Friday, June 29, 2018


मानिनी!  चाहे  रूठी  रहो, रहो  साथ ही।
रूठने का हक है तुम्हें, तो मनाने का हमें भी।

              डॉ0 मंजूश्री गर्ग







बादल मनाने को
कोई नहीं गाता
अब बादल राग।
आवारा हुए बादल
जहाँ मर्जी वहाँ
बरसते हैं बादल।
भिगो दें सारी
धरा का आँचल
ऐसा अनुशासन
अब बादलों में नहीं।

   डॉ0 मंजूश्री गर्ग

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Thursday, June 28, 2018


बरसते मेघ-दल से कहिये,
पिघलते हिम-खंड से कहिये।
कहनी है बात दूर तलक तो,
बहती हुई पवन से कहिये।।


    डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Tuesday, June 26, 2018



बाबू श्याम सुंदर दास

डॉ0 मंजूश्री गर्ग


जन्म-तिथि- सन् 1875 ई0
पुण्य-तिथि- सन् 1945 ई0

बाबू श्याम सुंदर दास हिन्दी भाषा के अनन्य साधक, विद्वान, आलोचक व शिक्षाविद् थे. उन्होंने अपना सारा जीवन हिन्दी सेवा को समर्पित किया. विद्यार्थी जीवन में ही उन्हें यह आभास हुआ कि हिन्दी में पाठ्य पुस्तकों का, पाठ्य साम्रगी का अभाव है. इसके लिये बाबू श्याम सुंदर दास ने अपने मित्रों के साथ मिलकर सन् 1893 ई0 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की और सम्पूर्ण भारतवर्ष से हिन्दी की प्रकाशित, अप्रकाशित पुस्तकें एकत्र कीं. निरंतर पचास वर्षों से भी अधिक हिन्दी साहित्य की सेवा करते रहे. हिन्दी कोश, हिन्दी साहित्य का इतिहास, भाषा-विज्ञान, साहित्यालोचन, सम्पादित ग्रंथों का निर्माण स्वयं भी किया और अन्य हिन्दी प्रेमी साहित्यकारों को अपने साथ साहित्य की सेवा के लिये प्रोत्साहित किया. विश्व विद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई के लिये पाठ्य पुस्तकें तैय्यार करीं.

बाबू श्याम सुंदर दास सन् 1895-96 ई0 में नागरी प्रचारिणी पत्रिका के संपादक बने. सन् 1899 ई0 से सन् 1902 ई0 तक सरस्वती पत्रिका के भी संपादक रहे. सन् 1921 ई0 में काशी हिंदू विश्व विद्यालय में हिन्दी विभाग खुल जाने पर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष बने. बाबू श्याम सुंदर दास ने अध्यक्ष पद पर रहते हुये पाठ्यक्रम के निर्धारण से लेकर हिन्दी भाषा और साहित्य की विश्वविद्यालयस्तरीय पुस्तकों का संपादन किया व पुस्तकों का निर्माण कराया. शिक्षा के मार्ग की अनेक बाधाओं को हटाया और जीवन पर्यन्त हिन्दी विभाग का कुशल संचालन व संवर्धन करते रहे.

बाबू श्याम सुंदर दास हिन्दी शब्द सागर के प्रधान संपादक थे. यह विशाल शब्द कोश इनके अप्रतिम बुद्धिबल और कार्यक्षमता का प्रमाण है. सन् 1907 ई0 से सन् 1929 ई0 तक अत्यंत निष्ठा से इसका संपादन और कार्यसंचालन किया. हिन्दी शब्द सागर के प्रकाशन के अवसर पर इनकी सेवाओं को मान्यता देने के निमित्त कोशोत्सव स्मारक संग्रह के रूप में इन्हें अभिनंदन ग्रंथ अर्पित किया गया.

