Saturday, December 2, 2017



उर्वशी का प्रेम दर्शन

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

रामधारी सिंह दिनकर जी ने उर्वशी महाकाव्य में, उर्वशी और पुरूरवा की प्रेम-कथा के सुविख्यात पौराणिक आख्यान को अपने काव्य का विषय बनाया है किन्तु कुरूक्षेत्र के युधिष्ठर और भीष्म की तरह ही इस काव्य की उर्वशी और पुरूरवा भी पौराणिक नाम की कलगी मात्र धारण किये हुये हैं. यहाँ तो बीसवीं सदी के पुरूरवा और उर्वशी हैं. पौराणिक आख्यान ने दिनकर की उर्वशी के काव्य-रस को सुरक्षित रखने के लिये अंगूर के पतले छिलके का काम किया है. दिनकर जी ने स्वयं लिखा है- इस कथा को लेने में वैदिक आख्यान की पुनरावृत्ति अथवा वैदिक प्रसंग का प्रत्यावर्त्तन मेरा ध्येय नहीं रहा है. मेरी दृष्टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का.

दिनकर की उर्वशी कौन है, कैसी है इसे हम दिनकर के शब्दों में ही कह सकते हैं-कविताओं में हम जिस नारी का बखान सुनते हैं वह किसी की भी बेटी, बहन या भार्या नहीं होती. वह तो अनामिका, अशरीरी कल्पना की प्रतिमा है. जिसके अंग पर उम्रों के दाग नहीं लगते, जो स्पर्श से परे खड़ी हमारे सपनों पर राज करती है. चूँकि वह कोई नारी नहीं है इसीलिये वह सभी नारियों का प्रतिनिधित्व करती है.

दिनकर की उर्वशी निष्ठावान प्रेमिका है. एकाचारिणी है, अप्सरा होकर भी बसन्तसेना की भाँति असामान्या है, किसी एक के प्रति अर्पित है. दिनकर की उर्वशी में जगत और जीवन का स्पंदन अधिक है साथ ही अप्सराओं की स्वर्गीयता भी. वह विश्वप्रिया की प्रतीक होने के साथ ही एक व्यक्ति की प्रिया भी है, जो गर्भ धारण कर माँ बनती है. इस तरह वह सविशेष और निर्विशेष दोनों है. दिनकर की उर्वशी अध्यात्मबोध और जगद्बोध दोनों ही दृष्टियों से पूर्ण है. अतः उर्वशी के समक्ष पुरूष पुरूष रहता है, कामाध्यात्म को समझने वाला प्रेमी रहता है.

श्रृंगारिक वर्णनों के रहने पर भी उर्वशी अपने उदात्त विचारों के कारण सर्वोत्तम काव्य है. दिनकर जी ने अपनी प्रौढ़ अवस्था में श्रृंगार और प्रेम को अपने काव्य का विषय बनाया इसीलिये उर्वशी में किशोरवय की सहज बिछलन और ऐन्द्रियता का अतिरेक देखने को नहीं मिलता वरन् सांस्कृतिक स्तर बहुत उच्च कोटि का देखने को मिलता है. उर्वशी मे प्रेम को एक बोधात्मक विषय के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे भारतीय ढ़ंग के उन्नयन के सहारे वासना से दर्शन तक पहुँचाया है-

पहले प्रेम सेपर्श होता है,
तदन्तर चिन्तन भी.
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है,
तब वायव्य गगन भी।

इसालिये दिनकर की उर्वशी एक ओर अपार्थिव सौन्दर्य का पार्थिव संस्करण है तो दूसरी ओर पार्थिव सौन्दर्य का अपार्थिव उन्नयन भी- उन्नयन और सूक्ष्मीकरण भी.


दिनकर ने लिखा है- प्रेम का आरम्भ भौतिकता में और परिपाक अध्यात्म में है. प्रेम पहले फिजिक्स और तब मैटाफिजिक्स होता है. यह सूफियों की इश्क मजाजी और इश्क हकीकी के सन्दर्भ मे शारीरिक सोपान से आध्यात्मिक सोपान का आरोहण है. किन्तु, दिनकर के प्रेम दर्शन की विशेषता यह है कि इसमें तन का महत्व अन्त तक बना रहता है. नये सुभाषित में दिनकर जी ने लिखा है-

प्रेम की मादकता का भेद
छिपा रहता भीतर मन में
काम तब भी अपना मधुभेद
सदा अंकित करता तन में।

कारण, शरीर प्रेम की जन्मभूमि है और जैसे सब लोग जन्मभूमि से प्यार करते हं वैसे ही प्रेम को भी अपनी जन्मभूमि अन्य सभी भूमियों से अधिक पसन्द है.

