हिन्दी साहित्य
Monday, April 9, 2018
मेरा तन एक मन्दिर है,
जिसमें एक परकोटा दिल है,
जिसमें
तुम
रहती हो।
तुम्हारी स्वर्णिम आभा से,
आलोकित है जीवन अपना।
साँस भी लेता हूँ तो धीरे से,
कहीं ठेस तुम्हें न लग जाये।
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
1 comment:
krishnasgrace
April 10, 2018 at 2:54 AM
बहुत सुन्दर विचार है
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बहुत सुन्दर विचार है
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