Wednesday, January 3, 2018


कविता

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

नजर उठीं,
उठकर लड़ी,
लड़कर झुकीं,
झुककर खिली।

तुम भँवरा बने,
हम फूल बने,
तुम गूँजे,
फिर उड़े,
हम खिले,
फिर बुझे।

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