Friday, February 3, 2017

विक्रमी संवत्-हिन्दू नव-वर्ष

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

विक्रम संवत् हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है. यह संवत् 57 ई0पू0 आरम्भ हुआ था. इसके प्रणेता उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य थे. बारह महीने का एक वर्ष और सात दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रमी सम्वत् से ही शुरू हुआ. महीने का हिसाब सूर्य और चन्द्रमा की गति पर रखा जाता है. बारह राशियाँ बारह सौर मास हैं. जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्राति होती है. पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है, जैसे-
महीनों के नाम    पूर्णिमा के दिन नक्षत्र, जिसमें चन्द्रमा होता है
1.चैत्र                    चित्रा, स्वाति
2.बैशाख                  विशाखा, अनुराधा
3. ज्येष्ठ                 ज्येष्ठा, मूला
4.आषाढ़                  पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, सतभिषा
5.श्रावण                  श्रवण, धनिष्ठा
6. भाद्रपद                पूर्वाभाद्र, उत्तराभाद्र
7. आश्विन, क्वार          अश्विन, रेवती, भरणी
8.कार्तिक                 कृतिका, रोहिणी                                         9.मार्गशीर्ष(अगहन)          मृगशिरा, उत्तरा
10. पौष(पूस)              पुनर्वसु, पुण्य
11. माघ                 मघा, अश्लेषा
12. फाल्गुन                   पूर्वाफाल्गुन, उत्तर फाल्गुन, हस्त

 चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा 26.3 दिन में पूरी करता है. सौर वर्ष का मान 365 दिन, 15 घड़ी, 22 पल और 57 विपल है. चंद्र वर्ष का मान 354 दिन, 22 घड़ी, एक पल और 23 विपल है. इस प्रकार चंद्र वर्ष सौर वर्ष से 11 दिन 3 घाटी 48 पल छोटा है. इसीलिये हर तीसरे वर्ष विक्रमी संवत् में एक महीना जोड़ दिया जाता है, जिसे अधिक मास, पुरूषोत्तम मास या मल मास के नाम से जाना जाता है. अधिक मास शुक्ल पक्ष की पड़वा से शुरू होता है और कृष्ण पक्ष की अमावस तक माना जाता है. अधिक मास में कोई भी शुभ कार्य नहीं होता, जैसे- गृह प्रवेश, नामकरण संस्कार, विवाह संस्कार, आदि. इसीलिये इसे मल मास कहते हैं. लेकिन अधिक मास में पूजा अर्चना, भगवत् भजन करने का विशेष महत्व है, इसलिये इसे पुरूषोत्तम मास भी कहते हैं. अधिक मास के कारण ही दीपावली का त्यौहार हर तीसरे वर्ष लगभग 20 दिन आगे हो जाता है.

हिन्दू धर्म के सभी व्रत और त्यौहार विक्रमी संवत् के कलैण्डर के अनुसार ही होते हैं.
आजकल अधिकांश ज्योतिषी हिन्दू नव वर्ष का प्रारम्भ चैत्र मास में अमावस के दूसरे दिन गुड़ी पड़वा से मानते हैं जबकि विक्रमी संवत् प्रारम्भ हुये आधा महीना बीत चुका होता है. उनका मानना है कि गुड़ी पड़वा बहुत शुभ दिन है- इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी और चैत्री नवरात्र भी इसी दिन से शुरू होते हैं. दोनों ही बातें सही हैं, लेकिन जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की तब ना हम थे ना तुम. ना पृथ्वी थी, ना चन्द्र और सूर्य. फिर कौन चन्द्र-सूर्य की गणना करता और कैसे. जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की तब तो ब्रह्मांड में पूर्ण अंधकार ही होगा. धीरे-धीरे करके एक-एक ज्योति पिंड प्रकाशित हुये होंगे.

फिर विक्रमी संवत् की शुरूआत तो उज्जैन के महाराजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने की थी, वो भी कितने शुभ दिन जब चारों ओर रंगों की धूम मची है. बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब सभी सूखे-गीले रंगों से सरोबार हर्षोल्लास से होली का पर्व मना रहे हैं. प्रकृति ने भी जी भर कर रंग बिखेरे हैं. जहाँ जंगलों में टेसू के फूल खिल रहे हैं, वहीं उपवनों में गुलाब, गेंदा न जाने कितने प्रकार के रंग-बिरंगे फूल खिल रहे हैं. वृक्षों में होड़ लगी है खड़-खड़ पुराने वस्त्र बदल नये वस्त्र धारण करने की. आम के बागों में बौर की महक है और कोयल ने फिर से नव राग में कुहुकना शुरू कर दिया है------

नये साल ने दस्तक दी
हवाओं ने करवट ली
चाँद फिर लगा मुस्कुराने
सूरज ने फैलाईं नव किरणें
पक्षी नव राग में गायें
फूल नव सौरभ बरसायें।

                    डॉ0 मंजूश्री गर्ग
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