रस-योजना
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
साहित्य में रसानुभूति का
विशेष महत्व है. रस-योजना के सुगठन पर ही काव्य की उत्कृष्टता का पता लगता है.
जहाँ आचार्यों ने पूर्ण रस माना है वहाँ तीन ह्रदयों का समन्वय आवश्यक है. पहले
आलंबन द्वारा भाव की अनुभूति कवि के ह्रदय में होनी आवश्यक है, दूसरे कवि द्वारा वर्णित
पात्र में और तीसरे श्रोता या पाठक के ह्रदय में. तीनों ह्रदयों में एक से भावों
को उत्पन्न होने को ही ‘साधारणीकरण’ कहते हैं. पं0
राम बहोरी शुक्ल ने ‘रस’ की परिभाषा इस प्रकार कही है, जब स्थायी भाव आलम्बन के द्वारा उत्पन्न,
उद्दीपन के द्वारा उद्दीप्त(उत्तेजित या बढ़ाया जाता) और संचारी के द्वारा
संचरित(पुष्ट) होकर अनुभावों के द्वारा व्यक्त हो जाता है. तब उसका नाम ‘रस’ पड़ता है. साहित्य
दर्पण में ‘रस’ की परिभाषा इस प्रकार दी
गयी है, सह्रदय पुरूषों के ह्रदय में वासना रूप में स्थित रति, आदि स्थायी
भाव ही विभाव, अनुभाव और संचारी के द्वारा अभिव्यक्त होकर रसके स्वरूप को प्राप्त
होते हैं.
रसानुभूति में चार प्रकार
के भावों का मुख्य रूप से सहयोग रहता है-
·
स्थायी भाव
·
विभाव
·
अनुभाव
·
संचारी भाव
1. स्थायी भाव- . पं0 राम बहोरी
शुक्ल ने स्थायी भाव की परिभाषा इस प्रकार कही है, मानव ह्रदय में
कुछ भाव सुप्तावस्था में से, अज्ञात रूप में , सदैव विद्यमान रहते हैं और अनुकूल
अवसर आने पर(जैसे- किसी काव्य के पढ़ने या नाटक का अभिनय देखने पर) जागरित हो उठते
हैं. इनको स्थायी भाव कहा जाता है.
स्थायी भाव सह्रदयों के
ह्रदयों में संस्कार रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं. जो भाव आदि से अन्त तक काव्य
या नाटक में विद्यमान रहते हैं उसे स्थायी भाव कहते हैं. जैसे- ‘शकुन्तला’ नाटक में ‘रति’ भाव.
प्रधान स्थायी भाव नौ होते
हैं, इन्हीं के आधार पर काव्यशास्त्रियों ने ‘नव रस’ माने हैं. ये स्थायी भाव हैं- प्रेम(रति), हास,
क्रोध, उत्साह, भय, घृणा(जुगुप्सा), निर्वेद या वैराग्य, अद्भुत, शोक.
2. विभाव- . पं0 राम बहोरी
शुक्ल ने विभाव की परिभाषा इस प्रकार दी है- जो भाव सामान्यतः वासना
रूप में आश्रय के ह्रदय में प्रसुप्त अवस्था में स्थिर रहते हैं, वे किसी व्यक्ति,
वस्तु, बात या परिस्थिति को पाकर जाग पड़ते हैं. भाव को उद्बुद्ध करने वाले
व्यक्ति, वस्तु, आदि(अर्थात् आलम्बन) और उनकी बातों, चेष्टायें तथा देश काल की स्थिति(अर्थात्
उद्दीपन) विभाव कहलाते हैं.
भावों को विशेष रूप से
उत्पन्न करने वाले वाह्य कारण विभाव कहलाते हैं. इनमें जो मुख्य होते हैं वे
आलम्बन और जो सहायक या गौण होते हैं उन्हें उद्दीपन
कहते हैं. जिससे भाव
की उत्पत्ति हो वह आलम्बन और जिसमें भाव की उत्पत्ति हो वह आश्रय कहलाता है. जो
भावों को तीव्रता प्रदान करें वह उद्दीपन है.
