Thursday, February 28, 2019




अस्तित्ववाद (Existentialism)

डॉ. मंजूश्री गर्ग

उन्नीसवीं शताब्दी में आधुनिक विज्ञान का विकास हुआ तथा अनेक सामाजिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया. जिसके फलस्वरूप मानव जीवन पर विज्ञान व सामाजिक सिद्धान्तों का व्यापक प्रभाव पड़ा और व्यक्ति की स्वतन्त्रता बाधित होने लगी. प्रतिक्रिया स्वरूप एक ऐसे जीवन दर्शन का विकास हुआ जो व्यक्ति की व्यैक्तिकता एवम् स्वतन्त्रता को सर्वाधिक महत्व प्रदान करता है. यह जीवन दर्शन अस्तित्वाद कहलाया.
अस्तित्वाद के मूल में तीन बातें हैं-
1.       मनुष्य की सृष्टि और संसार में उसके आगमन के पीछे मनुष्य का कोई प्रयोजन नहीं है.
2.       इस निरर्थक एवम् अनियोजित संसार में मनुष्य को अपनी मर्जी के बिना ही आना पड़ता है.
3.       इस चंचल सृष्टि में प्रक्षेपित कर दिये जाने के बाद स्वेच्छा से कर्म करना और अपने अस्तित्वाद को बनाये रखना व अर्थमय बनाये रखना मनुष्य का अपना दायित्व है.
वास्तव में अस्तित्वाद इस विचारधारा का विरोध करता है कि मानव का अस्तित्वाद सप्रयोजन व योजना बद्ध है. यह परम्परागत दार्शनिक मतवादो के विरूद्ध एक विद्रोह है जो विचारों अथवा पदार्थ जगत की तर्कसंगत व्याख्या करते हैं. अस्तित्वाद के मूल प्रवर्तक डेनिश विद्वान क्रीकेगार्ड(1813-1885) थे. सन् 1915 ई. के आस-पास क्रीकेगार्ड के ग्रन्थों का जर्मनी भाषा में हुआ और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अस्तित्वाद का प्रचलन हुआ. जर्मन और फ्राँस के अनेक विद्वानों व साहित्यकारों ने अस्तित्वाद को अपनाया, इनमें से प्रमुख हैं- जर्मनी के फ्रेडरिक नीश्ते, मार्टिन, हैडेगर, कार्ल जैस्पर्स और फ्राँस के ग्रेबियल मार्शल, जॉन पाल सार्त्र और अलबर्ट कामू.

अस्तित्वाद की अवधारणायें-

अस्तित्वादवादी विचारक व्यक्ति के अस्तित्वाद को अधिक महत्व देते हैं. परम्परावादी विचारकों के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का कारण विचार है जबकि अस्तित्वादवादी विचार को मनुष्य के चिन्तन का परिणाम मानते हैं अर्थात् पहले मनुष्य संसार में आया बाद में विचार आया. अतः व्यक्ति का अस्तित्वाद प्रमुख है. जॉन पाल सार्त्र के अनुसार मनुष्य अपने को जो बनाता है वह वही है, उसके अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं है------- मनुष्य सम्भावना है, भविष्योन्मुख है, मनुष्य का अतीत उसके निकट महत्वहीन है. अस्तित्वादवादी मनुष्य क्षणवादी है, वह प्रत्येक क्षण मूल्य बनाता है और यह कार्य बिना किसी बाहरी आधार के होता है.

सार्त्र मनुष्य की सामाजिकता एवम् सामाजिक उपयोगिता को स्वीकार करते हैं. मनुष्य मुल्यों का वरण करता है और अपने व्यक्तित्व को बनाता है और अपने इस वरण के लिये स्वयं उत्तरदायी होता है. इस प्रकार सार्त्र मनुष्य को उस स्वतंत्रता के प्रति सजग करते हैं जो स्वच्छंदता की सीमा का स्पर्श करने लगती है.

