उर्वशी की मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
मनोवैज्ञानिक
पृष्ठभूमि- उर्वशी कामाध्यात्म की कविता
उर्वशी को कामाध्यात्म की
कविता कहा गया है. प्रारम्भ में धर्म इतनी ही रोक लगाता है कि विवाहित
स्त्री-पुरूष किसी तीसरे से यौन समाबन्ध स्थापित न करें, किन्तु जब धर्म का
निवृत्तिवादी रूप प्रकट हुआ तब कामाचार दुराचार का पर्याय बन गया तथा यह माना जाने
लगा कि जब नर-नारी एक-दूसरे को जान लेते हैं तब वे ईश्वर के पास नहीं पहुँच पाते.
बौद्ध धर्म, जैन धर्म और ईसाई धर्म निवृत्ति मूलक हैं. काम पर नियंत्रण करने का
कार्य अत्यन्त दुरूह सिद्ध हुआ. हर युग में हर देश में धर्म और काम झगड़ते आये और
इससे यह हुआ कि काम की वायु से धर्म का दीपक बुझ गया.
आधुनित युग में विज्ञान के
अनुसंधानों के आलोक में काम की महिमा बढ़ी. कवि और चिंतक दर्शन के ऐसे स्रोत के
पास पहुँचने लगे जो काम के तटों से होकर बहता है. फ्रॉयड से पहले भी ऐसे धार्मिक
सम्प्रदाय हुये थे जो काम को त्याज्य नहीं मानते थे. सूफी मत, शाक्त मत,
तन्त्रवाद और वैष्णवों का सहज क्रिया सम्प्रदाय, सभी धर्मों की धारा
काम के तटों का स्पर्श करती है.
दिनकर जी की रश्मियाँ इसी
समुद्र से अपना मेघजल ले आयी हैं और पश्चिम से बहकर आने वाली लॉरेंस, आदि विचारकों
की नदी पर बरस सकी हैं. उर्वशी की दार्शनिक पीठिका की यही मनोवैज्ञानिक
पृष्ठभूमि है.
उर्वशी में शाक्त दृष्टि-
तन्त्रवाद के अनुसार सृष्टि
का उद्भव और विकास शिव और शक्ति के समागम से होता है. तान्त्रिकों की दृष्टि में
जो परमशिव है वही परम-शक्ति है. दोनों स्वरूपतः अभिन्न हैं, जिनमें लिंग-भेद नहीं
है. इसलिये वह अलिंग होकर भी सर्वलिंग रूप में प्रकाशित होता है. दिनकर जी के
पुरूरवा इसी दार्शनिक तथ्य की स्थापना करते हुये कहते हैं-
वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में,
न तो पुरूष मैं पुरूष, न तुम नारी केवल नारी हो,
दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूल सत्ता के,
देह बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है।
शाक्त धर्म में अपने वीर
कोटि के साधकों से कहा है कि तुम इस भाव से समागम करो कि प्रत्येक पुरूष में शिव और
प्रत्येक नारी में शिवा विद्यमान हैं. दिनकर जी यह मानते हैं कि चुम्बन और चिंतन
एक ही सत्य के सागर में पहुँचकर रीत जाने वाली दो नदियाँ हैं. त्वचा और रूधिर की
उष्णता को भोगते हुये वह ईश्वर तक पहुँच जाता है-
देवता एक है शयित कहीं इस मदिर शान्ति की छाया में,
आरोहण के सोपान लगे हैं त्वचा, रूधिर में, काया में.
परिरंभ-पाश में बँधे हुये उस अम्बर तक उठ जाओ रे!
देवता प्रेम का सोया है, चुम्बन से उसे जगाओ रे!
ल़ॉरेंस का प्रभाव-
लॉरेंस काम के जबरदस्त
समर्थक थे. उनकी आवाज हस्त-मैथुन की सभ्यता के विरोध में उठायी गयी आवाज थी.
लॉरेंस का कहना है कि सेक्स हमें उष्णता प्रदान करता है. दिनकर जी की उर्वशी लॉरेस
की भाषा में कहती है-
वह विद्युन्मय स्पर्श तिमिर है पाकर जिसे त्वचा की,
नींद टूट जाती है रोमों में दीपक बल उठते हैं.
दिनकर ने उर्वशी
महाकाव्य में, जब से पुरूरवा और
उर्वशी का मिलन हुआ है तब से पुरूरवा और औशीनरी का मिलन नहीं दिखाया है. प्रेम में
शरीर, मन और आत्मा तीनों धरातल पर नर-नारी एकाकार होते हैं. औशीनरी से पुरूरवा को
वह नहीं मिला था जो प्रेम देता है. इसीलिये उर्वशी को देखकर, उसे पाकर पुरूरवा सब कुछ
भूल जाते हैं.
लॉरेंस ने दिमागी सेक्स की
बड़ी निन्दा की है, दिनकर भी उर्वशी में सभी अनर्थों की जड़ मन को ही बताती
है. उर्वशी झुंझलाकर कहती है-
तन का काम अमृत लेकिन यह मन का काम गरल है.
कहीं-कहीं उर्वशी में कवि कुछ
ऐसी बातें कह गया है जो उसकी मौलिक हैं किन्तु लॉरेंस के विचारों से उसकी समता है.
यह समता ही है प्रभाव नहीं. लॉरेंस ने लिखा
है कि संसार की आधी महान्
कवितायें चित्र, संगीत और कहानियाँ यौन आकर्षण के कारण महान हैं. उर्वशी के
आत्म-परिचय में दिनकर भी इसी सत्य का अनावरण करते हैं-
भू नभ का संगीत-नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रिलोक विजय का है।
रूधिर सिद्धान्त-
लॉरेंस बड़ी आस्था से कहते
हैं रूधिर में विश्वास ही मेरा सबसे बड़ा धर्म है. रूधिर जो अनुभव करता है, जो
विश्वास करता है जो कहता है वह हमेशा सच ही होता है. दिनकर भी उतने ही विश्वास से
कहते हैं-
रक्त बुद्धि से अधिक बली है और ज्ञानी भी,
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है।
अन्यत्र भी कहते हैं-
पढ़ो रक्त की भाषा को, विश्वास करो इस लिपि का
यह भाषा यह लिपि मानस को कभी ना भरमायेगी।
दिनकर जी का लक्ष्य था कि मनुष्य
काम के विषय में स्पष्टता और ईमानदारी से सोचें ताकि काम के धर्म का बाधक समझने का
भ्रम टूट जाये.
उर्वशी महाकाव्य प्रेम की
अतीन्द्रियता का आख्यान है, कामाध्यात्म की कविता है. यह प्रेम केवल शारीरिक मिलन
ही नहीं है, यह शरीर धर्म के आगे के क्षितिज को भी छूता है.
No comments:
Post a Comment