Monday, April 30, 2018



साहित्यकार के गुण

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

साहित्यकार के लिये संवेदनशील होना आवश्यक है, लेकिन हर संवेदनशील व्यक्ति साहित्यकार होगा यह आवश्यक नहीं है क्योंकि साहित्यकार में अन्य गुणों का होना भी आवश्यक है. ये गुण साहित्यकारों में कुछ जन्मजात होते हैं जिन्हें प्रतिभा कहते हैं. कुछ शास्त्र ज्ञान, लोक ज्ञान, आदि के द्वारा साहित्यकार अपने अन्दर विकसित करते हैं जिन्हें व्युत्पत्ति कहते हैं और कुछ गुण निरंतर अभ्यास से साहित्यकार में विकसित होते हैं.

    साहित्यकार के गुणों का वर्णन भारतीय आचार्यों ने काव्य के हेतु या लक्षण या धारक तत्व के रूप में किया है. आचार्य भामह ने प्रतिभा को सर्वोपरि माना है और काव्य सृजन का मूल कारण प्रतिभा को ही माना है. आचार्य दण्डी ने काव्य के हेतु तीन बताये हैं- नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल लोक ज्ञान और अमन्द अभियोग अर्थात् निरन्तर अभ्यास-

नैसर्गिक च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्।
अमन्दश्चीभेयोगोस्या अस्या कारणं काव्य-संभवः।।

आचार्य मम्मट ने भी काव्य के हेतु तीन माने हैं- शक्ति(प्रतिभा), व्युत्पत्ति(लोकज्ञान), और अभ्यास. मम्मट के अनुसार तीनों के सामुदायिक प्रभाव से ही सत्काव्य जन्म ले पाता है-

 शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्र काव्यवेक्षण्यत्।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।

पाश्चात्य विचारकों में अरस्तु ने प्रतिभा को जन्मजात माना है(a man of born talent) और कवि के लिये इसी प्रकार की प्रतिभा का अधिकारी होना आवश्यक बताया है. अरस्तु ने कवि के लिये सूझबूझ को( The man of all round natural understanding) भी आवश्यक माना है.

वर्नदते क्रोचे के मतानुसार मानस की समस्त क्रियायें दो प्रकार की होती हैं- विचारात्मक और व्यवहारात्मक. विचारात्मक के भी दो भेद होते हैं- स्वयं प्रकाश ज्ञान और प्रभा. स्वयं प्रकाश ज्ञान से उत्पन्न स्वयं प्रकाश-अभिव्यंजना (Intuition-Expression) को जब कवि वाह्याभिव्यंजना(Externalization ) में ढ़ालता है, तभी काव्य कृति का जन्म होता है.

वाह्याभिव्यंजना से तात्पर्य लोकज्ञान तथा निरन्तर अभ्यास द्वारा अर्जित कलाकारिता सम्बन्धी ज्ञान से है.

इस प्रकार भारतीय एवम् पाश्चात्य सभी विचारकों ने साहित्यकार के तीन गुण माने हैं-
1.     प्रतिभा
2.     व्यवहारिक ज्ञान
3.     अभ्यास

                                                                        
1.प्रतिभा-
प्रतिभा दो प्रकार की होती है- सहजा और उत्पाद्या. जिस रचनाकार में सहजा प्रतिभा होती है उसकी रचना में अनूठी सहजता एवम् प्रवाहमयता आ जाती है. कुछ व्यक्तियों में प्रतिभा सुषुप्त अवस्था में रहती है. किसी विशेष घटना के घटित होने पर वह प्रस्फुटित होती है. तुलसीदास और कालिदास की प्रतिभा इसी कोटि की है. कुछ व्यक्ति अध्ययन व अभ्यास से प्रतिभा उत्पन्न करते हैं उसे उत्पाद्या कहते हैं.

2. व्यवहारिक ज्ञान-
प्रतिभा के साथ-साथ साहित्यकार को विविध शास्त्रों का ज्ञान, लोक व्यवहार का ज्ञान प्राप्त कर साहित्य रचना करने पर साहित्यकार को दक्षता प्राप्त होती है. कहा भी गया है कि देशाटनं, राजसभा प्रवेशः, वारांगना का साहचर्य, पंडितजन का सत्संग तथा विविध शास्त्रों का अवलोकन- चातुर्य के ये मूल तत्व हैं.

