श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जन्म-तिथि- 21 फरवरी, सन् 1897 ई.
पुण्य-तिथि- 15 अक्टूबर, सन् 1961 ई.
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
छायावाद के चार स्तम्भों में से एक हैं. आपका जन्म बसंत पंचमी के दिन
मेदिनीपुर(बंगाल) में हुआ था. प्रारम्भ में आपको बांग्ला भाषा और अंग्रेजी भाषा ही
आती थी. पत्नी के कहने पर आपने हिन्दी भाषा सीखी और हिन्दी के प्रख्यात कवि हुये.
आपने संस्कृत भाषा का अध्ययन भी घर पर ही किया. आप पर रामकृष्ण परम हंस, स्वामी
विवेकानन्द, श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर का विशेष प्रभाव पड़ा. जिसके कारण आपकी रचनाओं
में आध्यात्मिकता व दार्शनिकता का पुट दिखाई देता है. आप मुक्त छंद के प्रवर्तक
हैं. आपने हिन्दी की विविध विधाओं- उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आदि में लिखा लेकिन
आपको विशेष प्रसिद्धि कवि के रूप में ही मिली. आपके द्वारा लिखित जूही की कली(1916)
छायावाद युग की प्रारंभिक रचनाओं में से एक है जिसे सरस्वती पत्रिका के
संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने प्रकाशित करने से मना कर दिया था.
आपने काव्य में भाव, भाषा, शैली, छन्द सम्बन्धी नये-नये प्रयोग किये.
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
जी ने जीवन पर्यन्त दैवीय, सामाजिक, साहित्यिक, आर्थिक संघर्षों को झेला लेकिन
अपने लक्ष्य से कभी नहीं डिगे. आर्थिक कठिनाईयों के समय अनेक प्रकाशकों के यहाँ
प्रूफ रीडर का काम किया. सन् 1918 ई. से सन् 1922 ई. तक महिषादल राज्य की सेवा की.
सन् 1922 ई. से सन् 1923 ई. तक कलकत्ता में समन्वय का संपादन किया. सन्
1923 ई. में ही मतवाला के संपादक मंडल में शामिल हुये. आप लखनऊ से प्रकाशित
सुधा पत्रिका से भी संबंधित रहे. बाद में इलाहाबाद में आकर रहे और
स्वतन्त्र लेखन व अनुवाद कार्य किया.
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
के प्रमुख काव्य-संग्रह हैं- अनामिका(2), परिमल, तुलसीदास, बेला, नये पत्ते,
कुकुरमुत्ता, सांध्य काकली, आदि. आपके प्रमुख उपन्यास हैं- बिल्लेसुर बकरिहा,
कुल्ली भाट, प्रभावती,आदि. आपके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं- लिली, सखी, चतुरी चमार,
आदि. आपकी रचनाओं के उदाहरणों से आपके द्वारा अभिव्यक्त भावों की विविधता स्पष्ट
होती है जैसे- प्रस्तुत पंक्तियाँ जूही की कली से उद्धृत हैं जो
स्वछंदतावादी विचारधारा को दर्शाती हैं-
विजन-वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी स्नेह
स्वप्न मग्न
अमल कोमल तन तरूणी जूही की
कली
दृग बंद किये, शिथिल
पत्रांक में
बासन्ती निशा थी।
एक और उदाहरण है सरोज
स्मृति से. हिन्दी काव्य का शायद प्रथम शोक गीत है जो किसी कवि ने अपनी पुत्री
की मृत्यु पर लिखा है-
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल
दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही.
ऐसे ही एक और कविता
प्रगतिवादी विचारधारा को अभिव्यक्त करती है. इसमें कवि ने गुलाब को पूँजीपतियों का
और कुकुरमुत्ता को सर्वहारावर्ग का प्रतीक बनाकर अपनी बात कही है-
अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबू,
रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने
अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है
केपीटलिस्ट।
X x x x
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊँचे पर
चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने के चुगा मैं।
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