व्यक्तित्व की अतिशयता में हमको व्यक्ति के मन में छिपी हुई सामाजिकता भी दिखाई देती है. जैसे कि कवि अज्ञेय जी अपनी कविता नदी के द्वीप में इसी भाव की अभिव्यक्ति करते हैं कि वह समाज से दूर इसलिये रहना चाहते हैं कि कहीं उनका दूषित व्यक्तित्व सामाजिकता को, समाज की धारा को मलिन न कर दे-

किन्तु
हम हैं द्वीप
हम धारा नहीं हैं।
x     x     x     x
किंतु हम बहते नहीं हैं
क्योंकि बहना रेत होना है।
रेत बनकर हम सलिल को गंदा ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनायेंगे।

अस्तित्वादवादी के लिये अपना अस्तित्व, अपनी व्यैक्तिक स्वतन्त्रता एवम् निजी लक्ष्य का चुनाव जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही महत्वपूर्ण है दुःख, निराशा व वेदना का भोग. अस्तित्व-बोध का सिद्धान्त वस्तुतः दुःखवाद के सिद्धान्त पर निर्भर है. अस्तित्वादवादी के लिये अपने अस्तित्व का बोध, जीवन मूल्यों का ज्ञान, दुःख या त्रास की स्थिति में ही होता है.

अस्तित्वादवादी का मूलमंत्र है चयन की स्वतन्त्रता(मृत्यु का भी वरण). अस्तित्वादवादी के विचारानुसार प्रत्येक समाज-सुधारक का प्रयत्न किसी न किसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करके मानव की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को कम करना होता है. अन्य किसी व्यक्ति की महत्ता को स्वीकार करने का अर्थ होता है उसकी प्रभुता को स्वीकार करना और अपनी महत्ता को कम करना. स्वतंत्र व स्वछंदतापूर्वक मरण डर-डर कर जीवित रहने की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेयस्कर है. मृत्यु आकर हमें ग्रसित करे, इससे अच्छा है हम स्वयं मृत्यु का वरण करें.

अस्तित्वादवादी का विरोध ईश्वर से न होकर उसके नाम पर निर्मित आस्थाओं, नैतिक मूल्यों, धारणाओं, नीति-नियमों आदि से है.

साहित्य के स्वरूप के संदर्भ में सार्त्र केवल गद्य को ही स्वीकार करते हैं, जिस कलाकार के पास व्यक्त करने को विचार होते हैं वह केवल गद्य के माध्यम से ही अभिव्यक्ति दे सकता है. विधा कोई भी हो- नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आदि. गद्यात्मक कविता अस्तित्वाद को व्यक्त करने के लिये एक विशिष्ट काव्य विधा है. हिन्दी भाषा में अस्तित्वादवादी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं- अज्ञेय, मुक्तिबोध, अशोक वाजपेयी, कुँवर नारायण, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, भारत भूषण अग्रवाल, शांता सिन्हा, गिरिजाकुमार माथुर, आदि.


Wednesday, February 27, 2019




कवि विद्यापति गंगा मैय्या के बहुत बड़े भक्त थे. अन्त समय स्वयं गंगा मैय्या दस कोस चलकर कवि के पास तक आयीं थीं उस समय जो कवि ने रचना की प्रस्तुत है-

बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।
करनोरि बिलमओ विमल तरंगे।
पुनि दरसन होए पुनमति गंगे।।
एक अपराध होए छमब मोर जानी।
परमल माए पाए तुम पानी।।
कि करब जप-तप जोग-धेआने।
जनम कुतारथ एकहिं सनाने।।
भनई विद्यापति समदजों तोही।
अन्तकाल जनु बिसरह मोही।।

                       विद्यापति






एक समय ऐसा आता है कि व्यक्ति स्वयं अपनी चुप्पी तोड़ता है और उसका जीवन ऐसे ही निखर जाता है जैसे सीपी से मोती निकलें. इसी भाव की अभिव्यक्ति कवयित्री ने प्रस्तुत पंक्तियों में की है-
भीतर छिपे सन्नाटे
कब तक रहते खामोश
उम्रें तमाम होती रहीं
चुप्पी टूटी आया होश।
जुबां पाई खामोशियों ने
सावन की बूँदे बरसीं
सीपी में छिपी स्वाति-बूँद
अमूल्य मोती बन निकली।

                     वीना विज उदित

Tuesday, February 26, 2019



जय हिन्द!!  जय भारत!!