बौद्धिक प्रगाढ़ता प्राप्त करने के उपरान्त साहित्यकार मौलिक चिंतन द्वारा मौलिक उद्भावनायें करता है. जैसे- रामचरित मानस में कवि तुलसीदास ने अनेकों पुराणों, शास्त्रों तथा वेदों के ज्ञान को सर्वथा मौलिक चिंतन द्वारा अभिव्यक्त किया गया है.

 3.अभ्यास-
निरन्तर अभ्यास अध्यवसाय एवम् स्वाध्याय द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान आत्मा का अंग बन जाता है. जिन व्यक्तियों में सहज प्रतिभा होती है उनको भी निरंतर अध्ययन व अभ्यास की आवश्यकता होती है. कुछ व्यक्ति सहज प्रतिभा के धनी न होते हुये भी निरंतर अध्ययन व अभ्यास से अपने अन्दर प्रतिभा को उत्पन्न कर पांडित्य को प्राप्त होते हैं. आचार्य केशवदास ऐसे ही कवि हैं.

इस प्रकार एक श्रेष्ठ साहित्यकार में जन्मजात श्रेष्ठ संस्कार हों, वह निरन्तर अध्ययन एवम् सत्संग द्वारा अपने ज्ञान में वृद्धि करे तथा स्वाध्याय एवम् अभ्यास द्वारा अपने ज्ञान को परिपक्व करे. इन गुणों से युक्त साहित्यकार ही श्रेष्ठ, अमर, प्राकृत वाक्य-रचना करने में समर्थ होता है.



Sunday, April 29, 2018




विज्ञान के विकास के साथ ही समाज में नयी कुरीति ने जन्म ले लिया है. गर्भ में ही लिंग का परीक्षण होने की सुविधा के साथ-साथ अधिकांशतः माँ-बाप गर्भपात करवा कर गर्भ में ही लड़कियों की हत्या कर देते हैं जिससे लड़के-लड़कियों के अनुपात में लड़कियों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है. इसी समसामयिक समस्या की अभिव्यक्ति कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में की है-

यही जो बेटियाँ हैं ये ही आखिर कल की माँए हैं,
मिले मुश्किल से कल माँए न इतनी बेटियाँ कम हों।
                                                                                 कमलेश भट्ट कमल




"भाषा विचार की पोशाक है।"
              डॉ0 जॉनसन

"शब्द वो धागे हैं जिनसे पोशाक का वस्त्र निर्मित होता है।"
                            डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, April 27, 2018



ये दर्द,
ये चुभन,
ये बेचैनी।
सब दोस्त
हैं अपने।
भूलकर भी,
भूलना चाहें
तुम्हें तो;
भूल नहीं
पायेंगे हम।
 
     डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Wednesday, April 25, 2018




बाबुल.......

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

बाबुल तेरे अँगना की
हम थीं सोन चिरैया रे
क्यूँ कनक-तीलियों में
कैद किया।

जून महीने में
नहीं यहाँ अमराईयाँ
कमरे में कैद
जिंदगानी रे।

अब के सावन में
बाबुल पास बुला लेना                   
बरसों बीत गये
झूला नहीं झूले आँगन में।

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Tuesday, April 24, 2018



जमीं पर नहीं पड़ते हैं कदम हमारे,
अरमानों को पंख लगे हैं आज।
आकाश को छू लेंगे एक दिन हम,
चाहतों में नया रंग भरा है आज।

                                         डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Sunday, April 22, 2018


बस मोहब्बत की चार बातें करेंगे......

