Saturday, December 16, 2017


विरह देता जग को.........

धुआं सा उड़ता जाता बादल
साथ लिये विरह-व्यथा गगरी।
कभी गरजता, कभी बरसता,
पर ना कहीं चपला को पाता।
सिर पटक-पटक पृथ्वी पर,
है मिटा रहा अपने को।
पर ना व्यर्थ उसका मिटना,
जो हरित-शतदलों में है उगता।
मिट कर भी वह मिटता नहीं,
अमर कहानी कहता जग में।

उड़ती जाती चपला दिन-रात
मन लिये मिलन की प्यास।
कभी तड़पती, कभी चमकती,
पर ना कहीं बादल को पाती।
फेंक कर आह पृथ्वी पर,
मिटा रही अपने को।
पर व्यर्थ उसका मिटना,
जो बनती काल जीवों का।
मिटने को वह भी मिटती,
पर देती जग को रोदन।

हैं दोनों विरह-व्यथित,
पर है दोनों में अन्तर महान।
एक विरह देता जग को रोदन,
एक विरह है जग को वरदान।

           डॉ0 मंजूश्री गर्ग














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