परिवर्तन
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
जब तक पर्वत बन पाषाण खड़ा
तब तक हर लहर टकरा दूर भागती,
जो शीतल करने आती उसको.
जब तक अटल बन पाषाण खड़ा
तब तक हर पवन टकरा भागती
जो सुगंध लुटाने आती उसको.
किन्तु अचानक हुआ परिवर्तन
खण्डित कर अपने तन को
लहरों का साथ स्वीकार किया
स्थान-स्थान का विचरण किया.
हर क्षण शीतल बयार मिली
हर क्षण लहरों से करूणा मिली
दुःख-पाप सब धुल गये
गंगा-यमुना का संगम पाकर.
फिर किसी ने किया स्थापित
बनवाकर सुन्दर सा परकोटा.
जिसने कभी लहरों को किया अस्वीकार
वही अब स्नान करता प्रेम से.
जिसने कभी उनकी सुगंध भी न चाही
वही उन पुष्पों को करता स्वीकार.
रूप, रंग, वर्ण, विभा के साथ,
जिसने कभी अरूण आलोक और
चन्द्रालोक को किया अस्वीकार.
वही है लुटा रहा प्रकाश का दान.
शिव प्रतीक बन विश्व में
पूजनीय बन रहा जग में.
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