Thursday, May 2, 2024

चिलगोचा


 डॉ. मंजूश्री गर्ग

 

चिलगोजा चीड़ या सनोबर जाति के पेड़ों का छोटा, लंबोतरा फल है. चिलगोजे के पेड़ समुद्र से 2000 फुट की ऊँचाई वाले पहाड़ी इलाकों में होते हैं. इसमें चीड़ की तरह लक्कड़नुमा फल लगते हैं. यह बहुत कड़ा होता है. मार्च, अप्रैल में आकार लेकर सितम्बर, अक्टूबर तक पक जाता है. यह बेहद कड़ा होता है. इसे तोड़कर गिरियाँ बाहर निकाली जाती हैं. ये गिरियाँ भी मजबूत भूरे आवरण से ढ़की होती हैं. जिसे दाँत से काटकर हटाया जाता है. अंदर मुलायम नरम तेलयुक्त सफेद गिरी होती है. यह बहुत स्वादिष्ट होती है और मेवों में गिनी जाती है.

 


Wednesday, May 1, 2024


गोल मिर्च


                                                                     डॉ. मंजूश्री गर्ग


    गोल मिर्च सिर्फ काली मिर्च नहीं होती, जिसे हम गरम मसाले में प्रयोग करते हैं. गुलाबी मिर्च भी गोल होती है और काली मिर्च को भी अलग-अलग तरीकों से तोड़कर व सुखाकर अलग-अलग रंग(सफेद, हरी व काली) की तैय्यार की जाती हैं.

जैसे-

 

काली मिर्च-

अधपकी अवस्था में तोड़ी जाती है और काला रंग होने तक धूप में सुखाया जाता है.

 

हरी मिर्च-

कच्ची अवस्था में ही तोड़ ली जाती है और धूप में सुखाया जाता है.

 

सफेद मिर्च-

पकने के बाद ही तोड़ा जाता है, नमकीन पानी में भिगोया जाता है, ताकि छिलका हट जाये. सफेद मिर्च को दक्खिनी मिर्च भी कहते हैं, यह आँखों के लिये बहुत लाभकारी होती है.

 

गुलाबी मिर्च-

गुलाबी मिर्च सरसों की प्रजाति से जुड़ी होती है, पकने के बाद तोड़ी जाती है और धूप में सुखाई जाती है.

 

 

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Tuesday, April 30, 2024

कदंब


डॉ. मंजूश्री गर्ग


 

सूरज ने रंग दी पंखुरियां

शीत पवन ने भेजी गंध,

पात-पात में बजी बाँसुरी

दिशा-दिशा झरता मकरंद।

 

सावन के भीगे संदेशे

लेकर आया फूल कदंब।

                        - शशि पाधा

 

कदंब भारतीय उपमहाद्वीप में उगने वाला शोभाकार वृक्ष है. सुगंधित फूलों से युक्त बारहों महीने हरे, तेजी से बढ़ने वाले इस विशाल वृक्ष की छाया शीतल होती है. इसके पेड़ की अधिकतम ऊँचाई 45 मी. तक हो सकती है. पत्तियों की लंबाई 13 से 23 से. मी. होती है. अपने स्वाभाविक रूप में चिकनी, चमकदार, मोटी और उभरी नसों वाली होती हैं, जिनसे गोंद निकलता है.

चार-पाँच वर्ष का होने पर कदंब में फूल आने शुरू हो जाते हैं. कदंब के फूल लाल, गुलाबी, पीले और नारंगी रंगों के होते हैं. अन्य फूलों से भिन्न कदंब के फूल गेंद की तरह गोल लगभग 55 से. मी. व्यास के होते हैं, जिनमें उभयलिंगी पुंकेसर कोमल शर की भाँति बाहर की ओर निकले होते हैं. ये गुच्छों में खिलते हैं

 

इसीलिये इसके फल भी छोटे गूदेदार गुच्छों में होते हैं, जिनमें से हर एक में चार संपुट होते हैं. इसमें खड़ी और आड़ी पंक्तियों में लगभग 8000 बीज होते हैं. पकने पर ये फट जाते हैं और इनके बीज हवा या पानी से दूर-दूर तक बिखर जाते हैं. कदंब के फल और फूल पशुओं के लिये भोजन के काम आते हैं. इसकी पत्तियाँ भी गाय के लिये पौष्टिक भोजन समझी जाती हैं. इसका सुगंधित नारंगी फूल हर प्रकार के पराग एकत्रित करने वाले कीटों को आकर्षित करता है जिसमें अनेक भौंरे मधुमक्खियाँ तथा अन्यकीट शामिल हैं.

