. इस विषय में विद्वानों में
बहुत मतभेद है. कुछ विद्वान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ग्यारह वर्ष का समय(1903
ई0), कुछ विद्वान बंग महिला की दुलाईवाली(1907 ई0) को हिन्दी की प्रथम
कहानी मानते हैं. हिन्दी की प्रथम कहानी सम्बन्धी विद्वानों में व्यापक मतभेद होते
हुये भी इस बात से सभी सहमत हैं कि हिन्दी कहानी का विकास बीसवीं शताब्दी के
प्रारम्भ में शुरू हुआ, जबकि पश्चिम के कहानीकार एडगर एलन पो(1809 ई0-1849 ई0),
ओ-हेनरी(1862 ई0-1910 ई0),गाइद मोपांसा(1850 ई0-1893 ई0), एल्टन पाब्लोविच
चैखव(1860 ई0-1904 ई0), आदि कहानी विधा को उत्कृष्टता की ऊँचाई तक पहुँचा चुके थे.
हिन्दी में कहानी विधा का
विकास बहुत तीव्र गति से हुआ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद्र,
आदि कहानीकारों ने कहानी विधा को प्रौढ़ता प्रदान की. प्रेमचंद्र की कहानियाँ
यथार्थ की भूमि पर रचित होने पर भी आदर्शोन्मुख थीं. गुलेरीजी की उसने कहा था कहानी
प्लेटोनिक लव की बहु प्रसिद्ध कहानी है. प्रेमचंद्रोत्तर काल में
जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी ने मानव मन की सूक्ष्म भावनाओं को कहानियों में
अभिव्यक्त किया. यशपाल, रांगेय राघव, भैरव प्रसाद गुप्त, अमृतलाल नागर, अश्क, आदि कहानीकारों ने
मार्क्सवाद से प्रभावित होकर सामाजिक समस्याओं को
कहानियों में अभिव्यक्त किया. एक ही समय में दो धाराओं का उदय हिन्दी कहानी के
आन्दोलनों का सूत्रपात कहा जा सकता है. यद्यपि स्वातन्त्रोत्तर काल के हिन्दी
कहानी आन्दोलनों के समान इन कहानियों के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती.
सन् 1950 ई0 से हिन्दी
कहानी विधा में एक स्पष्ट आन्दोलनात्मक स्वर सुनाई पड़ा. कमलेश्वर, राजेन्द्र
यादव, मोहन राकेश, मन्नू भन्डारी, अमरकान्त, निर्मल वर्मा, आदि कहानीकारों व डॉ0
नामवर सिंह, डॉ0 परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ0 बच्चन सिंह, डॉ0 इन्द्रनाथ मदान, आदि
समीक्षकों ने इसे नयी कहानी नाम दिया. परवर्ती काल में अ कहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी,
समानांतर कहानी, सक्रिय कहानी, जनवादी कहानी, आदि आंदोलनों ने जन्म लिया. इन
आन्दोलनों के कारण कहानी और कहानीकारों को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जाने
लगा. प्रत्येक आंदोलन के अलग-अलग शास्त्र प्रस्तुत किये गये.
स्वातन्त्रोत्तर काल में
कुछ नये कहानीकारों ने कहानियाँ लिखनी प्रारम्भ कीं, जिनका कथ्य और शिल्प दोनों ही
पूर्ववर्ती लेखकों से भिन्न थे. सन् 1954 ई0 में कहानी पत्रिका का प्रकाशन
हुआ, जिसने नयी कहानी को परिभाषित किया और कहानी के विकास में महत्तवपूर्ण
योगदान दिया. शिवप्रसाद सिंह की दादी माँ को सबसे पहली नयी कहानी माना जाता
है, जो प्रतीक नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई. इस समय की अन्य चर्चित
कहानियाँ हैं- शिवप्रसाद सिंह की आर-पार की माला, मार्केण्य की गुलरा के बाबा तथा
पानफूल. नयी कहानी अपने परिवेश के प्रति प्रतिबद्ध व अनुभूति से ओत-प्रोत
थी. नयी कहानी का रचनाकार अपने यथार्थ का भोक्ता था, कोई आदर्शवक्ता
या उपदेशक नहीं. नयी कहानी में पति-पत्नी, माँ-बेटे, आदि सामाजिक संबंधों में आये
बदलाव का चित्रण बहुत व्यापक स्तर पर हुआ है और सामाजिक विसंगतियों को अभिव्यक्त
किया गया है. 1950 के आस-पास कहानी में जो जड़ता आ गयी थी, जो ठहराव आ गया था, नयी
कहानी ने उसे दूर करने में वास्तव में सफलता प्राप्त की. वह अधिकाधिक सहज हो गयी.