3.अनुभाव- . पं0 राम बहोरी
शुक्ल ने अनुभाव की परिभाषा इस प्रकार दी है- आश्रय के शरीर के जिस
विकार, कार्य, आदि से विभावों की सहायता से उसके मन में स्थित भाव के जाग्रत होने
का ज्ञान होता है, वह अनुभाव कहलाता है.
आश्रय में भावों के सूचक
वाह्य शारीरिक विकार अनुभाव कहलाते हैं.
अनुभाव दो प्रकार के होते हैं-
1. कायिक अनुभाव-वे शारीरिक चेष्टाएँ जिन पर आश्रय का अधिकार होता है कायिक अऩुभाव
कहलाते हैं.
2. सात्विक अनुभाव- वे शारीरिक
चेष्टायें जो आश्रय के शरीर में आलम्बन और उद्दीपन के माध्यम से स्वतः प्रकट होते हैं इन पर आश्रय का अधिकार
नहीं होता. जैसे- स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, अश्रु, आदि.
3. संचारी भाव- . पं0 राम बहोरी
शुक्ल ने संचारी भाव की परिभाषा इस प्रकार दी है, स्थायी भाव तो
प्रधान मानसिक क्रियायें हैं. इनके साथ ही कुछ ऐसी मानसिक क्रियायें भी होती हैं,
जिनका आर्विभाव कुछ काल के लिये ही होता है. ये स्थायी भावों के समान निरन्तर नहीं
रहते, स्थायी भावों को पुष्ट करके ही विलीन से हो जाते हैं. ऐसे भाव संचारी भाव
कहलाते हैं क्योंकि जब स्थायी या प्रधान भाव बने रहते हैं तब तक ये बराबर
संचरण करते रहते हैं, आते-जाते रहते हैं.
स्थायी भाव के साथ जो भाव आते-जाते रहते हैं उन्हें संचारी
भाव कहते हैं. एक
ही संचारी भाव कई रसों में आ सकते हैं. इस अनियमित व्यवहार
के कारण ही ये व्यभिचारी भी कहलाते हैं. संचारी भावों की संख्या 33 मानी गयी है-
उदासीनता, निर्वेद, आवेग, दीनता, श्रम, मद, जड़ता, मोह,
शंका, चिन्ता, ग्लानि(अनुत्साह और शिथिलता), विषाद, व्याधि, आलस्य, अमर्ष, हर्ष,
गर्व, असूया(डाह), मति, चपलता, लज्जा, अवहित्थ(छिपाव), निद्रा, स्वप्न, जागना,
उन्माद, मृगी, स्मृति, उत्सुकता, त्रास, वितर्क, मरण, धृति, उग्रता प्रमुख संचारी
भाव हैं. कभी-कभी कोई एक स्थायी भाव दूसरे स्थायी भाव में संचारी का काम करता है.
साहित्य-शास्त्रियों ने रस के नौ भेद माने हैं-
1. श्रृंगार रस
2. हास्य रस
3. करूण रस
4. रौद्र रस
5. वीर रस
6. भयानक रस
7. वीभत्स रस
8. शान्त रस
9.अद्भुत रस
1. श्रृंगार रस-
नव रसों में श्रृंगार रस का
स्थान सबसे ऊँचा है. श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति है. भक्ति रस व वात्सल्य रस को
भी कुछ विद्वानों ने श्रृंगार रस के अन्तर्गत माना है. श्रृंगार का अर्थ है-
श्रृंग+आर=कामोद्रेक होना.
श्रृंगार रस के दो भेद हैं- क. संयोग श्रृंगार ख. वियोग श्रृंगार .
क. संयोग श्रृंगार – संयोग श्रृंगार में नायक-नायिका
के परस्पर मिलन का वर्णन होता है. आचार्य विश्वनाथ का कहना है- जहाँ
एक-दूसरे के प्रेम में अनुरक्त विलासी नायक-नायिका परस्पर दर्शन, स्पर्शन, आदि का
सेवन करते हैं वह संयोग श्रृंगार है.
संयोग के क्षणों में
प्रेमी-प्रेमिका आनंदाभिभूत हो अपने प्रिय का रूप वर्णन करते हैं, आस-पास का सारा
वातावरण उनहें सुखद प्रतीत होता है. प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे को अपने ह्रदय की
इच्छायें अभिव्यक्त करते हैं.
उदाहरण-
तुम पै कौन दुहावै गैया.