इस तरह प्रेम के प्रति कवि का दृष्टिकोण केवल निरामिष नहीं है, प्रारम्भ में उसने मांसल भाव को स्वीकार किया है. वास्तव में प्रेम के क्षेत्र में प्रारम्भ में ही विदेह भाव धारण कर लेने से आगे चलकर उसके लड़खड़ा जाने का भय बना रहता है; कारण, अपरिचित वस्तु में एक दुर्निवार आकर्षण रहता है. अतः देह-सीमा से स्वानुभूतिमय परिचय कर लेने के बाद विदेह भाव धारण करना अधिक निरापद
और न्याय संगत होता है. सारांश यह है कि राग से परिचय पाने के बाद विराग धारण करना चाहिये- यही व्यक्ति का स्वाभाविक विकास है.

प्रेम की संवेदना का सम्बन्ध समूचे शरीर से है. यह प्रेम हम प्राणियों की एक जैव मानसिक ऊर्जा है, जो उचित आलम्बन के अभाव में प्रायः आत्मरति या सजातीय रति में परिवर्तित हो जाती है और जो किसी भी आध्यात्मिक प्रयास या कठोर बौद्धिक से एक बार उन्मूलित नहीं हो सकती है. यह शारीरिक प्रेम-भावना हमारे रक्त में तिलतैलवत् समायी हुई है. प्रेम सम्बन्धी इस अपरिहार्य जैव वास्तविकता को उर्वशी की इस उक्ति में अभिव्यक्त किया गया है-

रक्त बुद्धि से अधिक बली है और ज्ञानी भी,
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है।

प्रेम के मादक, तरंगित और उत्ताप संवेगों का मनुष्य के नाड़ी संस्थान, चेतना ग्रन्थियों, इन्द्रियों और रक्त चालन पर कैसा प्रभाव प़ड़ता है-इसके प्रति दिनकर जी बहुत सचेत दीख पड़ते हैं-

यह कैसी माधुरी? कौन लय स्वर में गूँज रहा है
त्वचा जाल पर, रक्त शिराओं में, अकूल अन्तर में?

दिनकर की उर्वशी में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ अर्पण की शारीरिक ऊष्मा से भरपूर भावों की अभिव्यक्ति इतनी शिल्पित है कि उस भोंडेपन का या शिथिलता का भान भी नहीं होता जो सूक्ष्मता के आकांक्षी छायावादी कवियों में कभी-कभी देखने को मिल जाता है. उदाहरण-

उफ री यह माधुरी! और ये अधर विकच फूलों से।
ये नवीन पाटल के दल आनन पर जब गिरते हैं,
रोम कूप, जाने, भर जाते किन पीयूष कणों से।

सामान्यतः पाश्चात्य विचारकों ने प्रेम के तीन स्वरूप माने हैं-

1.प्लेटोनिक लव-
प्लेटोनिक लव पूर्णतः निरामिष और दार्शनिक होता है. यह प्रेम प्रजननशील नहीं होता है और सजातीय या समयौन हो सकता है. प्लेटो का तो कहना था कि ऐसे प्रेम में प्रजनन कार्य नहीं, सांस्कृतिक कार्य हुआ करते हैं तथा इससे ज्ञान, सत्य और अध्यात्म की सिद्धि होती है.

2. रोमाण्टिक प्रेम-
रोमाण्टिक प्रेम की कुछ तात्विक विशेषतायें हैं-
क.  इसमें प्रेम का आलम्बन दुर्लभ रहता है, सुलभ या अलभ्य नहीं.
ख.  रोमाण्टिक प्रेम का आश्रय अपने आलम्बन के अमित मूल्यवान होने में अडिग विश्वास रखता है, जिससे आलम्बन की प्राप्ति के लिये अनेक मधुर प्रयास होते रहते हैं.  
ग.   रोमाण्टिक प्रेम में रूढ़ियों, परम्पराओं और बन्धनों के प्रति विद्रोह रहता है. वह बन्धनहीन होता है और रूढ़ियों और बन्धनों से टकराकर अधिकाधिक शक्ति तथा गति अर्जित करता है.जैसे- ऊबड़-खाबड़ चट्टानों के बीच में आ जाने से
नदी और वेग से बहने लगती है वैसे ही जब प्रिय-मिलन के सुख में बाधायें आती हैं तब प्रेम का वेग भी सौ गुना बढ़ जाता है.
घ.   रोमाण्टिक प्रेम के अस्तित्व के लिये अधिक रूढ़ियों, बन्धनों और बाधाओं का रहना आवश्यक है.
ङ.    रोमाण्टिक प्रेम में- आवेग, कल्पना और कोमलता- तीन तत्वों की स्थिति अनिवार्य है.
आवेग की अभिव्यक्ति –
उर्वशी का कथन-