श्याम ढ़ाक आदि कुछ स्थानों में ऐसी जाति के कदंब पाये जाते हैं, जिनमें प्राकृतिक रूप से दोनों की तरह मुड़े हुये पत्ते निकलते हैं. कदंब का तना 100 से.मी. 160 से.मी. व्यास का होता है।

पुराना होने पर धारियाँ टूट कर चकत्तों जैसी बन जाती हैं. कदंब की लकड़ी सफेद से हल्की पीली होती है. इसका घनत्व 290 से 560 क्यूबिक प्रति मीटर और नमी लगभग 15 प्रतिशत होती है. लकड़ी के रेशे सीधे होते हैं यह छूने में चिकनी होती है और इसमें कोई गंध नहीं होती. लकड़ी का स्वभाव नर्म होता है इसलिये औजार और मशीनों से आसानी से कट जाती है. यह आसानी से सूख जाती है और इसको खुले टैंकों या प्रेशर वैक्यूम द्वारा आसानी से संरक्षित किया जा सकता है. इसका भंडारण भी लंबे समय तक किया जा सकता है. इस लकड़ी का प्रयोग प्लाइवुड के मकान, लुगदी और कागज, बक्से, क्रेट, नाव और फर्नीचर बनाने के काम आती है. कदंब के पेड़ से बहुत ही उम्दा किस्म का चमकदार कागज बनता है. इसकी लकड़ी को राल या रेजिन से मजबूत किया जाता है. कदंब की जड़ों से एक पीला रंग भी प्राप्त किया जाता है.

जंगलों को फिर से हरा-भरा करने, मिट्टी को उपजाऊ बनाने और सड़कों की शोभा बढ़ाने में कदंब महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह तेजी से बढ़ता है और छः से आठ वर्षों में अपने पूरे आकार में आ जाता है. इसलिये जल्दी ही बहुत-सी जगह को हरा-भरा कर देता है. विशालकाय होने के कारण यह ढ़ेर सी पत्तियाँ झाड़ता है जो जमीन के साथ मिलकर उसे उपजाऊ बनाती है. सजावटी फूलों के लिये इसका व्यवसायिक उपयोग होता है साथ ही इसके फूलो का प्रयोग एक विशेष प्रकार के इत्र को बनाने में भी किया जाता है. भारत में बनने वाला यह इत्र कदंब की सुगंध को चंदन में मिलाकर वाष्पीकरण पद्धति द्वारा बनाया जाता है. ग्रामीण अंचलों में इसका उपयोग खटाई के लिये होता है. इसके बीजों से निकला तेल खाने और दीपक जलाने के काम आता है.

इस प्रकार कदंब का वृक्ष प्रकृति और पर्यावरण को तो संरक्षण देता ही है, औषधि और सौन्दर्य का भी महत्तवपूर्ण स्रोत है.

 

 

 

Monday, April 29, 2024

 


शिरिष के फूल


डॉ. मंजूश्री गर्ग

 

 रंग बिखेरे, जग निखरे, जब खिले प्यारे शिरिष।

गाँव तक चलकर शहर, जब देखने पहुँचे शिरिष।।

 

                                  कल्पना रमानी

 

सूखे बीज बजे झाँझर से

लम्बी-लम्बी फलियों में।

सघन छाँव और भाव अनूठे

भरता शिरिष नित कलियों में।।

 

                                ऋता शेखर मधु

शिरिष तीव्र गति से बढ़ने वाला मध्यम आकार का सघन छायादार वृक्ष है. इसकी टहनियाँ चारों ओर फैली रहती हैं. शिरिष का वृक्ष भारत के गर्म प्रदेशों में 8000 फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है. शिरिष के वृक्ष तीन प्रकार के होते हैं- 1.लाल शिरिष, 2.पीला शिरिष, 3.सफेद शिरिष.

 

शिरिष के वृक्ष का तना भूरे रंग का कटा-फटा होता है, इसके अंदर की छाल लाल, कड़ी, खुरदुरी और मध्य में सफेद होती है जिसमें सैपोनिन, टैनिन नाम के रालीय तत्व पाये जाते हैं. इसीलिये इसकी छाल से उत्पन्न होने वाले लाल एवम् भूरे रंग के चिपचिपे पदार्थ को अरबी गोंद के स्थान पर प्रयोग किया जाता है.

 

शिरिष के वृक्ष के पत्ते एक से लेकर ड़ेढ़ इंच तक लम्बे, इमली के पत्ते जैसे, लेकिन आकार में कुछ बड़े होते हैं. बसंत के आगमन के साथ ही शिरिष के वृक्ष पर कोमल, कमनीय, भीनी-भीनी सुगंध वाले पीले, लाल व सफेद फूल खिलने लगते हैं. फूल जितने कोमल होते हैं, बीज उतने ही कठोर होते हैं. शीत ऋतु में 4 से 12 इंच तक लंबी, चपटी, पतली एवम् भूरे रंग की फलियाँ बन जाती हैं, जिनमें सामान्यतः 6 से 22 सख्त बीज होते हैं. शीत ऋतु में पत्तियों के झड़ने के साथ ही ये फलियाँ सूखकर करारी हो जाती हैं. हवा से उत्तेजित फलियों के खड़खड़ाने से उत्पन्न हुई आवाज के कारण अंग्रेजी में इसे सिजलिंग ट्री या फ्राई वुड ट्री भी कहा जाता है.

 

शिरिष के वृक्ष की जड़ धरती की ऊपरी सतह पर फैलती है जिसके कारण अन्य पेड़-पौधे नहीं पनप पाते, किन्तु कॉफी और चाय के पौधों के लिये इसकी घनी छाया अत्यन्त लाभकारी है. इसकी जड़ें मिट्टी संरक्षण के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं.