इत चितवत उत धार चलावत, एहि
सिखयो है मैया?
प्रस्तुत पंक्तियाँ संयोग श्रृंगार
का अनुपम उदाहरण हैं जहाँ कृष्ण गाय का दूध निकाल रहे हैं और एक दूध की धार राधा की ओर कर देते हैं जिससे राधा कृष्ण
से नाराज हो उपर्युक्त कथन कहती हैं. उपर्युक्त प्रसंग में
आलम्बन कृष्ण हैं, आश्रय राधा हैं और उद्दीपन गाय दुहना, राधा की ओर देखना है.
अनुभाव राधा का कथन है.
अन्य उदाहरण-
राम का रूप निहारति जानकी कंकन के नग की परछाँही
यातै सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारति नाहीं।
ऐसे ही प्रस्तुत पंक्तियों
में कवि ने ऐसे संयोग के पलों का वर्णन किया है जबकि राम और जानकी पास-पास बैठे
हैं. जानकी जी के कंगन में राम की छवि दिखाई दे रही है जिसे जानकी जी बिना पलक
झपकाये एक टक देख रही हैं. उपर्युक्त प्रसंग में राम आलम्बन हैं सीता आश्रय हैं और
उद्दीपन कंगन में राम की परछांही दिखाई देना है. कर टेकि रही पल टारति
नाहीं। अनुभाव है.
वियोग श्रृंगार- वियोग श्रृंगार में
नायक-नायिका किसी कारणवश एक-दूसरे से अलग-अलग होते हैं. हिन्दी साहित्य में विरह
उत्पन्न करने वाली चार अवस्थाओं(पूर्वराग, मान, प्रवास, करूण) का वर्णन किया गया
है जिनके कारण नायक-नायिका की ग्यारह दशाओं(अभिलाषा, चिंता, स्मरण, गुणकथन,
उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, जड़ता, व्याधि, मूर्च्छा, मरण) में से एक या एक से अधिक
दशा हो सकती है.
उदाहरण-
सैंकड़ों खतरे सदा परदेस का
रहना बुरा
सूखना हरदम फिकर से डाकिया
बीमार है।
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्रवास के कारण
उत्पन्न विरहजन्य अवस्था का वर्णन किया है जबकि किसी कारणवश पति परदेस में है
पत्नी पति की कुशलता का समाचार न पाकर चिंता से व्याकुल है. इसमें पति आलम्बन है,
पत्नी आश्रय और डाकिया का बीमार होना उद्दीपन.
वियोग श्रंगार की करूण अवस्था करूण रस से भिन्न है-
क. जहाँ करूण रस में आलम्बन के
नष्ट हो जाने से पुनर्मिलन असम्भव होता है वहीं करूण-वियोग श्रंगार रस में मिलन की
क्षीण आशा बनी रहती है.
ख. करूण-वियोग श्रंगार रस
नायक-नायिका से सम्बन्धित होता है जबकि करूण रस किसी भी व्यक्ति या सम्बन्धी के
निधन पर उत्पन्न हो सकता है.
2. हास्य रस-
हास्य रस का स्थायी भाव हास है इसमें किसी के रूप में
विसंगति का, समाज में व्याप्त अर्थ सम्बन्धी विसंगति का वर्णन हास्य के माध्यम से
किया जाता है.
उदाहरण-
पत्नी ने विदा करी
अपनी सहेली,
हमको सूझी अठखेली-
सहेली तुम्हारी बेडौल है,
एकदम फुटबॉल है.
बड़ा मांस चढ़ गया है,
कोई भी अंग
किसी भी दिशा में
कितना ही बढ़ गया है.
उफ्फ........भयावह.
अन्नू बेटा बोला-
अदरक की तरह.
प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने पत्नी की सहेली के मोटेपन को
हास्य के माध्सम से अभिव्यक्त किया है. इसमें सहेली आलम्बन है कवि आश्रय और बेटे
का कथन अदरक की तरह उद्दीपन.
3. करूण रस-
करूण रस का स्थायी भाव शोक है. किसी अपने
प्रियजन, मित्र व सगे- सम्बन्धी की
मृत्यु पर करूण रस उत्पन्न होता है.
