जैसे-जैसे प्रेम बढ़ेगा,
रंग और चढ़ेगा।
मेंहदी है भावों की,
शब्दों के फूल रचेंगे।।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
बारह ज्योर्तिलिंग
डॉ. मंजूश्री गर्ग
विश्वनाथ
वाराणसी तट पे
शिव का वास.
1.
श्रीसेलम में
मल्लिका अर्जुन
ज्योतिर्लिंग.
2.
ज्योर्तिलिंग
रामेश्वरम में
शिव का वास.
3.
केदारनाथ
ज्योर्तिलिंग रूप में
शिव का वास.
4.
ज्योर्तिलिंग
सोमनाथ मंदिर
शिव विराजें.
5.
ओंकारेश्वर
अम्लेश्वर एक ही
ज्योर्तिलिग.
6.
महाराष्ट्र में
घृषमेश्वर रूप में
शिव विराजें.
7.
बैद्यरूप में
बैद्यनाथ धाम में
शिव विराजें.
8.
ज्योर्तिलिंग
भीमाशंकर रूप में
शिव विराजें.
9.
ज्योर्तिलिग
महाकालेश्वर में
शिव का वास.
10.
ज्योर्तिलिंग
नागेश्वर रूप में
शिव का वास.
11.
ज्योर्तिलिंग
त्र्यम्बकेश्वर रुप
शिव का वास.
12.
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नागार्जुन
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जन्म-तिथि- 30 जून, सन् 1911 ई.
पुण्य-तिथि- 5 नवम्बर, सन् 1998 ई.
नागार्जुन हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील विचारधारा के प्रमुख कवि और लेखक हैं। नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परन्तु हिन्दी साहित्य में आपने नागार्जुन व मैथिली में यात्री उपनाम से रचनायें रचीं। काशी में रहते हुये आपने वैदेह उपनाम से भी कवितायें रचीं। सन् 1936 ई. में सिंहल में विद्यालंकार परिवेण में आपने नागार्जुन नाम ग्रहण किया।
नागार्जुन की
प्रारंभिक शिक्षा लघु सिद्धान्त
कौमुदी व अमरकोश के सहारे
प्रारंभ हुई। बाद में बनारस
जाकर विधिवत संस्कृत की पढ़ाई
शुरू की। आप पर आर्य़ समाज और
बौद्ध दर्शन का बहुत प्रभाव
पड़ा। राजनीति में आप सुभाष
चंद्र बोस से प्रभावित थे।
राहुल सांस्कृत्यायन के समान
आप यायावर प्रकृति थे और राहुल
जी को अपना अग्रज मानते थे।
आपने राजनितिक आंदोलनों में
भी भाग लिया जैसे-
बिहार के
किसान आंदोलन,
चंपारण
के किसान आंदोलन। वस्तुतः
आप रचनात्मकता के साथ-साथ
सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास
रखते थे। सन् 1974
ई.
