हिन्दी साहित्य
Saturday, June 23, 2018
ठंड़ी-ठंड़ी छाँव ही नहीं जिंदगी,
तपती धूप में चलना भी है।
हरी-भरी हो, दुल्हन लगती धरती
पर, सूखे की मार भी सहनी पड़ती कभी-कभी।
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
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