हिन्दी सेवाओं से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने बाबू श्याम सुंदर दास को रायबहादुर की उपाधि से सम्मानित किया. बाबू श्याम सुंदर दास को हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने साहित्यवाचस्पति और काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने डी0 लिट्0 की उपाधि से सम्मानित किया. मैथिलीशरण गुप्त ने बाबू श्याम सुंदर दास के सम्मान में कहा है-
मातृभाषा के हुए जो विगत वर्ष पचास।
नाम उनका एक ही श्याम सुंदर दास।।

डॉ0 राधा कृष्णन् ने कहा है-
बाबू श्याम सुंदर दास अपनी विद्वता का वह आदर्श छोड़ गये हैं जो हिन्दी के विद्वानों की वर्तमान पीढ़ी को उन्नति करने की प्रेरणा देता रहेगा.












Monday, June 25, 2018


गीत

गीत बदली के समान अनायास बरसकर भाव विशेष की रिमझिम से हमारे मन को भिगो जाते हैं.

       डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Sunday, June 24, 2018




रिमझिम-रिमझिम सावन जैसा,
पल-पल बरसता प्यार तुम्हारा।
अन्तरतम तक जो भिगो दे,
ऐसा मधुरिम प्यार तुम्हारा।

         डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Saturday, June 23, 2018



ठंड़ी-ठंड़ी छाँव ही नहीं जिंदगी,
तपती धूप में चलना भी है।
हरी-भरी हो, दुल्हन लगती धरती
पर, सूखे की मार भी सहनी पड़ती कभी-कभी।

           डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, June 22, 2018


विनाश का खेल ये कैसा मानव ने रचा है,
स्वयं को दाँव पे लगा मानव-बम रचा है।

                                           डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Thursday, June 21, 2018



तुम दिखते कहीं नहीं, पर शामिल हो जिंदगी में।
जैसे  हवाओं  में  हो  शामिल  खुशबुयें।।

                                     डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Wednesday, June 20, 2018



भारत-रत्न
राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन

डॉ0 मंजूश्री गर्ग


जन्म-तिथि-1अगस्त, सन् 1882 ई0, इलाहाबाद(उ0प्र0)
पुण्य-तिथि-1जुलाई, सन् 1962 ई0

राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन अत्यंत मेधावी व बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. वह एक स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता, साहित्यकार व समाज सुधारक थे. राजनीति में प्रवेश उनका हिंदी प्रेम के कारण ही हुआ था. वे हिन्दी को स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये साधन मानते थे. स्वतन्त्रता प्राप्ति उनका साध्य था. उन्होंने स्वयं कहा है, यदि हिन्दी भारतीय स्वतन्त्रता के आड़े आयेगी तो मैं स्वयं उसका गला घोंट दूँगा. वे हिन्दी को देश की आजादी से पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी बनाये रखने का.

10 अक्टूबर, सन् 1910 ई0 को काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन हुआ तभी राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन इसके मंत्री बने और वह हमेशा हिन्दी के उत्कर्ष के लिये कार्य करते रहे. टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिये हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की. इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी भाषा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था.

हिन्दी को राष्ट्र भाषा और वन्देमातरम् को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिये राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन ने अपने सहयोगियों के साथ एक अभियान चलाया और करोड़ों देशवासियों के हस्ताक्षर व समर्थन पत्र एकत्र किये. सन् 1949 ई0 के संविधान सभा में टण्डन जी के ही प्रयास से हिन्दी राष्ट्र भाषा के पद पर आसीन हुई और देवनागरी लिपि राजलिपि बनी. वन्देमातरम्  को राष्ट्रगीत घोषित किया गया.

साहित्यकार के रूप में राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन ने निबंध, लेख व कवितायें भी लिखी हैं. अंग्रेजी शासन के विरूद्ध अपने विचार टंडन जी ने प्रस्तुत पंक्तियों में अभिव्यक्त किये हैं-

एक-एक के गुण नहिं देखें, ज्ञानवान का नहिं आदर
लड़ै कटै धन पृथ्वी छीनैं, जीव सतावैं लेवैं कर।
भई दशा भारत की कैसी, चहूँ ओर विपदा फैली,
तिमिर आन घोर है छाया, स्वारथ साधन की शैली।
                          
राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन के बहुआयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें राजर्षिकी उपाधि से विभूषित किया गया. 15 अप्रैल, 1948 ई0 की सांध्यबेला में सरयूतट पर महन्त देवरहा बाबा ने वैदिक मंत्रोच्चार के साथ  पुरूषोत्तम दास टंडन को राजर्षि की उपाधि से अलंकृत किया. ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य ने इसे शास्त्र सम्मत माना. राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन को सन् 1961 ई0 में भारत के सर्वोच्च राजकीय सम्मान भारत रत्नसे सम्मानित किया गया.