उदाहरण-
हम द्वार पर खड़े थे पत्रों की प्रतीक्षा में
पर तार हाथ आया प्रिय प्रीति के निधन का।
उपर्युक्त पंक्तियों में
कवि ने करूण रस का बहुत ही मार्मिक उदाहरण प्रस्तुत
किया है. कहाँ तो कवि द्वार
पर खड़ा होकर प्रिय के कुशल पत्र का इंतजार कर रहा है और कहाँ उसे प्रिय के निधन
का दुखद समाचार मिलता है. इसमें प्रिया आलम्बन है कवि आश्रय है और प्रीति के निधन
का तार आना उद्दीपन है.
4.रौद्र रस-
रौद्र रस का स्थायी भाव
क्रोध है. परिवार में या समाज में किसी के प्रति अन्याय होने पर, जुल्म होने पर या
शोषण होने पर जब किसी के मन में क्रोध उत्पन्न होता है तो रौद्र रस की उत्पत्ति
होती है.
उदाहरण-
जुल्म अत्याचार शोषण हो न पाए अब कहीं
हो अगर ऐसा कहीं उससे सदा टकराइए।
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि
के मन में समाज में व्याप्त जुल्म, शोषण, अत्याचार के विरूद्ध आक्रोश अभिव्यक्त
हुआ है और कवि पाठकों से भी जुल्म, शोषण, अत्याचार के विरोध में टकराने के लिये
कहता है.
5.वीर रस-
वीर रस का स्थायी भाव
उत्साह है. साहित्य शास्त्र में चार प्रकार के वीरों का वर्णन किया गया है- युद्ध
वीर, दान वीर, धर्म वीर, दया वीर. जब वीर पुरूष या वीरांगना शत्रु से लड़ने के
लिये उत्साह से भर कर युद्ध के लिये तत्पर होते हैं तो
वीर रस की उत्पत्ति होती है.
जब कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से वीरो के मन में उत्साह उत्पन्न करते हैं तो वीर
रस की उत्पत्ति होती है.
उहाहरण-
हल्दी घाटी के शिला-खण्ड,
ऐ दुर्ग! सिंहगढ़ के प्रचण्ड,
राणा, ताना का कर घमण्ड,
दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलन्त
वीरों का कैसा हो बसन्त?
उपर्युक्त पंक्तियों में
कवियत्री ने इतिहास के वीर पुरूषों के माध्यम से वीरों के मन में युद्ध के लिये
उत्साह उत्पन्न करने का प्रयास किया है.
उदाहरण-
भुज का छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का
बड़ा भरोसा था लेकिन इस कवच और कुण्डल का.
पर उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ
देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ.
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि
ने कर्ण और इन्द्र के संवाद का वर्णन किया है जबकि कर्ण महाभारत युद्ध से पहले
इन्द्र द्वारा कवच और कुण्डल का दान माँगने पर, इन्द्र को अपने कवच और कुण्डल काट
कर दे देते हैं और स्वयं युद्ध में अन्य महारथियों के समान युद्ध के लिये तैय्यार
होते हैं. इस प्रसंग में कवि ने कर्ण की दानवीरता और युद्धवीरता दोनों का वर्णन
किया है.
6.भयानक रस
भयानक रस का स्थायी भाव भय
है. जब किसी भयानक वस्तु को देखकर या डरावनी आवाज सुनकर किसी की चीख निकल जाती है
या अचानक डर से काँपने लगता है तो भयानक रस का उत्पत्ति होती है.
उदाहरण-
देह विसाल परम हरूआई, मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।
जरइ नगर भा लोग विहाला, झपट लपट बहु कोटि कराला।।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा, एहिं अवसर को हमहि उबारा।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई, वानर रूप धरें सुर कोई।।
उपर्युक्त पंक्तियों में
कवि ने लंका दहन के समय नगरवासियों के मन में उत्पन्न भय का वर्णन किया है.
7.वीभत्स रस-
वीभत्स रस का स्थायी भाव
घृणा(जुगुप्सा) है. जब कवि अपनी रचना में कुछ ऐसा वर्णन करता है जिसे पढ़कर या
देखकर पाठक व दर्शक के मन में घृणा का भाव उत्पन्न होता है अर्थात् उसका मन करता
है कि वो कृति को आगे ना पढ़े या ना देखे तब वीभत्स रस की उत्पत्ति होती है.
