हिन्दी गजल साहित्य में ‘इश्क मजाजी’ से ‘इश्क हकीकी’ की ओर पेंगे बढ़ाती गजलें
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
डॉ0 कुँअर बेचैन ने कहा है-
“गजल! तुम गजल भी हो और प्रेमिका
भी. प्रेमिका हो, इसलिये तुम वह परमसत्ता भी हो, जिसने संसार को प्रेम करना
सिखाया. इसलिये यदि कहा जाये कि तुम प्रेम, प्रेमिका और परमसत्ता तीनों ही हो, तो
अनुचित नहीं. सचमुच ही तुम प्रस्थान बिन्दु भी हो, पथ भी हो और पथ लक्ष्य भी.” इन पंक्तियों को पढ़कर
स्पष्ट होता है कि गजल ही वह राह है जिसमें चलकर इश्क ‘इश्क मजाजी’ से ‘इश्क हकीकी’ की ओर पेंगे बढ़ाता है.
इसीलिये भारत में गजल का सर्वाधिक प्रसार सूफी सन्तों द्वारा हुआ, जिन्होंने
मानवीय और ऐन्द्रिय प्रेम के साथ-साथ दिव्य एवम् अतीन्द्रिय प्रेम की अभिव्यक्ति
के लिये, विभिन्न धर्मों एवम् सम्प्रदायों में एकता स्थापित करने के लिये गजल को अपनाया.
हिन्दी गजलों में भी कुछ
गजलें ऐसी लिखी जा रही हैं जिनमें संसार की अलौकिक सत्ता के प्रति प्रेम, मिलन की
उत्कंठा, उसकी सर्वव्यापकता को अभिव्यक्त किया गया है जो इस संसार का संचालन करता
है लेकिन किसी को दिखाई नहीं देता. संसार की इसी अलौकिक सत्ता को कोई राम कहकर
पुकारता है, कोई कृष्ण कहकर पुकारता है, कोई अल्लाह कहकर पुकारता है, कोई गुरू
कहकर पुकारता है तो कोई जीसस क्राइस्ट कहकर पुकारता है. हिन्दी गजलों के प्रस्तुत
अंशों में संसार की इस अलौकिक सत्ता की सर्वव्यापकता को अभिव्यक्त किया गया है-
उसमें खुशबू है तो फिर सबको
ही खुशबू देगा
फूल धरती पै खिले चाहे पानी
में।
डॉ0 कुँअर बेचैन
दिल से, आँखों से, किसी ठौर
से देखा न गया
वो उजाला था मगर गौर से
देखा न गया।
डॉ0 कुँअर बेचैन
तू कर्तार कहाँ था पहले,
जगदाधार कहाँ था पहले
मैं अरूप जब था, तब तेरा
नाम प्रचार कहाँ था पहले।
मैंने ज्यों ही आँखें खोलीं
चहुदिशि तेरी ही छवि देखी
मम सौन्दर्य पिपासा के बिन
तू साकार कहाँ था पहले।
शंभुनाथ शेष
कोई तलाश अब कहीं बाकी नहीं
रही
सब कुछ मुझे तो मेरे ही
अन्दर नजर आया।
अजीज आजाद
हाथ नहीं छू पाये जिसको आँख
न जिसको देख सके
क्यों हमको अब उसकी ही आवाज
सुनाई देती है।
विजय कुमार
सिंघल
ध्यान उसके जो डूबे डूबते
ही हम गये
वो तो ऐसा सिन्धु था जिसकी
न कोई थाह थी।
डॉ0 रमा सिंह
गजल में ईश्वर की आराधना का
रूप भजन व प्रार्थना की आराधना से भिन्न होता है. साधारण रूप में गजल के पढ़ने पर
ऐसा लगता है कि शायर ने ये पंक्तियाँ अपनी प्रेमिका के सम्बन्ध में कही हैं लेकिन
जब उन पंक्तियों का हम सूक्ष्मता से भाव ग्रहण करते हैं तो ज्ञात होता है कि ये
पंक्तियाँ परमसत्ता के विषय में कही गयी हैं और यही दार्शनिक गजलों की विशेषता है
कि ये ‘इश्क मजाजी’ से ‘इश्क हकीकी’ का मार्ग प्रशस्त करती
हैं. हिन्दी भाषी गजलकारों ने भी कुछ गजलें ऐसी कही हैं जिन्हे पढ़कर प्रथम ‘इश्क मजाजी’ का आभास होता है किन्तु वास्तव
में भाव ‘इश्क हकीकी’ के ही प्रकट हो रहे होते
हैं जैसा कि प्रस्तुत गजल में-
अगर मुझको तेरा सहारा न
होता
तो मेरा यहाँ पर गुजारा न