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Monday, June 18, 2018


सम्बन्धों की देहरी पर खिले प्यार के फूल,
रखना कदम आगे विश्वासों के साथ।

                              डॉ0 मंजूश्री गर्ग



हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ भी चल पड़ेंगें रास्ता हो जाएगा।

                                                         बशीर बद्र


Sunday, June 17, 2018





जब-जब तेरी आँखों में
देखा, सँवर गये हम।
तेरी बाँहों के घेरे में,
पिघलते रहे हम, नये
साँचें में ढ़लते रहे हम।

     डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Saturday, June 16, 2018



दिन और रात हैं एक से
हर ऋतु एक समान।
विरह-ताप से ज्यादा
क्या होगा ताप ग्रीष्म का?

                                 डॉ0 मंजूश्री गर्ग


Friday, June 15, 2018







सीधा-सादा डाकिया, जादू करे कमाल।
एक ही थैले में रक्खे, आँसू और मुस्कान।।

                                                      निदा फाजली

Thursday, June 14, 2018




चाँद से सुंदर मुख है तुम्हारा।
सुना है जब से चाँद ने,
चाँद घटता जा रहा।

कोयल से मधुर है बोली तुम्हारी।
सुना है जब से कोयल ने,
कोयल काली हो गयी।

अब ना और गुणगान करेंगे।
प्रकृति न जाने क्या से क्या हो जायेगी।

      डॉ0 मंजूश्री गर्ग



Wednesday, June 13, 2018



प्रिय प्रवास
(हिन्दी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य)

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

प्रिय प्रवास अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध द्वारा रचित हिन्दी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है जिसकी रचना कवि ने 15 अक्टूबर, सन् 1909 ई0 को शुरू की थी और 24 फरवरी, सन् 1913 ई0 को सम्पूर्ण की थी. प्रिय प्रवास की कथा अत्यन्त ही सूक्ष्म है. कथा केवल इतनी है कि कृष्ण जी कंस के बुलाये जाने पर, कंस के दूत अक्रूर जी के साथ मथुरा जाते हैं किन्तु गोकुल नगरी को विरह-व्यथा में डुबो जाते हैं. जिन कुंजों में वंशी की मधुर ध्वनि गूँजती थी, वहाँ एक ही रात में विरानी छा जाती है. ब्रज गोपियाँ, ग्वाल-बाल, राधा व माता यशोदा का विरह वर्णन कवि ने बहुत ही मार्मिक ढ़ंग से किया है. जब कृष्ण जी को मथुरा में गोकुल की याद सताती है तो वो उद्धव जी को गोकुल भेजते हैं. गोकुल में उद्धव जी से सब अपनी –अपनी व्यथा कहते हैं. विभिन्न घटनाओं के माध्यम से कवि ने श्रीकृष्ण को ब्रज रक्षक के रूप में चित्रित किया है. कथा की अत्यन्त सूक्ष्मता होने पर भी कहीं भी विश्रृंखलता नहीं आने पायी है.

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध द्वारा किया गया प्रकृति-चित्रण बहुत ही मर्मस्पर्शी हो गया है. राधा जी विरह से पीड़ित हो, कृष्ण जी तक अपना संदेशा पहुँचाने के लिये पवन को दूत बनाकर भेजती हैं. कवि द्वारा 'पवन-दूत का वर्णन बहुत ही ह्रदयस्पर्शी बना है. कवि कालिदास के मेघदूत से बहुत अधिक साम्य रखता है किन्तु मेघदूत से भी एक पग आगे है, क्योंकि इसमें पवन से पवन सुलभ वह सब बातें कही गयी हैं जिनसे कृशकाय राधिका की दशा का वर्णन हो सकता है. जैसे- सूखे हुये पुष्प को कृष्ण जी के चरणों मे डालकर पुष्प से मुरझायी राधिका का ध्यान दिलाना.

