Sunday, December 31, 2017

र्ष 2018 की हार्दिशुकानायें


चाँदनी रात
नया साल
धरा से अम्बर तक
उजाला ही उजाला।

                    डॉ0 मंजूश्री गर्ग







Saturday, December 30, 2017





चाँद ने बिखेरी है चाँदनी नये साल में,
सागर की लहरें कर रही नर्तन नये साल में।
नया साल लेकर आया खुशियाँ अपम्पार,
आओ! मिलकर मनायें उत्सव नये साल में।

                                                               डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, December 29, 2017


सीता की प्रतिज्ञाः

शूल नहीं चुभे थे कभी
कंटक भरी राहों में,
क्योंकि तुम साथ थे.
रावण की लंका में भी
रही थी सुकून से
क्योंकि तुम साथ थे.

आज अकारण ही
निर्वासित किया है तुमने
जानते हुये भी कि
गर्भ में तुम्हारा ही अंश है.

बहुत ही अकेली
महसूस कर रही हूँ
मैं जग में.
अपनी ही परछाईं से
डर रही हूँ
मैं वन में.

आज राम तुमनें नहीं!
मैंने निर्वासित किया है
तुम्हें ह्रदय से.
भूमि से जन्मी हूँ
भूमि में समा जाऊँगी
पर वापस तुम्हारी
अयोध्या में
कभी नहीं आऊँगी.


    डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Thursday, December 28, 2017


कल्पना

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

गर ये कल्पना ना होती
कैसे आँकते छवि ह्रदय में।
कैसे करते अभिषेक उनका
कैसे चढ़ाते भाव-सुमन।
कैसे उतारते नयन आरती
गर ये कल्पना ना होती
कैसे होता दीदार सनम से।

Wednesday, December 27, 2017





      


बाबूजी थे
सीधे-सच्चे
खोटे युग में खरे रहे वे
x     x   x    x    x
बरगद थे वे
झेले पतझर
फिर भी, साधो, हरे हरे वे।
                   कुमार रवीन्द्र

जब भी कोई चित्र आँकते,
रंगों में भाव नहीं उतरते।
जब भी भाव शव्दों में बाँधते
मन के भाव नहीं छंद बनते।
भावों के परिधानों की अपूर्णता
पहनती नित-नूतन परिधान।

                                               डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Monday, December 25, 2017


ह्रदय छवि झाँकती नयनन के दर्पण में,
मन के राग मचलते अधरों के प्याले में।
मत भटकता फिर, राह के भोले पंछी
बाँध ले मन की डोर यहीं, पा जायेगा धीर।

                                                                   डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, December 22, 2017



दूर रहने से ना नजदीकियाँ कम होंगी,
आप बढ़ाये दूरियाँ नजदीकियाँ बढ़ जायेंगी।

                                  डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Thursday, December 21, 2017


बाँस


डॉ0 मंजूश्री गर्ग

बाँस, ग्रामिनीई कुल की एक घास है जो भारत के प्रत्येक क्षेत्र में पायी जाती है. बाँस में प्रकृति को संरक्षित करने का अद्भुत गुण है. इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी होती है. छोटी-छोटी घरेलू वस्तुओं से लेकर मकान बनाने तक काम आती है. बाँस
का नया उगा पौधा खाने के काम आता है, इसका अचार और मुरब्बा भी पड़ता है. बाँस में अधिक कार्बोहाइड्रेट होने से यह स्वास्थ्यवर्धक भी है. अन्य पौधों की अपेक्षा बाँस का पेड़ अधिक ऑक्सीजन छोड़ता है. साथ ही यह पीपल के पेड़ की तरह दिन में कार्बन डाईऑक्साइड खींचता है और रात में ऑक्सीजन छोड़ता है.

बाँस की खेती आर्थिक दृष्टि से भी उपयोगी होती है. एक बार बाँस बोने के बाद पाँच साल बाद उपज देने लगते हैं. यह पृथ्वी पर सबसे तेज बढ़नेवाले पौधों में से एक है. एक दिन में 121 से0मी0 तक इसकी लम्बाई बढ़ जाती है, कभी-कभी कुछ प्रजातियों में इसके बढ़ने की गति 1 मी0 प्रति घंटा हो जाती है. इसका तना लम्बा, गाँठदार, प्रायः खोखला और अनेक शाखाओं वाला होता है तने की निचली गाँठों से जड़ें निकलती हैं जो रेशेदार होती हैं इसकी पत्तियाँ लम्बी और नुकीली होती हैं. जब बाँस में फूल खिलते हैं तो उसका जीवन समाप्त हो जाता है. सूखे तने गिरकर रास्ता बंद कर देते हैं, अगले वर्ष वर्षा के बाद बीजों से नयी कलमें फूटती हैं और जंगल फिर हरा हो जाता है.