के अप्रैल
में जे पी आंदोलन में भाग लेते
हुये कहा था-
सत्ता
प्रतिष्ठान की दुर्नितियों
के विरोध में एक जनयुद्ध चल
रहा है,
जिसमें
मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी
की ही नहीं,
कर्म की
हो,
इसीलिये
मैं आज अनशन पर बैठा हूँ,
कल जेल
भी जा सकता हूँ। और आपालकाल
से पहले ही आपको गिरफ्तार कर
लिया गया और आप काफी समय तक
जेल में रहे।
नागार्जुन ने बलचनमा और वरूण के बेटे उपन्यासों से आंचलिक उपन्यासों की नींव रखी। आपको पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, संस्कृत, मैथिली, अंग्रेजी, आदि निभिन्न भाषाओं का ज्ञान था। नागार्जुन कालिदास के मेघदूत से जितने प्रभावित थे उतने ही तुलसी और कबीर की संत पंरपरा के भी निकट थे। आपने नेहरू, बर्तोल्त, निराला, लूशून से लेकर बिनोबा, मोरारजी, जेपी, लोहिया, केन्याता, एलिजाबेथ, आइजन हावर, आदि पर स्मरणीय और अत्यंत लोकप्रिय कवितायें लिखी हैं। आप बीसवीं सदी के जनकवि होने के साथ-साथ अद्वितिय मौलिक बौद्धिक कवि भी थे।
नागार्जुन की प्रमुख रचनायें-
कविता-संग्रह- हजार-हजार बाँहों वाली, युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, आदि।
प्रबंध काव्य- भस्मांकुर, भूमिजा।
उपन्यास- रतिनाथ की चाची, नयी पौध, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, दुख मोचन, कुंभीपाक, आदि।
बाल साहित्य- कथा मंजरी भाग-1, कथा मंजरी भाग-2, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, विद्यापति की कहानियाँ।
आपने अनुवाद कार्य भी किया है।
नागार्जुन को समय-समय पर विविध पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। जिनमें प्रमुख हैं- साहित्य अकादमी पुरस्कार(1967), भारत-भारती सम्मान, राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार(पश्चिम बंगाल सरकार से), आदि।
आपको साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फैलोशिप से भी सम्मानित किया गया।
नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता कालिदास का कुछ अंश-
कालिदास! सच-सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट से सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास! सच-सच बतलाना!
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ' चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर!तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना!
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अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी भाषा का स्वरूप
डॉ. मंजूश्री गर्ग
किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय
भाषा के स्वरूप में दो प्रकार के तत्व होते हैं-एक केंद्रीय और दूसरा परिधीय.
केंद्रीय तत्व उस भाषा के सभी रूपों में समान होते हैं, इन्हीं के आधार पर उस भाषा
के एक रूप का प्रयोक्ता दूसरे रूप के प्रयोक्ता की भाषा को समझ अवश्य लेता है, चाहे
बोल पाने में समर्थ न हो. परिधीय तत्व उस भाषा के सभी रूपों में असमान होते हैं
किन्तु परिधीय तत्व कम से कम होने चाहिये ताकि भाषा के एक रूप के प्रयोक्ता को उस
भाषा के अन्य रूप को समझने में मुश्किल न हो. उदाहरणार्थ – अंग्रेजी भाषा की
संरचना में जो केंद्रीय तत्व हैं, वे ब्रिटिश अंग्रेजी, अमरीकी अंग्रेजी तथा
आस्ट्रेलियाई अंग्रेजी, आदि अंग्रेजी के सभी रूपों में समान हैं और उन्हीं के आधार
पर वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बनी है जबकि ब्रिटिश अंग्रेजी और अमरीकी अंग्रेजी में
वर्तनी, उच्चारण, शब्द-भंडार, अर्थ, वाक्य रचना, सभी दृष्टियों से पर्याप्त
विभिन्नता पाई जाती है.
हिन्दी विश्व की प्रमुख तीन
भाषाओं में से एक है. बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी का स्थान केवल
चीनी और अंग्रेजी के बाद आता है. विश्व में हिन्दी भाषा का प्रयोग-क्षेत्र तीन
प्रकार का है- 1. हिन्दी भाषा क्षेत्र है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार,
मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब का कुछ भाग व हिमाचल प्रदेश में है. 2. हिंदीतर
भारतीय प्रदेश- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, बंगाल का कलकत्ता, मेघालय का
शिलांग नगर. 3. भारतेतर देश- मुख्यतः मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद,
दक्षिण अफ्रीका. गौणतः नेपाल, जमाइका, बर्मा, मलेशिया, सिंगापुर, कीनिया,
इंडोनेशिया, थाइलैंड, श्रीलंका, ब्रिटेन, अमेरिका तथा कनाड़ा. विभिन्न
देश-प्रदेशों की हिन्दी भाषा का रूप भी भिन्न है. हिन्दी भाषा की वर्तनी एक ही है
किन्तु उच्चारण, शब्द भंडार, शब्दार्थ, वाक्य रचना में पर्याप्त विभिन्नता पाई
जाती है.
