जिंदगी में छाँव बनकर आप आये हैं।
अब हमें धूप सुहानी लग रही है।।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
कत्था
डॉ. मंजूश्री गर्ग
पान का हमारी संस्कृति में
महत्वपूर्ण स्थान है। पूजा-अर्चना में ही नहीं, प्रायः भोजन के पश्चात् हमारे यहाँ
पान खाने की परम्परा है। पान बनारस का हो या कलकत्ता का सभी में कत्था अवश्य लगाया
जाता है। पान खाने से जो होंठ और मुँह लाल होते हैं वो कत्थे के कारण ही होते हैं।
कत्था हमें खैर नामक पेड़
की लकड़ी से प्राप्त होता है। खैर एक प्रकार का बबूल का पेड़ है। इस वृक्ष की
लकड़ी के टुकड़ों को उबाल कर और उसके रस को जमा कर कत्था बनाया जाता है, जो पान
में चूने के साथ लगाया जाता है।
खैर को कथकीकर और सोनकर भी
कहते हैं। यह समस्त भारत में पाया जाता है। जब खैर के पेड़ का तना लगभग 12 इंच
मोटा हो जाता है तो इसे काट लेते हैं और छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर गर्म पानी
में पकाते हैं। गाढ़ा रस निकालने के बाद चौड़े बर्तन में खुला रख कर सुखाया जाता
है। सूखने के बाद चौकोर आकार का काट लेते हैं। यही कत्था होता है जिसे पानी
में घोलकर पान की पत्ती पर लगाया जाता है। मुँह के फंगल इंफेक्शन में भी कत्था
बहुत लाभकारी होता है। मुँह में छाले होने पर सूखा कत्था छोटी हरी इलायची के साथ
मुँह में रखने से आराम मिलता है।
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने माँ पार्वती की
आराधना की है-
नूपुर बजत मानि
मृग से अधीन होत,
मीन होत जानि
चरनामृत झरनि को।
खंजन से नचैं
देखि सुषमा सरद की सी,
सचैं मधुकर से
पराग केसरनि की
रीझि रीझि तेरी
पदछवि पै तिलोचन के
लोचन ये, अंब! धारैं केतिक धारनि को।
फूलत कुमुद से
मयंक से निरखि नख;
पंकज से खिले
लखि तरवा तरनि को।
रामचंद्र(कवि)
आजकल फिजी में 12 वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन चल रहा है, इस अवसर पर प्रासंगिक लेख-
अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी भाषा का स्वरूप
डॉ. मंजूश्री गर्ग
किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय
भाषा के स्वरूप में दो प्रकार के तत्व होते हैं-एक केंद्रीय और दूसरा परिधीय.
केंद्रीय तत्व उस भाषा के सभी रूपों में समान होते हैं, इन्हीं के आधार पर उस भाषा
के एक रूप का प्रयोक्ता दूसरे रूप के प्रयोक्ता की भाषा को समझ अवश्य लेता है, चाहे
बोल पाने में समर्थ न हो. परिधीय तत्व उस भाषा के सभी रूपों में असमान होते हैं
किन्तु परिधीय तत्व कम से कम होने चाहिये ताकि भाषा के एक रूप के प्रयोक्ता को उस
भाषा के अन्य रूप को समझने में मुश्किल न हो. उदाहरणार्थ – अंग्रेजी भाषा की
संरचना में जो केंद्रीय तत्व हैं, वे ब्रिटिश अंग्रेजी, अमरीकी अंग्रेजी तथा
आस्ट्रेलियाई अंग्रेजी, आदि अंग्रेजी के सभी रूपों में समान हैं और उन्हीं के आधार
पर वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बनी है जबकि ब्रिटिश अंग्रेजी और अमरीकी अंग्रेजी में
वर्तनी, उच्चारण, शब्द-भंडार, अर्थ, वाक्य रचना, सभी दृष्टियों से पर्याप्त
विभिन्नता पाई जाती है.