यदि आज कान्त का अंक नहीं पाऊँगी
तो शरीर छोड़ पवन में निश्चय मिल जाऊँगी।

कल्पना और कोमलता की अभिव्यक्ति-
पुरूरवा का कथन-

एक पूर्ति में सिमट गई किस भाँति  सिद्धियाँ सारी?
कब था ज्ञात मुझे, इतनी सुन्दर होती हैं नारी?
 लाल-लाल वे चरण कमल से, कुंकुम से, जावक से,
तन की रक्तिम कांति शुद्ध, ज्यों धुली हुई पावक से.
x          x          x          x          x

                           पग पड़ते ही फूट पड़े विहम प्रवाल धूलों से
जहाँ खड़ी हो, वहीं व्योम भर जाये श्वेत फूलों से   

च.   प्रेम में आलम्बन को एक महान शोभावलय में ढँककर देखा जाता है तथा इसमें प्रेम के आलम्बन को भी इतना महिमामय रहना चाहिये कि वह आश्रय के समक्ष अपनी अद्धोन्मीलित रहस्यमयता का आद्यान्त निर्वाह कर सके. इसी आलम्बनगत रहस्यमयता के कारण उर्वशी के विषय में पुरूरवा की ऐसी धारणा है-

नहीं, उर्वशी नारी नहीं, आभा है निखिल भुवन की,
रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है सृष्टा के मन की।


जब रोमाण्टिक प्रेम में आलम्बन की दुर्लभता अधिक रहती है तब उसे जीवित रखने के लिये अतृप्त प्रेमी प्लेटोनिक दृष्टिकोण बना लेता है और वह मानने लगता है कि अव्यक्त प्रेम ही पवित्र होता है.

3. लव थ्रू पैरेण्टली च्वाइस-
संवेगात्मक मनोविज्ञान की दृष्टि से यह निकृष्ट होता है, कारण यह किसी
 पूर्वराग के बिना मात्र कर्तव्य रूप में दो व्यक्तियों के कन्धों पर विन्यस्त हो जाता है.

उर्वशी के प्रारम्भ का प्रेम-निरूपण रोमाण्टिक है और अन्तिम अंश का प्लेटोनिक.
उर्वशी में दिनकर जी ने नर-नारी प्रेम की जिस अशरीर आनन्द-लहर को प्रस्तुत किया है, उसमें कालिदास, फ्रायड और लॉरेन्स की प्रेम दृष्टियों को कुछ देर तक स्वीकार किया है. इसमें दिनकर जी ने अपनी मनीषा से भी काम लिया है और इस पर बार-बार बल दिया है कि प्रेम का जन्म काम में होता है किन्तु उसकी परिणति काम के अतिक्रमण में होनी चाहिये. कवि कहते हैं- रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है. और यही प्रेम सेक्स से भिन्न तथा ऊँचा सिद्ध होता है. सेक्स शरीर की तृष्णा है, प्रेम आत्मा की भूख है. अतः यह आवश्यक नहीं है कि सेक्स का आलम्बन ही प्रेम का आलम्बन हो अथवा प्रेम के आलम्बन तक ही सेक्स की भावना सीमित हो. यदि प्रेम र सेक्स का आलम्बन एक हो सके तो वह आदर्श स्थिति है, किन्तु इन दोनों में आलम्बनगत भेद होने पर विशेष आश्चर्य नहीं होना चाहिये, क्योंकि प्रेम इतना पवित्र और महान  है कि उस पर दैहिक स्खलनों के दाग नहीं पड़ते. दिनकर जी यह स्पष्ट रूप से मानते हैं कि सेक्स की अनुभूति में शारीरिक अनुभूति होती है किन्तु प्रेम की अनुभूति में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों अनुभूतियाँ समन्वित रहती हैं. विशेषकर आध्यात्मिक अनुभूतियाँ प्रेम में तभी संश्लिष्ट होती हैं जब प्रेम में शारीरिक अनुभूति का समावेश होने लगता है-

नहीं इतर इच्छाओं तक अनासक्ति सीमित है
उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है।

किन्तु प्रेम की इस आध्यात्मिक अनुभूति को सामान्य नर नहीं पा सकता. इसे पाने के लिये रूप के अतिक्रमण से उत्थित होने वाली एक विशिष्टता चाहिये, जिससे समन्वित नर को दिनकर जी ने कवि कहा है-