डॉ0 मंजूश्री गर्ग 

बस मोहब्बत की चार बातें करेंगे,
और तुम्हें पाकर हम क्या करेंगे।

घर को सम्भालोगी दिखता नहीं
गिर पड़ूँ उठालोगी लगता नहीं।
रात-दिन नखरे उठाया करेंगे,
और तुम्हें पाकर हम क्या करेंगे।


ड्राइंग-रूम की मोहक छवि हो तुम
जीवन की धूप सहलोगी लगता नहीं।
जिंदगी का बोझ अकेले उठाया करेंगे,
और तुम्हें पाकर हम क्या करेंगे।

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Saturday, April 21, 2018


प्रिया के बिन अपनी उदासी को, अपने अकेलेपन को कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है-

तुम बिन हथेली की हर लकीर प्यासी है,
तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है।
रात की उदासी को याद संग खेला है,
कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है।
औषधि चली आओ, चोट का निमंत्रण है,
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है।

                               कुमार विश्वास

Tuesday, April 17, 2018




माना कि पथ के काँटे चुन लिये आपने,
घायल  हैं उँगलियाँ  अभी भी हमारी।

                                                          डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Friday, April 13, 2018


साहित्य की प्रेरणाः संवेदना

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

अनुभूति(संवेदना) साहित्य की प्रेरणा है और अनुभव संवेदनाओं को गहनता प्रदान करते हैं.

                                                      डॉ0 मंजूश्री गर्ग

साहित्य की मूल प्रेरणा संवेदना है, जब कोई सह्रदय व्यक्ति अपनी या किसी अन्य प्राणी की वेदना को देखकर या सुनकर इतना मर्माहत हो जाता है कि जब तक उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर लेता, किसी प्रकार उसके मन को शांति नहीं मिलती. जिस प्रकार चित्रकार अपनी अनुभूति को चित्रों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, संगीतकार अपनी ह्रदयगत अनुभूतियों को संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, उसी प्रकार साहित्यकार अपनी अनुभूतियों को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, फिर चाहे माध्यम कहानी हो या कविता, उपन्यास हो या नाटक कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता. सशक्त शब्दों में कही गई बात का पाठक या श्रोता पर समान प्रभाव पड़ता है.
साहित्यकार शब्दों के माध्यम से किसी घटना विशेष का एक चित्र सा पाठक के सामने बनाता है.कभी-कभी उस घटना की गूँजें भी सुनाई देती हैं,जैसे-  आदि कवि वाल्मीकि को यदि क्रौंच पक्षी के वध से इतनी सघन वेदना न हुई होती तो कवि के मुख से कभी भी प्रस्तुत आदि श्लोक न निकला होता-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम शाश्वती समा।
यत्क्रौंच मिथुनादेकम् अवधी काममोहितम्।।

प्रस्तुत श्लोक को पढ़कर जहाँ आँखों के सामने बहेलिए द्वारा क्रौंच पक्षी के वध का चित्र बनता है वहीं वाण की गूँज और क्रौंच पक्षी की चीख की अनुभूति भी होती है.
  
संवेदनायें प्रेरणायें कैसे बनती हैं-
जब किसी कलाकार की वेदना इतनी घनीभूत हो जाती है कि उसके मन में मैं और पर का भेद समाप्त हो जाता है. किसी भी पात्र के सुख-दुख, उसके जीवन चरित्र की घटनायें कवि या लेखक को अपने ऊपर घटित होती हुई सी प्रतीत होती हैं और वो सहजता से उन्हें अपने काव्य में आभिव्यक्त करता है. काव्य में अभिव्यक्त ये संवेदनायें इतनी परिष्कृत होती हैं कि ये समसामयिक होते हुये भी सार्वभौमिक, सार्वकालिक, सार्वदेशिक बन जाती हैं. जिन्हें संवेदनशील ह्रदय पढ़कर या सुनकर रसदशा को प्राप्त होता है अर्थात् आनन्दित होता है. सुसंस्कृत साहित्य मानव मन की वेदनाओं को परिष्कृत करने का भी काम करता है, इसीलिये अच्छा साहित्य समाज के लिये वरदान होता है.