हिन्दी विश्व की प्रमुख तीन
भाषाओं में से एक है. बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी का स्थान केवल
चीनी और अंग्रेजी के बाद आता है. विश्व में हिन्दी भाषा का प्रयोग-क्षेत्र तीन
प्रकार का है- 1. हिन्दी भाषा क्षेत्र है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार,
मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब का कुछ भाग व हिमाचल प्रदेश में है. 2. हिंदीतर
भारतीय प्रदेश- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, बंगाल का कलकत्ता, मेघालय का
शिलांग नगर. 3. भारतेतर देश- मुख्यतः मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद,
दक्षिण अफ्रीका. गौणतः नेपाल, जमाइका, बर्मा, मलेशिया, सिंगापुर, कीनिया,
इंडोनेशिया, थाइलैंड, श्रीलंका, ब्रिटेन, अमेरिका तथा कनाड़ा. विभिन्न
देश-प्रदेशों की हिन्दी भाषा का रूप भी भिन्न है. हिन्दी भाषा की वर्तनी एक ही है
किन्तु उच्चारण, शब्द भंडार, शब्दार्थ, वाक्य रचना में पर्याप्त विभिन्नता पाई
जाती है.
डॉ. भोलानाथ तिवारी ने
हिन्दी भाषा के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप के संवंध मे जो बातें कही हैं विचारणीय
हैं-------
1. जहाँ तक अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी के शब्द भंडार का प्रश्न
है, यह न तो बहुत अधिक संस्कृतनिष्ठ होनी चाहिये और न बहुत अरबी-फारसी मिश्रित.
किंतु इसे हिन्दुस्तानी शैली कहना भी बहुत उपयुक्त नहीं होगा. वस्तुतः इसे वर्तमान
संस्कृतनिष्ठ हिन्दी तथा हिन्दुस्तानी के बीच का होना चाहिये.
2. अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी में वे सभी अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त
होने चाहिये जो हिन्दी में किसी भी कारण आ गये हैं तथा जो पूरे भारत में तथा भारत
के बाहर भी बोले और समझे जाते हैं. उदाहरण के लिये –इंजीनियर ठीक है अभियंता की
आवश्यकता नहीं है. ऐसे ही टेलीफोन का प्रयोग होना चाहिये दूरभाष का नहीं.
3. विश्व की काफी भाषाओं में ऐसे शब्द हैं जो पाँच या पाँच से
अधिक भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं. इनमें से कुछ शब्द ऐसे हो सकते हैं जो लगभग एक
ही उच्चारण से सभी भाषाओं में प्रचलित हैं. ऐसे शब्दों को उसी उच्चारण के साथ अन्तर्राष्ट्रीय
हिन्दी को स्वीकार कर लेना चाहिये.
4. जहाँ तक व्याकरण का प्रश्न है, मानक हिन्दी के सामान्य
व्याकरण को ही अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी के लिये ग्रहण करना चाहिये. उसमें से न तो न
के प्रयोग को निकालने की आवश्यकता है न क्रिया और विशेषण के लिंगीय परिवर्तन को
हटाने की. हाँ, जैसाकि सूरीनाम या मॉरीशस की हिन्दी में सुनने में आता है, इन
दृष्टियों से छूट कोई बरतना चाहे तो बरत सकता है किंतु ये छूट वाले रूप हिन्दी के
परिधीय तत्व माने जाने चाहिये केंद्रीय तत्व नहीं.
5. यदि नये शब्दों के निर्माण की आवश्यकता हो तो जहाँ तक
उपसर्गों और प्रत्ययों का संबंध है, हिन्दी के जितने भी उर्वर उपसर्ग और प्रत्यय
हैं उन्हीं का प्रयोग होना चाहिये अनुर्वर का नहीं. उदाहरण के लिये प्रभावशाली और
प्रभावी पर्याप्त हैं, प्रभविष्णु की आवश्यकता नहीं.