नर समेट रखता बाहों में स्थूल देह नारी की,
शोभा की आभा तरंग से कवि क्रीड़ा करता है।

इस प्रकार दिनकर ने यहाँ उस उज्जवल प्रेम का निरूपण किया है, जिसके सहारे मनुष्य रूप और इन्द्रियों से परे रहने वाले सौन्दर्य के दर्शन करता है तथा निरामिष सौन्दर्य चेतना को प्राप्त करता है. दिनकर जी के प्रेम-दर्शन की व्यवहारिकता इसमें है कि इन्होंने लौकिकता, ससीमता और शारीरिकता को ही उज्जवल प्रेम का आधार माना है-

देह प्रेम की जन्मभूमि है पर उसके विचरण की
सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रूधिर-त्वचा तक.

इस तरह देह से उत्पन्न होने वाले प्रेम को दिनकर जी ने रहस्य-चिन्तन तक पहुँचा दिया है. जैसे जल पंक से कमल उत्पन्न होता है वैसे ही शरीर से अशरीरी प्रेम उत्पन्न होता है. आगे कवि ने तन-अतिक्रमण को कई बार प्रयुक्त कर प्रेम को मनोमय लोक तक पहुँचा दिया है और नर-नारी के बीच रहने वाले यौन भेद को तिरोहित कर दिया है-

                                  वह निरभ्र, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में,
न तो पुरूष मैं पुरूष, न तुम नारी केवल नारी हो।
दोनों ही प्रतिमान किसी एक ही मूल सत्ता के
देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है।

इन्हीं पंक्तियों को पढ़कर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की यह सम्मति यथातथ्य जान पडती है कि, उर्वशी विश्व ब्रह्माण्डमयी मानस की नित्य-नवीन सौन्दर्य कल्पना के रूप में ऐसी निखरी है कि आश्चर्य होता है.-------उर्वशी विराट मानस की कालजयी कल्पना है--------- यह समाधिस्थ चित्त की रचना है------------समाधिस्थ चित्त जो विराट मानस से एकाकार हो गया था.

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि कवि प्रेम-दर्शन के निरूपण में विचार, संवेग तथा वृत्तियों के उर्ध्वगमन या उर्ध्वसंचरण का विश्वासी बन गया है तथा उसने फ्रायड के उन्नयन और अरविन्द दर्शन के उर्ध्वसंचरण का मौलिक समीकरण प्रस्तुत किया है. कुछ स्थलों पर उसने उज्जवल रस की विवृत्ति करने वाले रागानुरागा भक्ति के कवियों की तरह यहाँ तक कह दिया है-

चूमते हम अचेत हो जब असंज्ञ अधरों को
वह चुम्बन अदृश्य के चरणों पर तब चढ़ जाता है.

कवि की दृष्टि में एक स्तर पर इन्द्रिय-तर्पण भी महासुख का साधन बन गया है और कवि के महर्षि च्यवन ने भी अपनी तपःसाधना से यही निष्कर्ष निकाला है. चित्रलेखा कहती हैं-.
नारी को पर्याय बताकर तपःसिद्धि भूमा का
सचमुच, त्रिया-जाति को ऋषि ने अद्भुत मान दिया है।

यह ज्ञातव्य है कि साधन और माध्यम की दृष्टि से पुरूरवा और च्यवन एक-दूसरे के विलोम हैं. कारण, पुरूरवा भोग से योग तक पहुँचे हैं और च्यवन योग से भोग तक. पुरूरवा उर्वशी के माध्यम से उज्जवल रस और सहस्रार के प्रस्फुटन तक पहुँचे हैं, जबकि च्यवन ने तपोयोग के द्वारा हरि की प्रसन्नता के स्वरूप भूमा की पर्याय सुकन्या को प्राप्त किया है. इस तरह भोग और योग एक ही गन्तव्य पर पहुँचने वाले दो मार्ग हैं. अतः पुरूरवा का अन्तिम विकल्प कामाध्यात्म की ओर है-

अथवा अपने महाप्रेम के बलशाली पंखों पर
चढ़ असीम उड्डयन भरेगा मन के महागगन में,
जहाँ त्रिया कामिनी नहीं है, छाया है परम विभा की
जहाँ प्रेम कामना नहीं, प्रार्थना, निदिध्यासन है.

वास्तव में कवि ने नारी की सुषमा को तपस्या का प्रसाद बना दिया है. श्रृंगारिक वर्णनों के रहने पर भी उर्वशी अपने उदात्त विचारों के कारण एक सर्वोत्तम महाकाव्य है.




















2 comments:

  1. धन्यवाद!
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