सन् 1960 ई0 में हिन्दी
कहानी के क्षितिज पर एक और आंदोलन ने जन्म लिया, जो अकहानी के नाम से
विख्यात हुआ, इसे साठोत्तरी कहानी और समकालीन कहानी नामों से भी
पुकारा गया. अकहानी कहानी की पारंपरिक अवधारणाओं से भिन्न असम्बद्ध कहानी है.
अकहानी कहानी में कथा या घटना को अस्वीकार कर संत्रास, आत्मपीड़न, ऊब, अकेलापन,
अजनबीपन और विसंगति, आदि मानसिक उद्वेगों की अभिव्यक्ति हुई है. दूधनाथ सिंह की रक्तपात,
सुखांत, ज्ञानरंजन की पिता, रमेशबक्षी की पिता-दर-पिता, गंगाप्रसाद
विमल की शीर्षक हीन, रवीन्द्र कालिया की एक डरी हुई औरत, आदि इस समय
की चर्चित कहानियाँ हैं. अकहानी आंदोलन दो उद्देश्यों को लेकर चला, कथाहीनता और
मूल्यहीनता और उसे इसमें सफलता भी मिली. धीरे-धीरे नयी कहानी रूढ़
होने की स्थिति में आ गयी और उसमें खास किस्म की मैनेरिज्म(ओढ़ी हुई पद्धति) पैदा
हो गयी थी. नयी कहानी की रूढ़ि और मैनेरिज्म को तोड़ने के लिये जो आंदोलन उभरे,
उनमें सचेतन कहानी एक महत्वपूर्ण आंदोलन है. उसका प्रारंभ
नवंबर 1964 में प्रकाशित आधार(सं0 डॉ0 महीप सिंह) के सचेतन कहानी
विशेषांक से माना जाता है. सचेतन कहानीकारों ने मनुष्य को सर्वांग और संपूर्ण
रूप में देखना चाहा, उसके अचेतन और अवचेतन अस्तित्व से लेकर उसके सचेतन रूप तक.
सचेतन कहानी व्यक्ति को संघर्षों से पलायनवादी न बनाकर जागरूक व सक्रिय बनाती है.
सचेतन कहानी का आंदोलन एक वैचारिक आंदोलन है और शिल्पगत प्रयोग. धुँधले कोहरे(महीप
सिंह), बर्फ(सुरेन्द्र अरोड़ा),बीस सुबहों के बाद(मनहर चौहान), लौ
पर रखी हुई हथेली(रामकुमार भ्रमर), और भी कुछ(महीप सिंह), आदि इस समय
की प्रमुख कहानियाँ हैं. सचेतन कहानी ने ही पहली बार रूपवाद, व्यक्तिवाद,
मृत्युवाद, अनास्थावाद, अस्पष्ट रहस्यवाद, तथा नियतिवाद के विरूद्ध मोर्चा लिया और
हिन्दी कहानी को इन भँवरों से दूर रहने का संकेत दिया.
नयी कहानियाँ मासिक पत्रिका का स्वामित्व
1968 में अमृतराय के पास आने पर अमृतराय ने अपना नाम करने के लिये सहज कहानी
आंदोलन का सूत्रपात किया, जिसमें कुछ भी नया नहीं था. अमृतराय सहज कहानी को
परिभाषित करते हुये कहते हैं, सहज वह जिसमें आडंबर नहीं है, बनावट नहीं है,
ओढ़ी हुई पद्धति(मैनरिज्म) या मुद्राकोष नहीं है, आइने के सामने खड़े होकर आत्मरति
के भाव से अपने अंग-प्रत्यंग को अलग-अलग कोणों से निहारते रहने का प्रबल मोह नहीं
है. सहज कहानी का आंदोलन अमृतराय और उनकी पत्रिका तक ही सीमित रहा. पत्रिका के
प्रकाशन के बंद होने के साथ ही यह आंदोलन भी समाप्त हो गया.
सन् 1972 ई0 में कहानीकार
कमलेश्वर ने सारिका पत्रिका के अपने संपादकीय मेरा पन्ना में एक नये
कहानी आंदोलन का सूत्रपात किया, जिसका नाम उन्होंने समांतर कहानी दिया. साथ
ही सारिका पत्रिका के धारावाहिक रूप में समांतर कहानी पर तीन विशेषांक निकाले.