वनस्पति जगत के वैज्ञानिकों ने सुप्रसिद्ध इटालियन वैज्ञानिक अल्बीजी के सम्मान में शिरिष को अल्बीजिया  लेबेक का नाम दिया है.

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Sunday, April 28, 2024

 हारसिंगार


डॉ. मंजूश्री गर्ग

हारसिंगार को शैफाली और पारिजात नाम से भी जाना जाता है. समुद्र-मंथन के समय चौदह रत्नों में से एक पारिजात वृक्ष था, जिसे देवताओं को दिया गया. देवताओं के राजा इन्द्र ने पारिजात वृक्ष को स्वर्ग के नंदनवन में लगा दिया. द्वापर युग में रानी सत्यभामा के कहने पर श्री कृष्ण हारसिंगार वृक्ष को पृथ्वी पर लाये.

       हारसिंगार का वृक्ष शंकुकार होता है और लम्बाई दस से बारह फुट तक होती है, फैलाव आम के वृक्ष के जैसे होता है. इसकी पत्तियाँ भी शंकुकार और खुरदुरी होती हैं. पत्तियों की लम्बाई तीन से चार इंच और चौड़ाई दो से तीन इंच तक होती है. अगस्त-सितम्बर के महीने में हारसिंगार में कलियाँ आनी शुरू हो जाती हैं. ये कलियाँ शाम के समय खिलनी शुरू होती हैं और आसपास का सारा वातावरण सुगंध से सरोबार हो जाता है. हारसिंगार का फूल सुगंध के साथ-साथ देखने में भी बहुत सुंदर लगता है-सफेद पंखुरियाँ और नारंगी डंडी. सुबह होते-होते फूल झरने लगते हैं. पेड़ के नीचे देखो तो फूलों का कालीन बिछा मिलता है. हारसिंगार के फूल चाहिये तो पेड़ के नीचे आँचल फैलाकर खड़े हो जाओ. आपका आँचल महकते रंग-बिरंगे फूलों से भर जायेगा. हारसिंगार के फूलों की डंडी से प्राकृतिक नारंगी रंग बनता है. हारसिंगार के फल चपटे होते हैं, जिनके अन्दर बीज होता है.

 

बरसात के मौसम में हारसिंगार के बड़े वृक्ष के नीचे अनगिनत छोटे पौधे उग आते हैं, उन्हें कहीं अन्यत्र रोप देने पर यही पौध चार-पाँच साल में बड़ा वृक्ष बन जाता है जिस पर फूल आने शुरू हो जाते हैं।

 

 

 

 

      




Saturday, April 27, 2024


       देवदार

डॉ. मंजूश्री गर्ग

 

देवदार पर्वतीय श्रृंखलाओं में पाया जाने वाला कॉनिफर(शंकु) जाति का बहुत ही सुंदर व मजबूत वृक्ष है. देवदार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है देव(देवता) और दारू(लकड़ी). देवदार का स्थानीय नाम सीडरस  दियोदारा है. स्थानीय भाषा में इसे दियार, केलो भी कहा जाता है. भारत में गढ़वाल, कुमाऊं, असम, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश में देवदार के घने जंगल हैं.

देवदार की पत्तियाँ पतली, नुकीली व चमकदार होती हैं, वो सदा हरी रहती हैं. इनकी आयु दो-तीन साल होती है. शंकु जाति का होने के कारण शीर्ष पर शंकु के आकार का ही होता है किंतु कभी-कभी बर्फ गिरने से या तेज हवा के चलने से चपटा हो जाता है. पूर्ण वृक्ष की लम्बाई प्रायः 40(चालीस)मी. से 60(साठ)मी. तक होती है और वृक्ष की मोटाई 4मी. से 6मी. तक होती है. वृक्ष की छाल पतली हरी होती है जो धीरे-धीरे गहरी भूरी हो जाती है. वृक्ष के तने की (Horizontal) काट देखने पर बहुत ही सुंदर लगती है, इस पर पेंटिंग्स भी बनाई जाती हैं. वातावरण अनुकूल होने पर बड़े वृक्षों के नीचे नये पौधे निकल आते हैं.

मान्यता है कि जब प्रलय के समय सारी सृष्टि जलमग्न हो गयी थी तब भी दो-चार देवदार के वृक्ष बचे हुये थे. जैसा कि जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में भी लिखा है-

उसी तपस्वी से लंबे थे

देवदारू दो चार खड़े।

हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर

बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

 

 

 

 

 

 

 

  

Friday, April 26, 2024


जहाँ तुम्हारे चरण पड़ें, है वहीं मेरा सुखधाम।

तुम कृष्ण रूप में आओ या आओ बन राम।।

हाथ तुम्हारे सजे बाँसुरिया या सजे धनुष-बाण।

बाल रूप में आओ तुम या आओ बन युवा।।

राधा साथ आओ तुम या आओ साथ सीता।

जहाँ तुम्हारे चरण पड़ें, है वहीं मेरा सुखधाम।

 

            डॉ. मंजूश्री गर्ग