उदाहरण-
सिर पर बैठ्यो काग, आँख दोउ खात निकारत।
खैंचत जीभ सियार, अतिहि आनन्द उर धारत।।
उपर्युक्त पंक्तियों में
कवि ने युद्ध के बाद के वीभत्स दृश्य का वर्णन किया है जबकि काग और सियार मृत
शरीरों से विभिन्न अंग निकाल-निकाल कर खा रहे हैं और आनन्द ले रहे हैं. इसे पढ़कर
पाठक के मन में घृणा का भाव उत्पन्न होता है.
8.शान्त रस-
शान्त रस का स्थायी भाव
निर्वेद या वैराग्य है. जब कवि अपनी रचना में कुछ ऐसा वर्णन करता है कि नायक या
नायिका के मन में संसार के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है तब शान्त रस होता
है.
उदाहरण-
जा दिन मन पंछी उड़ि जैहै।
ता दिन तेरे तन तरूवर के
सबै पात झरि जैहं।
उपर्युक्त पंक्तियों मे कवि
ने संसार की निस्सारता का वर्णन किया है अतः यहाँ शान्त रस है.
9. अद्भुत रस-
अद्भुत रस का स्थायी भाव
आश्चर्य है. जब कवि अपनी रचना में कुछ ऐसा वर्णन करता है कि रचना के पात्र स्वयं
अचम्भित से हो जाते हैं और पाठक व श्रोता भी आश्चर्य चकित हो जाते हैं तब वहाँ
अद्भुत रस होता है.
उदाहरण-
इहाँ-उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोरि कि आन बिसेखा।
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँस दीन्ह मधुर मुसकानी।
उपर्युक्त पंक्तियों में
कवि ने उस समय का वर्णन किया है जब बालक राम कौसल्या माँ को अपने दो जगह उपस्थित
होने का भ्रम उत्पन्न कर आश्चर्य चकित कर देते हैं.
कुछ हिन्दी साहित्य
शास्त्रियों ने भक्ति रस और वात्सल्य रस को श्रृंगार रस से अलग माना है और कुछ
हिन्दी साहित्य शास्त्रियों ने श्रृंगार रस के अन्तर्गत ही माना है. यहाँ हम भक्ति
रस और वात्सल्य रस का अलग से वर्णन कर रहे हैं. इस प्रकार रसों की संख्या ग्यारह
हो जाती है.
10.
भक्ति रस-
भक्ति रस का स्थायी भाव भी
श्रृंगार रस के समान रति ही है फर्क इतना है कि जहाँ श्रृंगार रस में साधारण मानव-मानवी
के प्रेम को अभिव्यक्त किया जाता है वहाँ भक्ति रस में कवि ईश्वर के प्रति अपने
रागात्मक भाव का वर्णन करता है. सूफी काव्य में तो परमात्मा को प्रेमिका मानकर ही
अपने ह्रदय के उद्गारों को कवि अभिव्यक्त करता है.
उदाहरण-
ध्यान में उसके जो डूबे डूबते ही हम गये
वो तो ऐसा सिन्धु था जिसकी न कोई थाह थी।
उपर्युक्त पंक्तियों में
कवि ने ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति भावना को अभिव्यक्त किया है.
11.
वात्सल्य रस-
वात्सल्य रस का भी स्थायी
भाव रति है परन्तु वात्सल्य रस में रागात्मकता माँ-बाप की बच्चों के प्रति या
बच्चों की माँ-बाप के प्रति अभिव्यक्त होती है.
47.
उदाहरण-
सँदेसो देवकी से कह्यो।
हौं तो धाय तिहारे सुत की
कृपा करत ही रहियो।।
उबटन तेल और तातो जल देखत
ही भजि जाते।
जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती
क्रम-क्रम करि अन्हवाते।।
उपर्युक्त पंक्तियों में
कवि ने श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर यशोदा द्वारा देवकी को भेजे संदेश का वर्णन
किया है जिसमें वह श्रीकृष्ण के प्रति अपने रागात्मक भाव को अभिव्यक्त कर रही हैं.
48.
बहुत सुंदर ! धन्यवाद |
ReplyDeleteहाइकु की भी रचनाएँ blog में डालिए |
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