शत-शत नमन वीर जवानों!
शीश माँ का आज ऊँचा हुआ।
शहीद होकर नहीं, विजयी होकर
आये आज हैं वीर धरा के।
हौंसले दुश्मनों के पस्त करके
आये आज हैं वीर पवन के।

                                             डॉ. मंजूश्री गर्ग



Monday, February 25, 2019



तुम गर भूल गये होते हमें, तो शायद
तुम्हें भूलने की कोशिश भी होती कामयाब।

                          डॉ. मंजूश्री गर्ग




Sunday, February 24, 2019



न कोई फल, न कोई फूल, पत्ते भी सभी पीले
बड़ी तन्हाइयां हैं उम्र की अगली कतारों में।

                                     -भवानी शंकर

Saturday, February 23, 2019



अभी अपना चेहरा आँचल में छुपा लो तुम
ख्वाबों में मिले हो हमसे ये राज छुपा लो तुम।

                     डॉ. मंजूश्री गर्ग





कभी ओले, कभी बारिश,
कभी धनकती धूप।
रोमांच से भरा है,
फरवरी का मौसम।

                     डॉ. मंजूश्री गर्ग


Thursday, February 21, 2019



भीड़ में रहकर भी हम अकेले ही रहे,
क्योंकि तन्हाई में तुम साथ-साथ रहे।

                             डॉ. मंजूश्री गर्ग






हाइकु

डॉ. मंजूश्री गर्ग

गूँजी हवायें
झुरमुट की ओट
बोली कोयल.
1.

चढ हिंडोले
मुस्कायी लतायें
पा के सहारे.
2.

मनमोहक
कितने प्यारे रंग
शाम ढलते.
3.

शाम हुई है!
खिलेगी चांदनी
रात होने दो.
4.

नदी की धारा
सिंचित करे कूल
सहज बह.
5.

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Wednesday, February 20, 2019




हिन्दी के प्रसिद्ध समालोचक व साहित्यकार डॉ. नामवर सिंह जी के 19 फरवरी, 2019 के निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि-



Tuesday, February 19, 2019




जो रहीम औछो बढ़ै, तो अति ही इतराय।
प्यादे से फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाये।।

                                 रहीमदास





हाइकु

डॉ. मंजूश्री गर्ग


सुबह-शाम
प्रकृति-संग बीते
पल अमोल.
1.

मादक गंध
मधुमालती संग
महका मन.
2.
चिडियाँ जागीं
चहकी डाली सारी
हुआ सबेरा.
3.

पलाश-वन
दहके अंगारे से
फागुन-मास.
4.

फिर से खिले
गुडहल के फूल
उषा काल में.
5.

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Sunday, February 17, 2019




विश्वासों की चिड़िया डरती
घुट-घुट हर पल आहें भरती
कोई है ना सुनने वाला
एक अकेली जीती मरती
अपनेपन को-
लग गया
आज किसी का शाप

           श्याम अंकुर



Saturday, February 16, 2019




निंदा किसी की हम किसी से भूल कर भी न करें,
ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूल कर भी न करें,
हे प्रभु आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये----

सत्य बोलें, झूठ त्यागें, मेल आपस में करें,
दिव्य जीवन हो हमारा, यश तेरा गाया करें,
हे प्रभु आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये----

                          राम नरेश त्रिपाठी



Friday, February 15, 2019



जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूलकर वो दूसरों का मुँह तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।

                                                                           अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध





Thursday, February 14, 2019




श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला



डॉ. मंजूश्री गर्ग

जन्म-तिथि- 21 फरवरी, सन् 1897 ई.
पुण्य-तिथि- 15 अक्टूबर, सन् 1961 ई.