बाँस का जीवन एक वर्ष से पचास वर्ष तक का होता है, जब तक की फूल नहीं खिलते. फूल बहुत ही छोटे, रंगहीन, बिना ठंडल के छोटे-छोटे गुच्छों में पाये जाते हैं. साधारणतः बाँस तभी फूलता है जब सूखे के कारण खेती मारी जाती है और दुर्भिक्ष पड़ता है. शुष्क एवम् गरम हवा के कारण पत्तियों के स्थान पर कलियाँ खिलती हैं. फूल खिलने पर पत्तियाँ झड़ जाती हैं. बहुत से बाँस एक वर्ष में फूलते हैं. ऐसे बाँस भारत में नीलगिरि की पहाड़ियों में पाये जाते हैं. यदि फूल खिलने का समय ज्ञात हो तो काट-छाँट कर फूलने की प्रक्रिया को रोका जा सकता है.

बाँस के द्वारा कागज भी बनाया जाता है. यूनान और भारत में दवाईयाँ बनाने के लिये भी बाँस का प्रयोग किया जाता है.

फेंगशुई में बाँस का बहुत अधिक महत्व है इसे घरों में सौभाग्य सूचक माना जाता है. काँच के छोटे बर्तन में थोड़ा पानी भरकर, कुछ बाँस की कलमों को लाल रिबन से बाँधकर रखा जाता है. बर्तन में थोड़े से पत्थर भी डाले जाते हैं. इस तरह से फेंगशुई में इस गमले को लकड़ी(बाँस), पृथ्वी(पत्थर), जल, अग्नि(लाल रिबन), धातु(काँच का बर्तन) का प्रतीक माना जाता है.

















Tuesday, December 19, 2017


नफरत में भी वो हमसे प्यार करते हैं,
 सुबह-शाम नजर भर देख लेते हैं।

                                                             डॉ0 मंजूश्री गर्ग

मूर्ति और मूर्तिकार

डॉ0 मंजूश्री गर्ग



जिसको बनाया कल तुमने
वही आज तुमको बना रहा.
तुमने एक खिलौना बनाया,
वो बना रहा विशाल रूप.
तुम में ना वो लग्न देखी,
जो दीख रही लग्न उसमें.
तुमने उसे रूदन करते भेजा,
वो बना रहा सस्मित चेहरा.
उसे शक्तिहीन कर तुमने भेजा,
इसी से तुमसे माँग रहा शक्ति.
किन्तु उसने सब शक्ति समर्पित की तुमको
जिससे जग-जीव पूजते रहेंगे सदा तुमको.
तुम्हारा बनाया खिलौना कल मिट्टी होगा,
पर उसकी बनायी मूर्ति रहेगी युगों तक.
पर क्या हुआ, जो खिलौना बनाकर तुम हार गये,
उस खिलौने को मूर्तिकार बनाकर तुम ही तो जीते हो.

---------------------
------------













Sunday, December 17, 2017


परिवर्तन

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

जब तक पर्वत बन पाषाण खड़ा
तब तक हर लहर टकरा दूर भागती,
जो शीतल करने आती उसको.

जब तक अटल बन पाषाण खड़ा
तब तक हर पवन टकरा भागती
जो सुगंध लुटाने आती उसको.

किन्तु अचानक हुआ परिवर्तन
खण्डित कर अपने तन को
लहरों का साथ स्वीकार किया
स्थान-स्थान का विचरण किया.

हर क्षण शीतल बयार मिली
हर क्षण लहरों से करूणा मिली
दुःख-पाप सब धुल गये
गंगा-यमुना का संगम पाकर.


फिर किसी ने किया स्थापित
बनवाकर सुन्दर सा परकोटा.

जिसने कभी लहरों को किया अस्वीकार
वही अब स्नान करता प्रेम से.
जिसने कभी उनकी सुगंध भी न चाही
वही उन पुष्पों को करता स्वीकार.

रूप, रंग, वर्ण, विभा के साथ,
जिसने कभी अरूण आलोक और
चन्द्रालोक को किया अस्वीकार.
वही है लुटा रहा प्रकाश का दान.

शिव प्रतीक बन विश्व में
पूजनीय बन रहा जग में.


 -----------------------
-------------





Saturday, December 16, 2017


विरह देता जग को.........

धुआं सा उड़ता जाता बादल
साथ लिये विरह-व्यथा गगरी।
कभी गरजता, कभी बरसता,
पर ना कहीं चपला को पाता।
सिर पटक-पटक पृथ्वी पर,
है मिटा रहा अपने को।
पर ना व्यर्थ उसका मिटना,
जो हरित-शतदलों में है उगता।
मिट कर भी वह मिटता नहीं,
अमर कहानी कहता जग में।

उड़ती जाती चपला दिन-रात
मन लिये मिलन की प्यास।
कभी तड़पती, कभी चमकती,
पर ना कहीं बादल को पाती।
फेंक कर आह पृथ्वी पर,
मिटा रही अपने को।
पर व्यर्थ उसका मिटना,
जो बनती काल जीवों का।
मिटने को वह भी मिटती,
पर देती जग को रोदन।

हैं दोनों विरह-व्यथित,
पर है दोनों में अन्तर महान।
एक विरह देता जग को रोदन,
एक विरह है जग को वरदान।

           डॉ0 मंजूश्री गर्ग