भारतीय काव्य चिन्तन में संवेदना
अपने नाट्य शास्त्र में जब भरतमुनि ने कहा- तत्र विभानुभाव संचारी संयोगाद्रसः निष्पत्ति। तो वह इस सिद्धान्त के मूल में संवेदना के तत्व को ही स्वीकार कर रहे थे. तत्र जिसका अर्थ स्वयं भरतमुनि ने रंगमंच से लिया है, उसमें कोई लोकव्यवहार ही अभिनीत किया जाता है. लोक की कोई भी गतिविधि जिसे दर्शक अपने भाव एवम् ज्ञानक्षेत्र में रखता है, फिर भी उस अभिनय प्रस्तुति विशेष को देखकर वह विभाव, अनुभाव और संचारी के संयोग से रसदशा को प्राप्त होता है. यह ज्ञातव्य है कि विभाव, अनुभाव और संचारी में से कोई भी कभी लोक निरपेक्ष नहीं हो सकता. वह वाह्य संसार के प्रति किसी मनुष्य के सम्बन्ध, मानसिक या इन्द्रियगत को ही संकेतित करता है. काव्य में स्थित संवेदन तत्व ही अपने विभिन्न उपादानों द्वारा अभिव्यक्त या प्रस्तुत किया जाता है, तभी श्रोता या दर्शक को रसबोध हो पाता है.
संस्कृत साहित्य में रसबोध का वर्चस्व सदा रहा है जिसका एकमात्र उद्देश्य यही मानना था और है कि काव्य रचना में रस ही मूलभूत तत्व है और इसकी निष्पत्ति जिस प्रक्रिया से होती है वह संवेदना की संवेदनशील मन में एक प्रक्रिया है. बाद के आचार्यों ने इस संवेदन तत्व को ही
 अधिक प्रभावकारी रूप में अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से नये-नये काव्य सिद्धान्तों को जन्म दिया. जो देखने में कलावादी लगते हैं लेकिन वास्तव में काव्य की आत्मा को अभिव्यक्त करते हैं कि किस प्रकार काव्य आधिक प्रभानकारी रूप से अभिव्यक्ति पा सके.
ध्वनिवादी काव्य की आत्मा ध्वनि मानते हैं, परन्तु इसे मानने वाले शब्द औऱ अर्थ की उपेक्षा न करके उच्च श्रेणी के काव्य के लिये अभिधार्थ तक सीमित न रहकर अर्थ प्रतीति को व्यंगार्थ या ध्वनि या प्रतीयमान अर्थ की अभिव्यक्ति को आवश्यक मानते हैं. आनन्दवर्धन ने लिखा है-
यत्रार्थः शब्दों वा तमर्थमुप सर्जनी कृत स्वार्थो।
व्यक्तः काव्य विशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कार्यतः।।
अर्थात् जहाँ अर्थ अपने को अथवा शब्द अपने को गुणीभूत करके उस(प्रतीयमान) अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं. उस काव्य विशेष को विद्वान जन (ध्वनि) काव्य कहते हैं. यह प्रतीयमान अर्थ श्रोता या पाठक को भावबोध या संवेदना की उच्चतर कक्षा में अवस्थित कर देता है.
भारतीय काव्य चिन्तन में लोक से जुड़ाव और लोकानुभवगत अथवा संवेदना को स्थान अवश्य ही मिला है. काव्य प्रकाश में मम्मट काव्य के हेतु बताते हुये शक्ति, प्रतिभा, निपुणता काव्य विषयों के ज्ञान के साथ-साथ लोकशास्त्र अनुशीलन पर भी जोर देते हैं जिसका अभिप्राय अर्थलोक के सम्यक् बोध और उसके मनोगत प्रभाव से है.
भवभूति करूणेव एकोरसः कहकर में करूण रस के एकाधिकार की घोषणा करते हैं जो संवेदना का ही पर्याय है.