अन्तर्राष्ट्रीय
हिन्दी का स्वरूप निर्धारित करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि अन्तर्राष्ट्रीय
हिन्दी का व्याकरण और शब्द भंडार मानक हिंदी का ही होना चादिये, जो भाषा के
केंद्रीय तत्वों से सम्बंधित है. भाषा में अन्य परिवर्तन देश-प्रदेश अपनी
सुविधानुसार परिधीय तत्व के रूप में कर सकते हैं.
गीत
डॉ. मंजूश्री गर्ग
बसंत ऋतु है आई पिय
देखो कोयल गीत गाने लगी।
खेतों में सरसों सरसाई
बागों में बौराई अमराई
मन की बात जानो पिय
देखो हमने चूनर लहराई।
धीरे-धीरे बात अधर पै आने लगी
देखो कोयल गीत गाने लगी।
फूलों ने खुशबूयें लुटाईं
तितली उड़ती ले अंगड़ाई
जो तुमको मदहोश कर दे पिय
ऐसी मेंहदी हमने रचाई।
धीरे-धीरे रात गहराने लगी
देखो कोयल गीत गाने लगी।
श्री नरेश सक्सैना
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जन्म-तिथि- 16 फरवरी, सन् 1939 ई. ग्वालियर
नरेश सक्सैना बहुमुखी
प्रतिभा के धनी हैं, हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार, पत्रकार व फिल्म निर्देशक
हैं। नरेश सक्सैना जी व्यवसाय से इंजीनियर हैं। एम. ई. तक इंजीनियरिंग पढ़ी है और
पैंतालीस वर्ष तक इंजीनियरिंग की है। फिर भी हिन्दी भाषा में कवितायें लिखी हैं,
पहली रचना 1958 में मुक्तक के रूप में प्रकाशित हुई थी। कविता के विषय में नरेश जी
के विचार हैं- मनोरंजन या विलास का साधन कविता नहीं होती। सभी कलाओं और विज्ञान
की तरह आनन्द से अपने अटूट रिश्ते के बाबजूद वह पाठकों से गम्भीर पाठ की
माँग करती हैं।
विज्ञान का छात्र होने के
कारण नरेश जी की कविताओं का विषय साधारणतः अन्य कविताओं से भिन्न है। जीवन का
अधिकांश समय ईंट, मिट्टी, सीमेंट, लोहा, नदी, पुल, आदि के बीच बीता और यही विषय
इनकी कविताओं के भी बने; जैसे- गिरना,
सेतु, पानी क्या कर रहा है, संख्यायें, अंतरिक्ष से देखने पर, आदि। नरेश जी की
कविताओं के विषय में नलिन रंजन सिंह ने कहा है- नरेश जी की कविताओं में बोध और
संरचना के स्तरों पर अलग ताजगी मिलती है। बोध के स्तर पर वे समाज के अंतिम आदमी की
संवेदना से जुड़ते हैं, प्रकृति से जुड़ते हैं और समय की चेतना से जुड़ते हैं तो संरचना
के स्तर पर वे कवितायें छंद और लय के मेल से बुनते हैं।
नरेश सक्सैना जी की रचनायें
हैं-
कविता संग्रह- समुद्र पर हो रही है बारिश, सुनो चारूशीला।
नाटक- आदमी का आ।
पटकथा लेखन- हर क्षण विदा है, दसवीं दौड़, जौनसार बाबर, रसखान, एक हती
मनू(बुंदेली)
नरेश जी ने संबंध, जल से
ज्योति, समाधान, नन्हें कदम लघु फिल्मों का निर्देशन किया है।
नरेश जी ने आरम्भ, वर्ष,
छायानट नामक पत्रिकाओं का संपादन किया है।
नरेश सक्सैना जी को सन्
1973 ई. में हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्मान से सम्मानित किया गया और सन्
1992 ई. में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
नरेश सक्सैना जी की कविता
का उदाहरण-
गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह।
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुये।
गिरो आँसू की एक बूँद की तरह
किसी के दुख में।
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच।
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिये जगह खाली करते हुये।
गाते हुये ऋतुओं का गीत
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ बसन्त नहीं आता।
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुये।