अस्तित्ववाद (Existentialism)
डॉ. मंजूश्री गर्ग
उन्नीसवीं शताब्दी में आधुनिक विज्ञान का विकास हुआ तथा
अनेक सामाजिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया. जिसके फलस्वरूप मानव जीवन पर
विज्ञान व सामाजिक सिद्धान्तों का व्यापक प्रभाव पड़ा और व्यक्ति की स्वतन्त्रता
बाधित होने लगी. प्रतिक्रिया स्वरूप एक ऐसे जीवन दर्शन का विकास हुआ जो व्यक्ति की
व्यैक्तिकता एवम् स्वतन्त्रता को सर्वाधिक महत्व प्रदान करता है. यह जीवन दर्शन
अस्तित्वाद कहलाया.
अस्तित्वाद के मूल में तीन बातें हैं-
1.
मनुष्य की सृष्टि और संसार
में उसके आगमन के पीछे मनुष्य का कोई प्रयोजन नहीं है.
2.
इस निरर्थक एवम् अनियोजित
संसार में मनुष्य को अपनी मर्जी के बिना ही आना पड़ता है.
3.
इस चंचल सृष्टि में
प्रक्षेपित कर दिये जाने के बाद स्वेच्छा से कर्म करना और अपने अस्तित्वाद को
बनाये रखना व अर्थमय बनाये रखना मनुष्य का अपना दायित्व है.
वास्तव में अस्तित्वाद इस
विचारधारा का विरोध करता है कि मानव का अस्तित्वाद सप्रयोजन व योजना बद्ध है. यह
परम्परागत दार्शनिक मतवादो के विरूद्ध एक विद्रोह है जो विचारों अथवा पदार्थ जगत
की तर्कसंगत व्याख्या करते हैं. अस्तित्वाद के मूल प्रवर्तक डेनिश विद्वान
क्रीकेगार्ड(1813-1885) थे. सन् 1915 ई. के आस-पास क्रीकेगार्ड के ग्रन्थों का
जर्मनी भाषा में हुआ और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अस्तित्वाद का प्रचलन हुआ. जर्मन
और फ्राँस के अनेक विद्वानों व साहित्यकारों ने अस्तित्वाद को अपनाया, इनमें से
प्रमुख हैं- जर्मनी के फ्रेडरिक नीश्ते, मार्टिन, हैडेगर, कार्ल जैस्पर्स और
फ्राँस के ग्रेबियल मार्शल, जॉन पाल सार्त्र और अलबर्ट कामू.
अस्तित्वाद की
अवधारणायें-
अस्तित्वादवादी विचारक
व्यक्ति के अस्तित्वाद को अधिक महत्व देते हैं. परम्परावादी विचारकों के अनुसार
सृष्टि की उत्पत्ति का कारण विचार है जबकि अस्तित्वादवादी विचार को मनुष्य के
चिन्तन का परिणाम मानते हैं अर्थात् पहले मनुष्य संसार में आया बाद में विचार आया.
अतः व्यक्ति का अस्तित्वाद प्रमुख है. जॉन पाल सार्त्र के अनुसार मनुष्य
अपने को जो बनाता है वह वही है, उसके अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं है------- मनुष्य
सम्भावना है, भविष्योन्मुख है, मनुष्य का अतीत उसके निकट महत्वहीन है. अस्तित्वादवादी
मनुष्य क्षणवादी है, वह प्रत्येक क्षण मूल्य बनाता है और यह कार्य बिना किसी बाहरी
आधार के होता है.
सार्त्र मनुष्य की
सामाजिकता एवम् सामाजिक उपयोगिता को स्वीकार करते हैं. मनुष्य मुल्यों का वरण करता
है और अपने व्यक्तित्व को बनाता है और अपने इस वरण के लिये स्वयं उत्तरदायी होता
है. इस प्रकार सार्त्र मनुष्य को उस स्वतंत्रता के प्रति सजग करते हैं जो
स्वच्छंदता की सीमा का स्पर्श करने लगती है.