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने, न केवल विरह-व्यथा का वर्णन किया है, अपितु धर्म, नीति से सम्बन्धित सूक्तियाँ भी प्रस्तुत की हैं. युवकों को वीरता का संदेश सुनाया है. साथ ही भाग्य की विडम्बना का दृष्टिकोण दिखाया है. प्रिय प्रवास में अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की भाषा मुख्य रूप से खड़ी बोली है जिसमें संस्कृत के शब्दों का बहुलता से प्रयोग किया गया है; फिर भी भाषा कहीं भी क्लिष्ट नहीं होने पायी है.

प्रिय प्रवासकी उत्कृष्टता के लिये एक ही उदाहरण पर्याप्त है-
ह्रदय-चरण में तो मैं चढ़ा ही चुकी हूँ।
सविधि वरण की थी कामना और मेरी।
पर सफल हमें सो है न होती दिखाती।
वह कब टलता है भाल में जो लिखा है।

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Tuesday, June 12, 2018


जीने भी नहीं देते, मरने भी नहीं
आते भी नहीं, ना आस तोड़ते हो।

                                                                                      डॉ0 मंजूश्री गर्ग



Monday, June 11, 2018



अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार को समर्पित प्रमुख सार्वजनिक संस्था है, जिसकी स्थापना 1 मई, सन् 1910 ई0 को नागरी प्रचारिणी सभा के तत्वाधान में हुई. पहला सम्मेलन पं0 मदन मोहन मालवीय के सभापतित्व में वाराणसी में हुआ. दूसरा सम्मेलन सन् 1911 ई0 में पं0 गोविन्द नारायण मिश्र के सभापतित्व में प्रयाग में हुआ. प्रयाग में ही इसका मुख्यालय है. अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, स्वतन्त्रता आन्दोलन के समान ही भाषा-आन्दोलन का साक्षी और राष्ट्रीय गर्व-गौरव का प्रतीक है. श्री पुरूषोत्तम दास टंडन अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के जन्म से ही इसके मंत्री रहे और जीवन-पर्यन्त इसके उत्कर्ष के लिये कार्य करते रहे.

उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, पंजाब, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बंगाल राज्यों में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की शाखायें हैं. अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये वर्धा में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति  का निर्माण किया गया. इसके कार्यालय महाराष्ट्र, मुबंई, गुजरात, हैदराबाद, बंगाल और असम में हैं.

सन् 1910 ई0 से ही प्रत्येक वर्ष् अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन हिन्दी के उत्कर्ष के क्रियान्वयन हेतु एक सम्मेलन आयोजित करता है जिसे बाद में अधिवेशन नाम दिया गया.

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन और राष्ट्रभाषा प्रचार समितिद्वारा प्रत्येक वर्ष हिन्दी, आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, राजनीति, कृषि व शिक्षाशास्त्र में उपाधि परीक्षायें ली जाती हैं जिसमें देश-विदेश के दो लाख से भी अधिक छात्र 700 से भी अधिक परीक्षाकेंद्रों पर उपाधि हेतु परीक्षा देते हैं. ये उपाधि हैं- प्रवेशिका, प्रथमा, मध्यमा, उत्तमा.

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने सर्वप्रथम हिन्दी के लेखकों को पुरस्कृत करने के लिये मंगलाप्रसाद पारितोषिक की शुरूआत की. अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के द्वारा अनेक उच्च कोटि की पाठ्य एवम् साहित्यिक पुस्तकों, पारिभाषिक शब्दकोशों एवम् संदर्भग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ है. अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक हिन्दी संग्रहालय भी है जिसमें पांडुलिपियों का भी संग्रह है. अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा एक त्रैमासिक पत्रिका भी प्रकाशित की जाती है.












Sunday, June 10, 2018


हमने जीना सीख लिया है,
झूठ बोलना सीख लिया है।
महफिल में परिधानों सा,
मुस्कान पहनना सीख लिया है।

                                        डॉ0 मंजूश्री गर्ग


Saturday, June 9, 2018


मत अधीर हो धरा, आ पहुँचे पाहुने बादल।
रससिक्त तुम्हें कर, पहनायेंगे चूनर धानी।।

                                  डॉ0 मंजूश्री गर्ग