काशी नागरी प्रचारिणी सभा
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
काशी नागरी प्रचारिणी सभा
की स्थापना 16 जुलाई, सन् 1893 ई0 में बनारस के क्वींस कॉलेज के तीन छात्रों(बाबू
श्याम सुंदर दास, पं0 रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमार सिंह) ने मिलकर की.
यद्यपि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा के विकास के लिये बहुत कार्य किया लेकिन
उस समय भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था और स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाई का
माध्यम अंग्रेजी ही था. तब बाबू श्याम सुंदर दास, पं0 रामनारायण मिश्र और ठाकुर
शिवकुमार सिंह के मन में अपनी बोली, अपनी भाषा को समृद्ध करने का विचार आया. इसी
उद्देश्य से काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की. इसके प्रथम अध्यक्ष बाबू
राधाकृष्ण दास थे. पहले ही साल भारत के ख्याति प्राप्त विद्वान महामहोपाध्याय पं0
सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जार्ज ग्रियर्सन, अंबिका दास व्यास, चौधरी प्रेमधन इस
सभा के सदस्य बने.
नागरी प्रचारिणी सभा का
उद्देश्य हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का राष्ट्रव्यापी प्रचार व प्रसार करना था.
उस समय न्यायालयों व अन्य सरकारी संस्थाओं में हिंदी का प्रयोग नहीं होता था. या
तो अंग्रेजी में होता था या उर्दू भाषा में. हिंदी शिक्षा की व्यवस्था मिडिल क्लास
तक वैकल्पिक रूप तक सीमित थी. नागरी प्रचारिणी सभा के अथक प्रयास से सात साल में
ही देश के साठ हजार विशिष्ट नागरिकों ने सरकार से पं0 मदन मोहन मालवीय व बाबू
श्याम सुंदर दास के नेतृत्व में न्यायालय व सरकारी संस्थाओं में हिंदी भाषा व
देवनागरी लिपि के प्रयोग की अनुमति माँगी. सरकार को देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता
सिद्ध करने के लिये एक दस्तावेज भेजा. देवनागरी लिपि को विश्व में सबसे अधिक
वैज्ञानिक लिपि साबित करने वाला यह पहला विस्तृत, प्रामाणिक और सर्वमान्य दस्तावेज
है.
सन् 1895-96 ई0 में नागरी
प्रचारिणी पत्रिका निकाली. श्याम सुंदर दास इसके प्रथम संपादक थे. संपादक मंडल
में गौरीशंकर हीरानंद ओझा, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, जयचंद
विद्यालंकार, डॉ0 सम्पूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे
विद्वान थे. नागरी प्रचारिणी पत्रिका का विश्व भर में सम्मान है. यह हिंदी
की सबसे प्राचीन शोध पत्रिका है. सन् 1899 ई0 में सरस्वती पत्रिका निकाली.
जिसके संपादन मंडल में बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिक प्रसाद, बाबू जगन्नाथ
दास, पं0 किशोरी लाल गोस्वामी तथा बाबू श्याम सुंदर दास थे. बाद में सन् 1902 ई0
से सरस्वती पत्रिका नागरी प्रचारिणी सभा से अलग हो गयी और बाद में सरस्वती पत्रिका का कार्य भार
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संभाला.
नागरी प्रचारिणी सभा के
माध्यम से विद्वानों ने मिलकर हिंदी की बहुमुखी सेवा की- हिंदी वैज्ञानिक कोश की
स्थापना की, हिंदी की हस्त लिखित पुस्तकों की खोज की, हिंदी भाषा का इतिहास,
भाषा-विज्ञान, साहित्य-आलोचना, सम्पादित ग्रंथ, पाठ्य साम्रगी का निर्माण किया. हिंदी
शब्द सागर का निर्माण किया. सन् 1904 ई0 में हिंदी शब्द सागर का
निर्माण कार्य शुरू हुआ. इसके संपादक मंडल में बाबू श्याम सुंदर दास, श्री
बालकृष्ण भट्ट, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अमीर सिंह, जगमोहन लाल वर्मा, लाला
भगवानदीन और रामचन्द्र वर्मा थे. सन् 1916-1928 ई0 में हिंदी शब्द सागर का
प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ. हिंदी शब्द सागर का नया संस्करण सन् 1965-1975
ई0 में प्रकाशित हुआ.
सन् 1905 ई0 में काशी में
कांग्रेस अधिवेशन के समय सर रमेशचंद्र दत्त की अध्यक्षता में एक भाषा सम्मेलन हुआ.
उसमें नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण से लोकमान्य गंगाधर तिलक ने घोषणा की कि
हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है और देवनागरी लिपि वैकल्पिक रूप से भारत
की सभी भाषाओं के लिये प्रयुक्त की जानी चाहिये.
सर तेज बहादुर सप्रु, पं0
गोविंद वल्लभ पंत, काशी नरेश, उदयपुर, ग्वालियर, खेतड़ी, जोधपुर, बीकानेर, कोटा,
बूँदी, रीवां के राजाओं ने, महात्मा गाँधी ने नागरी प्रचारिणी सभा को आर्थिक
सहायता प्रदान की.
नागरी प्रचारिणी सभा ने
आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना की. जिसमें हजारों पत्र-पत्रिकाओँ की फाइल, लगभग
50 हजार हस्तलेख और हिंदी के अऩुपलब्ध ग्रंतों का संग्रह है. डॉ0 श्याम सुंदर दास,
पं0 रामनारायण मिश्र, हीरानंद शास्त्री, मायाशंकर याज्ञिक, डॉ0 सम्पूर्णानंद,
नंददुलारे वाजपेयी, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, कृष्णदेव प्रसाद गौढ़, बेढ़ब बनारसी, आचार्य
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपना पुस्तक संग्रह पुस्तकालय को सौंप दिया.
1 मई, सन् 1910 ई0 में
नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण में अखिल भारतीय सम्मेलन की स्थापना की गयी. इसी
के माध्यम से दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और राष्ट्र भाषा समिति, वर्धा की
शुरूआत हुई.
बाबू श्याम सुंदर दास,
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, लज्जाशंकर झा के सहयोग से
कामता प्रसाद गुरू ने हिंदी व्याकरण की रचना की.
भारत कला भवन नागरी
प्रचारिणी सभा का अत्यंत महत्वपूर्ण कला संग्रहालय है. जो पहले कला परिषद् के नाम
से था. सन् 1929 ई0 को यह नागरी प्रचारिणी सभा को सौंपा गया. 3 मार्च सन् 1930 ई0
को इसका नाम बदलकर भारत कला भवन रखा गया.
नागरी प्रचारिणी सभा के पास आज लगभग 20 हजार से
अधिक पांडुलिपियाँ, 50 हजार से अधिक पुरानी पत्रिकायें और 1.25 लाख से अधिक
ग्रंथों का भंडार है(‘अमर उजाला’ दैनिक समाचार पत्र
के सौजन्य से). सभी विद्वानों के अथक प्रयास के कारण ही विशाल पुस्तकों का भंडार
एकत्र हो पाया. विशाल पुस्तकों के भंडार के कारण ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी
साहित्य का इतिहास लिखने में समर्थ हुये. डॉ0 पीताम्बर बड़थ्याल जी अनुसंधान
कार्य करने में सफल हुये.
नागरी प्रचारिणी सभा के
सतत् प्रयासों के कारण ही हिंदी स्वतन्त्र भारत की राष्ट्र भाषा बनने का गौरव
प्राप्त कर सकी.
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