व्यक्तित्व की अतिशयता में
हमको व्यक्ति के मन में छिपी हुई सामाजिकता भी दिखाई देती है. जैसे कि कवि अज्ञेय
जी अपनी कविता नदी के द्वीप में इसी भाव की अभिव्यक्ति करते हैं कि वह समाज
से दूर इसलिये रहना चाहते हैं कि कहीं उनका दूषित व्यक्तित्व सामाजिकता को, समाज
की धारा को मलिन न कर दे-
किन्तु
हम हैं द्वीप
हम धारा नहीं हैं।
x x x
x
किंतु हम बहते नहीं
हैं
क्योंकि बहना रेत
होना है।
रेत बनकर हम सलिल को
गंदा ही करेंगे।
अनुपयोगी ही
बनायेंगे।
अस्तित्वादवादी के लिये
अपना अस्तित्व, अपनी व्यैक्तिक स्वतन्त्रता एवम् निजी लक्ष्य का चुनाव जितना
महत्वपूर्ण होता है उतना ही महत्वपूर्ण है दुःख, निराशा व वेदना का भोग.
अस्तित्व-बोध का सिद्धान्त वस्तुतः दुःखवाद के सिद्धान्त पर निर्भर है. अस्तित्वादवादी
के लिये अपने अस्तित्व का बोध, जीवन मूल्यों का ज्ञान, दुःख या त्रास की स्थिति
में ही होता है.
अस्तित्वादवादी का मूलमंत्र
है चयन की स्वतन्त्रता(मृत्यु का भी वरण). अस्तित्वादवादी के विचारानुसार
प्रत्येक समाज-सुधारक का प्रयत्न किसी न किसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करके मानव की
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को कम करना होता है. अन्य किसी व्यक्ति की महत्ता को
स्वीकार करने का अर्थ होता है उसकी प्रभुता को स्वीकार करना और अपनी महत्ता को कम
करना. स्वतंत्र व स्वछंदतापूर्वक मरण डर-डर कर जीवित रहने की अपेक्षा कहीं अधिक
श्रेयस्कर है. मृत्यु आकर हमें ग्रसित करे, इससे अच्छा है हम स्वयं मृत्यु का वरण
करें.
अस्तित्वादवादी का विरोध
ईश्वर से न होकर उसके नाम पर निर्मित आस्थाओं, नैतिक मूल्यों, धारणाओं,
नीति-नियमों आदि से है.
साहित्य के स्वरूप के
संदर्भ में सार्त्र केवल गद्य को ही स्वीकार करते हैं, जिस कलाकार के पास
व्यक्त करने को विचार होते हैं वह केवल गद्य के माध्यम से ही अभिव्यक्ति दे सकता
है. विधा कोई भी हो- नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आदि. गद्यात्मक कविता
अस्तित्वाद को व्यक्त करने के लिये एक विशिष्ट काव्य विधा है. हिन्दी भाषा में अस्तित्वादवादी
कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं- अज्ञेय, मुक्तिबोध, अशोक वाजपेयी, कुँवर नारायण,
धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, भारत भूषण अग्रवाल, शांता सिन्हा, गिरिजाकुमार माथुर,
आदि.
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ReplyDeleteएक तरफ तो यह मान कर चला जा रहा कि मनुष्य स्वतंत्र है, परंतु साथ ही साथ उससे उम्मीद किया जा रहा है कि उसे दायित्व का बोध भी होना चाहिए, तो यह दायित्व उसकी स्वतंत्रता को सीमित नहीं करता?
ReplyDeleteमनुष्य स्वतंत्र अवश्य है लेकिन बिना किसी अन्य मनुष्य की स्वतंत्रता में बाधक हुये.
Deleteयही उसका दायित्व बोध है.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 12 सितम्बर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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