Sunday, July 24, 2022

 

अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी भाषा का स्वरूप

डॉ. मंजूश्री गर्ग

 

किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के स्वरूप में दो प्रकार के तत्व होते हैं-एक केंद्रीय और दूसरा परिधीय. केंद्रीय तत्व उस भाषा के सभी रूपों में समान होते हैं, इन्हीं के आधार पर उस भाषा के एक रूप का प्रयोक्ता दूसरे रूप के प्रयोक्ता की भाषा को समझ अवश्य लेता है, चाहे बोल पाने में समर्थ न हो. परिधीय तत्व उस भाषा के सभी रूपों में असमान होते हैं किन्तु परिधीय तत्व कम से कम होने चाहिये ताकि भाषा के एक रूप के प्रयोक्ता को उस भाषा के अन्य रूप को समझने में मुश्किल न हो. उदाहरणार्थ – अंग्रेजी भाषा की संरचना में जो केंद्रीय तत्व हैं, वे ब्रिटिश अंग्रेजी, अमरीकी अंग्रेजी तथा आस्ट्रेलियाई अंग्रेजी, आदि अंग्रेजी के सभी रूपों में समान हैं और उन्हीं के आधार पर वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बनी है जबकि ब्रिटिश अंग्रेजी और अमरीकी अंग्रेजी में वर्तनी, उच्चारण, शब्द-भंडार, अर्थ, वाक्य रचना, सभी दृष्टियों से पर्याप्त विभिन्नता पाई जाती है.

 

हिन्दी विश्व की प्रमुख तीन भाषाओं में से एक है. बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी का स्थान केवल चीनी और अंग्रेजी के बाद आता है. विश्व में हिन्दी भाषा का प्रयोग-क्षेत्र तीन प्रकार का है- 1. हिन्दी भाषा क्षेत्र है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब का कुछ भाग व हिमाचल प्रदेश में है. 2. हिंदीतर भारतीय प्रदेश- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, बंगाल का कलकत्ता, मेघालय का शिलांग नगर. 3. भारतेतर देश- मुख्यतः मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका. गौणतः नेपाल, जमाइका, बर्मा, मलेशिया, सिंगापुर, कीनिया, इंडोनेशिया, थाइलैंड, श्रीलंका, ब्रिटेन, अमेरिका तथा कनाड़ा. विभिन्न देश-प्रदेशों की हिन्दी भाषा का रूप भी भिन्न है. हिन्दी भाषा की वर्तनी एक ही है किन्तु उच्चारण, शब्द भंडार, शब्दार्थ, वाक्य रचना में पर्याप्त विभिन्नता पाई जाती है.

डॉ. भोलानाथ तिवारी ने हिन्दी भाषा के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप के संवंध मे जो बातें कही हैं विचारणीय हैं-------

 

1.     जहाँ तक अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी के शब्द भंडार का प्रश्न है, यह न तो बहुत अधिक संस्कृतनिष्ठ होनी चाहिये और न बहुत अरबी-फारसी मिश्रित. किंतु इसे हिन्दुस्तानी शैली कहना भी बहुत उपयुक्त नहीं होगा. वस्तुतः इसे वर्तमान संस्कृतनिष्ठ हिन्दी तथा हिन्दुस्तानी के बीच का होना चाहिये.

2.     अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी में वे सभी अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त होने चाहिये जो हिन्दी में किसी भी कारण आ गये हैं तथा जो पूरे भारत में तथा भारत के बाहर भी बोले और समझे जाते हैं. उदाहरण के लिये- इंजीनियर ठीक है अभियंता की आवश्यकता नहीं है. ऐसे ही टेलीफोन का प्रयोग होना चाहिये दूरभाष का नहीं.

3.     विश्व की काफी भाषाओं में ऐसे शब्द हैं जो पाँच या पाँच से अधिक भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं. इनमें से कुछ शब्द ऐसे हो सकते हैं जो लगभग एक ही उच्चारण से सभी भाषाओं में प्रचलित हैं. ऐसे शब्दों को उसी उच्चारण के साथ अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी को स्वीकार कर लेना चाहिये.

4.     जहाँ तक व्याकरण का प्रश्न है, मानक हिन्दी के सामान्य व्याकरण को ही अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी के लिये ग्रहण करना चाहिये. उसमें से न तो न के प्रयोग को निकालने की आवश्यकता है न क्रिया और विशेषण के लिंगीय परिवर्तन को हटाने की. हाँ, जैसाकि सूरीनाम या मॉरीशस की हिन्दी में सुनने में आता है, इन दृष्टियों से छूट कोई बरतना चाहे तो बरत सकता है किंतु ये छूट वाले रूप हिन्दी के परिधीय तत्व माने जाने चाहिये केंद्रीय तत्व नहीं.

5.     यदि नये शब्दों के निर्माण की आवश्यकता हो तो जहाँ तक उपसर्गों और प्रत्ययों का संबंध है, हिन्दी के जितने भी उर्वर उपसर्ग और प्रत्यय हैं उन्हीं का प्रयोग होना चाहिये अनुर्वर का नहीं. उदाहरण के लिये प्रभावशाली और प्रभावी पर्याप्त हैं, प्रभविष्णु की आवश्यकता नहीं.

 

अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी का स्वरूप निर्धारित करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी का व्याकरण और शब्द भंडार मानक हिंदी का ही होना चादिये, जो भाषा के केंद्रीय तत्वों से सम्बंधित है. भाषा में अन्य परिवर्तन देश-प्रदेश अपनी सुविधानुसार परिधीय तत्व के रूप में कर सकते हैं.

 

 

 

 


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