डॉ. भोलानाथ तिवारी ने
हिन्दी भाषा के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप के संवंध मे जो बातें कही हैं विचारणीय
हैं-------
1. जहाँ तक अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी के शब्द भंडार का प्रश्न
है, यह न तो बहुत अधिक संस्कृतनिष्ठ होनी चाहिये और न बहुत अरबी-फारसी मिश्रित.
किंतु इसे हिन्दुस्तानी शैली कहना भी बहुत उपयुक्त नहीं होगा. वस्तुतः इसे वर्तमान
संस्कृतनिष्ठ हिन्दी तथा हिन्दुस्तानी के बीच का होना चाहिये.
2. अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी में वे सभी अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त
होने चाहिये जो हिन्दी में किसी भी कारण आ गये हैं तथा जो पूरे भारत में तथा भारत
के बाहर भी बोले और समझे जाते हैं. उदाहरण के लिये- इंजीनियर ठीक है अभियंता की
आवश्यकता नहीं है. ऐसे ही टेलीफोन का प्रयोग होना चाहिये दूरभाष का नहीं.
3. विश्व की काफी भाषाओं में ऐसे शब्द हैं जो पाँच या पाँच से
अधिक भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं. इनमें से कुछ शब्द ऐसे हो सकते हैं जो लगभग एक
ही उच्चारण से सभी भाषाओं में प्रचलित हैं. ऐसे शब्दों को उसी उच्चारण के साथ अन्तर्राष्ट्रीय
हिन्दी को स्वीकार कर लेना चाहिये.
4. जहाँ तक व्याकरण का प्रश्न है, मानक हिन्दी के सामान्य
व्याकरण को ही अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी के लिये ग्रहण करना चाहिये. उसमें से न तो न
के प्रयोग को निकालने की आवश्यकता है न क्रिया और विशेषण के लिंगीय परिवर्तन को
हटाने की. हाँ, जैसाकि सूरीनाम या मॉरीशस की हिन्दी में सुनने में आता है, इन
दृष्टियों से छूट कोई बरतना चाहे तो बरत सकता है किंतु ये छूट वाले रूप हिन्दी के
परिधीय तत्व माने जाने चाहिये केंद्रीय तत्व नहीं.
5. यदि नये शब्दों के निर्माण की आवश्यकता हो तो जहाँ तक
उपसर्गों और प्रत्ययों का संबंध है, हिन्दी के जितने भी उर्वर उपसर्ग और प्रत्यय
हैं उन्हीं का प्रयोग होना चाहिये अनुर्वर का नहीं. उदाहरण के लिये प्रभावशाली और
प्रभावी पर्याप्त हैं, प्रभविष्णु की आवश्यकता नहीं.
अन्तर्राष्ट्रीय
हिन्दी का स्वरूप निर्धारित करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि अन्तर्राष्ट्रीय
हिन्दी का व्याकरण और शब्द भंडार मानक हिंदी का ही होना चादिये, जो भाषा के
केंद्रीय तत्वों से सम्बंधित है. भाषा में अन्य परिवर्तन देश-प्रदेश अपनी
सुविधानुसार परिधीय तत्व के रूप में कर सकते हैं.
अंक व अंकुर शब्द की व्युत्पत्ति
अंक शब्द में अ हिन्दी स्वर माला का प्रथम स्वर है और क हिन्दी वर्ण माला का प्रथम वर्ण। अ और क के बीच सुशोभित बिंदी ही इसके भाव को सौ गुना बढ़ा देती है। जैसे किसी स्त्री की गोदी में सुशोभित बालक नारी के सौन्दर्य को और बढ़ा देता है। अंक का शाब्दिक अर्थ गोद है। इसी से अंकुर बना है। जब धरती की गोद से किसी भी बीज के प्रथम दल फूटते हैं तो वो अंकुर कहलाते हैं।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
डॉ. विद्यानिवास मिश्र
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जन्म-तिथि- 14 जनवरी, सन् 1926 ई.
पुण्य-तिथि- 14 फरवरी, 2005 ई.