पाश्चात्य काव्य चिन्तन में संवेदना-

पाश्चात्य काव्य मर्मज्ञों में सर्वप्रथम अरस्तु का नाम विचारणीय है, जिन्होंने विरेचन-सिद्धान्त की स्थापना की. विरेचन से अभिप्राय है शुद्धिकरण. जिस प्रकार वैद्य जड़ी-बूटियों के द्वारा
 रोगी काया को निरोगी बनाता है, उसी प्रकार साहित्यकार समाज की संवेदनाओं को शब्द कला के माध्यम से सुष्टुरूप में सृजित कर उनका परिष्कार करता है जिसका लाभ रचनाकार के साथ-साथ पाठक या श्रोता को भी मिलता है.  
इटली के विद्वान बर्नदते क्रोचे ने साहित्य में अभिव्यंजना की स्थापना की. क्रोचे के मतानुसार व्यक्ति के मन में वाह्य संसार के वाह्य स्वरूप उत्पन्न अनेक छायाचित्र रहते हैं. अनुभूति के कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब व्यक्ति इन छायाचित्रों को अभिव्यंजित करने के लिये विवश हो जाता है. ये अनुभूति के क्षण संवेदनाओं के ही क्षण हैं, जो समाज में घटित घटनाओं के छायाचित्र के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होते हैं और इनका आवेग ही साहित्यकार को शब्दों के माध्यम से साहित्य में संवेदनाओं को अभिव्यंजित करने के लिये विवश करता है.
आई0ए0रिचर्डस ने सम्प्रेषण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया. अनके अनुसार किसी विशेष वातावरण का किसी व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है और वह उससे सन्दर्भित कोई कृति प्रस्तुत करता है. यदि उस कृति से दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में भी पहले व्यक्ति जैसा प्रभाव पड़े तो इसे ही सम्प्रेषणीयता कहते हैं अर्थात् कुछ विशेष परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न मस्तिष्क एक जैसी ही अनुभूति प्राप्त करते हैं, यही प्रेषणीयता है. यह अनुभूति संवेदना का ही पर्याय है जो साहित्यकार की रचना की मूल प्रेरणा है.
टी0एस0इलियट ने काव्य में निर्वैयक्तिकता के सिद्धान्त की स्थापना की, जिसका सामान्य अर्थ है व्यक्तिगत भावों की विशिष्टता का सामान्यीकरण. इलियट ने निर्वैयक्तिकता के सिद्धान्त से भी यही ध्वनि निकलती है कि कवि या लेखक की रचना करने की मूल प्रेरणा संवेदना ही होती है. अपनी तीव्र संवेदना को पात्र और कथानक के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं कि वह संवेदना और अनुभव उसके अपने होते हुये भी सभी पाठकों व श्रोताओं की संवेदनायें व अनुभव बन जाते हैं.

आधुनिक काव्य-चिन्तन में संवेदना-
रचना के लिये अज्ञेय जी दो चीजें आवश्यक मानते हैं- एक तो कलात्मक अनुभूति या संवेदना, दूसरे उसके प्रति वह तटस्थ भाव जो उसे सम्प्रेषित कर सके. अज्ञेयजी के अनूसार संवेदनायें प्रेरणा कैसे बनती हैं--------
अनुभूति को ग्रहण कर उसे रचना के रूप में लाने तक रचनाकार एक अन्तःप्रक्रिया से गुजरता है. वह यन्त्रणा भरी प्रक्रिया अनुभूति को सम्प्रेषित कर लेने के बाद ही शान्त होती है.
डॉ0 नवीन चन्द्र लोहनी के अनुसार , वास्तव में संवेदना ही वह तत्व है जो कि कवि को काव्य रचना हेतु अग्रसर करती है. संवेदन जितना तीव्र होगा, उतना ही उसका असर होगा और उसकी अभिव्यक्ति भी उसकी शक्ति व क्षमता के साथ हो सकेगी और उसका प्रभाव भी उतना ही क्रान्तिकारी होगा. संवेदन की यही आप्लावित करने वाली शक्ति रचनाकार को दृष्टा, उन्मेष्टा, सन्द्याता, सार्थवाह एवम् सृष्टा बनाती है. यही वह शक्ति है जो रचनाकार को इतर जगत को तृतीय नेत्र से देखने की प्रेरणा देती है और परघटित एवम् इतर जगत में भावविचार एवम् कल्पना के सहारे प्रवेश कर उसे रचना के माध्यम से सम्प्रेषित करने का माध्यम प्रदान करती है.

मृदुला गर्ग कहती हैं, जिस तरह प्रकृति और परिवेश के बीच संतुलन बिगड़ने से पर्यावरण प्रदुषित होने लगता है, वैसे ही स्व और परिवेश का संतुलन बिगड़ने से साहित्य का स्तर गिरने लगता है. स्व उससे मेरा अभिप्राय है मौलिक चिंतन और अनुभूति से बना आत्मबोध. आत्मबोध और युगबोध एक दूसरे के पूरक होते हैं. इस सूक्ष्म और गत्यात्मक संतुलन को बनाये रखने के लिये साहित्यकार को जिस सहजवृत्ति की आवश्यकता होती है, वह है सम-अनुभूति या समभाव. मात्र सहानुभूति नहीं. सहानुभूति में दृष्टा और दृश्य में दूरी बनी रहती है. कर्ता, कर्म से एकात्म नहीं होता. इसलिये उससे राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, समाज सुधारक, चिकित्सक आदि का काम भले चल जाये, सर्जक का नहीं चलता. यहाँ सम-अनुभूति या समभाव संवेदना का ही पर्याय है,जो काव्य की मूल प्रेरणा है.