भीष्म साहनी, शैलेश मटियानी, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, इस आंदोलन के प्रमुख
कहानीकार हैं. इस समय की कहानियों में आम आदमी के जीवन के समांतर सार्थक
अनुभूतियों को अभिव्यक्ति मिली. तीसरी आँख(कामतानाथ), गौरव(से0 रा0
यात्री), निर्वासित(सूर्यबाला), दुश्मन(दिनेश पालीवाल), शहादतनामा(जितेन्द्र
भाटिया), आदि इस समय की प्रमुख कहानियाँ हैं. समांतर कहानी ने व्यक्ति की असहायता,
नैतिक संकट, मूल्यहीनता तथा विघटन को समग्र सामाजिक तंत्र के परिप्रेक्ष्य में
देखा. समांतर कहानी आंदोलन कमलेश्वर ने खुद को केंद्र में रखकर शुरू किया था और
स्वंय को प्रेमचंद्र के पश्चात् सबसे बड़ा कहानीकार सिद्ध करने की कोशिश की. किंतु
व्यक्ति केंद्रित कोई भी आंदोलन दीर्घजीवी नहीं होता, यही समांतर कहानी आंदोलन का
भी हुआ. अस्सी के दशक के उत्तरार्ध
में जनवादी कहानी आंदोलन ने जन्म लिया. सन् 1977 ई0 में दिल्ली विश्व विद्यालय में
जनवादी विचार मंच की स्थापना हुई. और सन्1982 ई0 में जनवादी लेखक संघ की
स्थापना हुई. कलम(कलकत्ता), कथन(दिल्ली), उत्तरार्ध(मथुरा) जैसी पत्रिकाओं में
जनवादी कहानी पर व्यापक रूप से चर्चा की गयी. जनवादी कहानी अपनी मूल प्रकृति में
सामान्य जन की पक्षधर है, जिसकी शुरूआत हमें प्रेमचन्द्र की कहानियों में देखने को
मिलती है और कुछ न कुछ झलक उपर्युक्त वर्णित विभिन्न आंदोलनों में भी झलकती है.
किंतु
जनवादी कहानी को सबसे अधिक
समृद्ध जनवादी कहानी आंदोलन के आधीन ही किया गया. आस्मां कैसे-कैसे(स्वयं
प्रकाश), कल्पवृक्ष(रमेश उपाध्याय), लोग हाशिये पर(धीरेन्द्र
अस्थाना), खून की लकीर(सुरेन्द्र मनन), आलू की आँख(राजेश जोशी), आदि
कहानियों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं. जनवादी कहानी ने आम आदमी के संघर्ष को समांतर
कहानी की भाँति कृत्रिमता से न गढ़कर सहज रूप से अभिव्यक्त किया. यद्यपि जनवादी
कहानी आंदोलन ने हिन्दी कहानी की मुख्य धारा से जुड़कर एक ऐतिहासिक कार्य किया,
किंतु अधिकांश लेखकों ने किसान जीवन की वास्तविकता को बिना जाने पहचाने, मजदूरों
की समस्याओं को बिना नजदीक से महसूस किये कहानियां लिखी, जिसके कारण ये जनवादी
कहानियां रपट मात्र बनकर रह गयीं.
सन् 1979 ई0 में राकेश वत्स
ने मंच पत्रिका के माध्यम से सक्रिय कहानी आंदोलन के नाम से एक नया
कहानी आंदोलन चलाया, उनके अनुसार कहानी में पात्रों का सक्रिय होना आवश्यक है.
सक्रिय कहानी भी वर्तमान आर्थिक-सामाजिक शोषण के विरोध को अपनी कहानी की मूल
संवेदना मानती है और इस दृष्टि से सक्रिय कहानी समानांतर कहानी और जनवादी
कहानियों के निकट है. समानांतर कहानी की भाँति सक्रिय कहानी का फलक भी सीमित होने
के कारण कहानी साहित्य में कोई व्यापक प्रभाव नहीं छोड़ पाया.
नयी कहानी आंदोलनों के
साथ-साथ तथा उसके पश्चात् भी स्वातंत्र्योत्तर कहानी, आज की कहानी, समकालीन
कहानी, साठोत्तरी कहानी, जनवादी कहानी, आदि विभिन्न कहानी आंदोलनों ने हिन्दी कहानी के विकास में महत्तवपूर्ण योगदान दिया
है.
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Bahut aachi jankari ke Liya thanks
ReplyDeleteधन्यवाद.
Deleteहिन्दी कहानी के इतिहास पर सुन्दर विहंगम द्रष्टि! मंजूश्री जी ! धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसंक्षिप्त में बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक लेख... बधाई...
ReplyDeleteधन्यवाद!
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteधन्यवाद!
DeleteNice
DeleteVery nice
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteबहुत सुंदर वर्णन है। आपसे बहुत कुछ सीखने को मिला। धन्यवाद।
ReplyDeleteधन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही सरल तरीके से समझाया है। धन्यवाद
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteबहुत ही सरल शब्दों के माध्यम से आप ने कहानी के बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु से रूबरू कराया...धन्यवाद आप को
ReplyDeleteधन्यवाद!
ReplyDeleteहिन्दी कहानी विकास के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी साजा करने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteबहुत ही सार्थक जानकारी बहुत बहुत धन्यवाद 🙏
ReplyDeleteधन्यवाद!
ReplyDeleteहिन्दी साहित्य में कहानी विधा के कालक्रम को उपस्थित करते हुए, उन्हें प्रवृत्तियों सहित दर्शाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
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