डॉ. विद्यानिवास मिश्र का जन्म गोरखपुर(उ. प्र.) जिले के पकड़डीहा गाँव में हुआ था।सन् 1945 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए. किया। सन् 1960-61 ई. में गोरखपुर विश्वविद्यालय से श्री राहुल सांस्कृत्यायन के निर्देशन में पाणिनी व्याकरण पर शोधकार्य किया। सन् 1957 ई. से आप विश्वविद्यालय सेवा से जुड़े रहे। आपने गोरखपुर विश्वविद्यालय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय और आगरा विश्वविद्यालय में संस्कृत और भाषा विज्ञान का अध्यापन किया। आप काशी विद्यापीठ एवम् सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय , वाराणसी के कुलपति व नवभारत टाइम्स, दैनिक पत्र के प्रधान सम्पादक भी रहे। आपने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय मे भी शोध कार्य किया और सन् 1967-68 ई. में वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्येता रहे।
डॉ. विद्यानिवास मिश्र हिन्दी साहित्य में अपने ललित निबन्धों व आलोचनाओं के लिये प्रसिद्ध हैं। आपने हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रारम्भ की गयी हिन्दी साहित्य में ललित निबन्धों की परम्परा को आगे बढ़ाया। आपका पहला निबन्ध संग्रह छितवन की छाँव नाम से सन् 1952 ई. में प्रकाशित हुआ। आपके निबन्धों का संसार बहुआयामी है। आपके निबन्धों में प्रकृति, लोकतत्व, बौद्धिकता, सर्जनात्मकता, कल्पनाशीलता, काव्यात्मकता एवम् रचनात्मकता, भाषा की उर्वर सर्जनात्मकता, सम्प्रेषणीयता एक साथ मिलती है।
डॉ. विद्यानिवास मिश्र जी ने हिन्दी भाषा और अंग्रेजी भाषा में दो दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। इनमें महाभारत का काव्यार्थ और भारतीय भाषा दर्शन की पीठिका प्रमुख हैं। ललित निबन्धों में तुम चंदन हम पानी(1957), बसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं(1972) प्रमुख हैं। अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें हैं- शोध ग्रंथों में हिन्दी की शब्द-संपदा, मेरे राम का मुकुट भीग रहा है, कंदब की फूली डाल, लोक और लोक का स्वर(लोक की भारतीय जीवन सम्मत परिभाषा और उसकी अभिव्यक्ति), आज के हिन्दी कवि-अज्ञेय, आदि।
डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने डॉ. विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्धों के विषय में लिखा है- किसी विषय को लेकर उनके ललित शैली में लिखे निबन्ध अलग हैं जैसे-जयदेव के गीत-गोविन्द को आधार बनाकर लिखा राधा माधव रँग रँगी अथवा महाभारत का काव्यार्थ या साहित्य का खुला आकाश। जो विषय विशेष पर लिखे निबन्धों के संग्रह हैं। उनके ह्रदय से निकले ललित निबन्थ तो वे हैं जिनमें कहीं गाँव के खलिहान में खुशी से झूमते अल्हड़ किसान के मुँह से निकले भोजपुरी लोकगीत का आह्लाद है, कहीं धान कूटती ग्रामीण युवतियों की चूड़ियों की खनक है, कहीं संयुक्त परिवार की नववधुओं की मंद-मंद हँसी।
डॉ. विद्यानिवास मिश्र की लालित्यमय भाषा का उदाहरण- यह शरीर ही रथ है, आत्मा रथी है, बुद्धि सारथि है। इन्द्रियगण घोड़े हैं, मन लगाम है, इन सबको एक सामंजस्य में करने का संकल्प बार-बार होता रहता है और असहज भोग से सहज साहचर्य की ओर, सहज आत्मीयता की ओर रथ मोड़ने का संकल्प उठता रहता है, सही दिशा में रथ मोड़ने का संकल्प होता रहता है, कुछ इन्द्रियों की चपलता से, मन की दुर्दम्यता से और बुद्धि के प्रमाद से शरीर अवश हो जाता है, रथी भी ऊँघने लगता है और रथ कीचड़ में फँस जाता है।
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