होता।
कहीं डूब जाती भँवर बीच किश्ती
अगर इसको तुमने उबारा न
होता।
कहीं रूप की चाँदनी यह
छिटकती
अगर चन्द्रमा ने सँवारा न
होता।
महेन्द्र कुमार सिंह
पहले-पहल उपर्युक्त
पंक्तियों को पढ़ने में ऐसा लगता है कि शायर अपनी प्रेमिका
के विषय में कह रहा है कि
यदि उसको उसके प्रेम का सहारा न होता तो वह जीवन भँवर में अकेले फँस जाता, लेकिन
इसमें दूसरा भाव अधिक स्पष्ट है कि हम ईश्वर के नाम के सहारे ही जीवन की मुश्किलों
को सहन कर पाते हैं. ऐसी ही दार्शनिक गजलों के कुछ और उदाहरण हिन्दी गजलों में
देखने को मिलते हैं जैसे-
दिल में हमने जब भी झाँका
बस मिलन की चाह थी
दूसरा कोई ना था बस आह केवल
आह थी।
डॉ0 रमा सिंह
उपर्युक्त शेअर में प्रथम
प्रिय से मिलने की उत्कंठा की अभिव्यक्ति हुई है साथ ही दूसरे भाव में परमसत्ता से
मिलने की व्याकुलता भी अभिव्यक्त हो रही है-
यह मत समझो उसके घर दिन चार
का आना-जाना है
यह तो तब से है जब से संसार
का आना-जाना है।
डॉ0 कुँअर
बेचैन
उपर्युक्त शेअर की प्रथम
पंक्ति को पढ़कर ऐसा लगता है कि शायर अपनी प्रेमिका के घर आने-जाने के अपने
सम्बन्ध को कह रहा है लेकिन उपर्युक्त शेअर की दूसरी पंक्ति पढ़ते ही यह स्पष्ट हो
जाता है कि शायर परमसत्ता के विषय में कह रहा है जिसके यहाँ हमारा तुम्हारा नहीं
अपितु सभी का आना-जाना तभी से है, जब से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है.
हिन्दी गजलों में इश्क
मजाजी के माध्यम से तो इश्क हकीकी की अभिव्यक्ति की ही गयी है किन्तु कुछ उदाहरण
ऐसे भी देखने को मिलते हैं जिनमें हिन्दी भाषी
46.
गजलकारों ने सीधे इश्क
हकीकी का वर्णन किया है जैसे-
हम आत्मा से मिलने को
व्याकुल रहे मगर
बाधा बने हुये हैं ये रिश्ते
शरीर के।
जहीर कुरेशी
यह और बात है कि सोया नहीं
हूँ बरसों से
लगेगा तुमको मगर एक पल
सुलाने में।
राम प्रकाश गोयल
रूप तेरा पारदर्शी रंग हैं
तेरे हजार
अब समझ में आ गया तेरा
बहकाना मुझे।
तेरा घर जल है, पवन है, है
धरा है आसमान
यह तेरे ऊपर है कब चाहेगा
बुलवाना मुझे।
डॉ0 वीरेन्द्र
शर्मा
ये सोच के मैं उम्र की
ऊँचाइयाँ चढ़ा
जाने कहाँ, जाने कहाँ, जाने
कहाँ है तू।
पिछले कई जन्मों से तुझे
ढूँढ़ रहा हूँ
जाने कहाँ, जाने कहाँ, जाने
कहाँ है तू।
डॉ0 कुँअर बेचैन
हिन्दी गजल साहित्य में कही
गयी दार्शनिक गजलों की एक और विशेषता है कि इन गजलों में भारतीय दर्शन की
अभिव्यक्ति हुई है जैसे-
उन्मुक्त कुंतलों की नशीली
सी छाँव में
सो भी गया तो मुझको जगा लेगी
चाँदनी।
आँचल में मेरे लाख अँधेरों
के दाग हों
फिर भी यकीन है कि निभा
लेगी चाँदनी।
डॉ0 कुँअर बेचैन
जीवन उसका ही साथी है उसका
ही मनमीत बना है
पीड़ाओं की धरती पे जो
खुशियों की फसलें बोता है।
कविता ‘किरण’
हिन्दी गजलों में दार्शनिक
पक्ष की गजलें बहुत ही कम कही जाने पर भी उनके महत्व को हम नगण्य नहीं कह सकते
क्योंकि हिन्दी गजलों के विविध रंगों में से सूक्ष्म ही सही किंतु दार्शनिक रंग
दिखाई अवश्य देता है.
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