कविवर वृंद के दोहे
अपनी पहुँच विचारि कै, करतब
करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए, जेति
लाँबि सौर।।1।।
विद्या धन उद्यम बिना, कहौ
जु पावै कौन।
बिना डुले ना मिलै, ज्यों
पँखा की पौन।।2।।
भले बुरे सब एक सौं, जो लौं
बोलत नाहिं।
जानि परतु हैं काक-पिक, ऋतु
बसंत के माहिं।।3।।
सबै सहाय सबल कै, कोउ न
निबल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपहिं
देत बुझाय।।4।।
कारज धीरे होतु है, काहे
होत अधीर।
समय पाय तरूवर फलै, केतक
सीचौं नीर।।5।।
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