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला छायावाद के चार स्तम्भों में से एक हैं. आपका जन्म बसंत पंचमी के दिन मेदिनीपुर(बंगाल) में हुआ था. प्रारम्भ में आपको बांग्ला भाषा और अंग्रेजी भाषा ही आती थी. पत्नी के कहने पर आपने हिन्दी भाषा सीखी और हिन्दी के प्रख्यात कवि हुये. आपने संस्कृत भाषा का अध्ययन भी घर पर ही किया. आप पर रामकृष्ण परम हंस, स्वामी विवेकानन्द, श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर का विशेष प्रभाव पड़ा. जिसके कारण आपकी रचनाओं में आध्यात्मिकता व दार्शनिकता का पुट दिखाई देता है. आप मुक्त छंद के प्रवर्तक हैं. आपने हिन्दी की विविध विधाओं- उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आदि में लिखा लेकिन आपको विशेष प्रसिद्धि कवि के रूप में ही मिली. आपके द्वारा लिखित जूही की कली(1916) छायावाद युग की प्रारंभिक रचनाओं में से एक है जिसे सरस्वती पत्रिका के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने प्रकाशित करने से मना कर दिया था. आपने काव्य में भाव, भाषा, शैली, छन्द सम्बन्धी नये-नये प्रयोग किये.

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी ने जीवन पर्यन्त दैवीय, सामाजिक, साहित्यिक, आर्थिक संघर्षों को झेला लेकिन अपने लक्ष्य से कभी नहीं डिगे. आर्थिक कठिनाईयों के समय अनेक प्रकाशकों के यहाँ प्रूफ रीडर का काम किया. सन् 1918 ई. से सन् 1922 ई. तक महिषादल राज्य की सेवा की. सन् 1922 ई. से सन् 1923 ई. तक कलकत्ता में समन्वय का संपादन किया. सन् 1923 ई. में ही मतवाला के संपादक मंडल में शामिल हुये. आप लखनऊ से प्रकाशित सुधा पत्रिका से भी संबंधित रहे. बाद में इलाहाबाद में आकर रहे और स्वतन्त्र लेखन व अनुवाद कार्य किया.

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के प्रमुख काव्य-संग्रह हैं- अनामिका(2), परिमल, तुलसीदास, बेला, नये पत्ते, कुकुरमुत्ता, सांध्य काकली, आदि. आपके प्रमुख उपन्यास हैं- बिल्लेसुर बकरिहा, कुल्ली भाट, प्रभावती,आदि. आपके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं- लिली, सखी, चतुरी चमार, आदि. आपकी रचनाओं के उदाहरणों से आपके द्वारा अभिव्यक्त भावों की विविधता स्पष्ट होती है जैसे- प्रस्तुत पंक्तियाँ जूही की कली से उद्धृत हैं जो स्वछंदतावादी विचारधारा को दर्शाती हैं-

विजन-वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न
अमल कोमल तन तरूणी जूही की कली
दृग बंद किये, शिथिल पत्रांक में
बासन्ती निशा थी।

एक और उदाहरण है सरोज स्मृति से. हिन्दी काव्य का शायद प्रथम शोक गीत है जो किसी कवि ने अपनी पुत्री की मृत्यु पर लिखा है-

मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल
दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही.

ऐसे ही एक और कविता प्रगतिवादी विचारधारा को अभिव्यक्त करती है. इसमें कवि ने गुलाब को पूँजीपतियों का और कुकुरमुत्ता को सर्वहारावर्ग का प्रतीक बनाकर अपनी बात कही है-

अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबू, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट।
X         x          x          x
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊँचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने के चुगा मैं।


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