मुक्तिबोध ने संवेदना के दो रूप- संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन बताते हुये उसका काव्य में उपस्थित होना अनिवार्य माना है, जगत जीवन के संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना के भीतर समाई मार्मिक आलोचना दृष्टि के बिना कवि कर्म अधूरा रह जाता है.
यह संवेदना रचनाकार के मानस को किस प्रकार प्रभावित करती है और किस प्रकार रचना प्रक्रिया में अनिवार्य सहयोग देती है, इसके बारे में मुक्तिबोध कहते हैं, लेखक, जो कि अपनी संवेदनात्मक क्षमता से साहित्य सृजन करता है, वह संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार परिचालित होता है. वह अपनी अभिव्यक्ति का पैटर्न भी, संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार बनाता है. दूसरे शब्दों में, संवेदनात्मक उद्देश्य, एक ओर आत्म चरित्रात्मक होते हैं, तो दूसरी ओर वे एक विशेष प्रकार का कलात्मक प्रभाव उत्पन्न करने के लिये अभिव्यक्ति का विशेष पैटर्न गूँथते हैं, तो तीसरी ओर ये संवेदनात्मक उद्देश्य अपने धक्के से ह्रदय में स्थित जीवन अनुभवों अर्थात् ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान को जाग्रत और संकलित करके उन्हें अपनी दिशायें प्रवाहित करते हैं. जाग्रत अन्तश्चेतना में अर्थात् इस प्रक्रिया में कल्पना उत्तेजित होकर संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार अनुभवों के साकार चित्र प्रस्तुत करती जाती है.
इस प्रकार भारतीय काव्य शास्त्रियों के मतों, पाश्चात्य काव्य शास्त्रियों के मतों व आधुनिक विचारकों के मतों के अनुशीलन से यही निष्कर्ष निकलता है कि साहित्य की मूल प्रेरणा संवेदना ही है.
उदयभानु हंस द्वारा प्रस्तुत मुक्तक भी इसी मत की पुष्टि करते हैं कि साहित्य की मूल प्रेरणा संवेदना है------------
      जब कवि का ह्रदय भाव-प्रवण होता है
      अनुभूति का भी स्रोत गहन होता है
      लहराने लगे बिन्दु में ही जब सिन्धु
      वास्तव में वही सृजन का क्षण होता है।

      जब भाव के सागर में ज्वार आता है
      अभिव्यक्ति को मन कवि का छटपटाता है
      सीपी से निकलते हैं चमकते मोती
      संवेदना से ही सृजन का नाता है।



      









मत आँख मिलाओ मुझसे, प्रखर धूप में जल जाओगे।
मैं  सूरज हूँ  भोर का, साँझ  का  नहीँ।।


डॉ0 मंजूश्री गर्ग

Wednesday, April 11, 2018



आजकल प्रकृति के मनोरम दृश्यों को निहारने का किसी के पास समय ही नहीं है, इसी सामाजिक संवेदना की अभिव्यक्ति कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में की है-

इस सोते संसार बीच,
जग कर, सज कर रजनी बाले।
कहाँ बेचने ले जाती हो,
ये गजरे तारों वाले?
मोल करेगा कौन,
सो रही उत्सुक आँखें सारी।
मत कुम्हलाने दो,
सूनेपन में अपनी निधियाँ न्यारी।
निर्झर के निर्मल जल में,
ये गजरे हिला-हिला धोना।
लहर हहर कर यदि चूमे तो,
किंचित् विचलित मत होना।
होने दो प्रतिबिम्ब विचुम्बित,
लहरों में ही लहराना।
लो मेरे तारों के गजरे
निर्झर स्वर में यह गाना।
यदि प्रभात तक कोई आकर,
तुम से हाय! न मोल करे।
तो फूलों पर ओस-रूप में
बिखरा देना सब गजरे।
          रामकुमार वर्मा