संत कबीरदास- समाज सुधारक
के रूप में
डॉ. मंजूश्री गर्ग
संत कबीरदास समसामयिक के साथ-साथ एक सार्वकालिक, सार्वभौमिक समाज सुधारक हैं.
डॉ. मंजूश्री गर्ग
अर्थात् कबीरदास ने समाज को सुधारने के लिये जो काव्योक्तियाँ कही हैं वे
जितनी सार्थक कबीर के समय में थीं उतनी ही सार्थक आज के समय में भी हैं और पृथ्वी
के किसी भी समाज के लिये उपयोगी हैं. समाज में फैले जातिगत भेदभाव, वैमनस्य,
रूढ़िवादिता, आडम्बर पर तो कबीर ने चोटें करी हैं साथ ही वे सबसे पहले समाज की
सूक्ष्मतम इकाई व्यक्ति को सुधारने की बात करते हैं. यदि किसी भी समाज का प्रत्येक
प्राणी सद्गुण सम्पन्न होगा तो स्वयं ही एक अच्छे समाज का निर्माण हो जायेगा.
कबीर व्यक्ति के सदाचरण, सत्संग, सद्गुरू के सानिध्य पर जोर देते हैं. सदाचरण
के लिये कबीर व्यक्ति से प्राणिमात्र से प्रेम करने के लिये कहते हैं-
प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न
हाट बिकाय।
राजा प्रजा जिस रूचै, सिर
दे सौ ले जाय।।
जिहि घट प्रीति न प्रेम रस,
पुनि रसना नहिं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि
भए बेकाम।।
सदाचरण में ऐसे व्यक्ति सहायक होते हैं तो समय-समय पर हमारे दोषों से हमें
अवगत कराते रहते हैं ताकि हम उन्हें दूर करके सदाचारी बन सकें. इसीलिये कबीर कहते
हैं-
निंदक नियरे राखिये, आँगन
कुटी छवाय।
बिन साबुन पानी बिना,
निर्मल करे सुभाय।।
अपने मन के विकारों को दूर करने के लिये कबीर कहते हैं-
केसो कहा बिगारियो, जो मूडौ
सौ बार।
मन को क्यों नहीं मूड़िये,
जा में बिषै विकार।।
व्यक्ति के सदाचरण में सत्संगति का महत्वपूर्ण स्थान है, इसीलिये कबीर ने
सत्संगति के महत्व का वर्णन किया है-
कबीर सोई दिन भला, जा दिन
साधु मिलाय।
अंक भरे भरि भेरिये, पाप
शरीर जाय।।
कबीर संगति साधु की, निष्फल
कभी न होय।
ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी
कोय।।
लेकिन साधु की संगति करने से पहले साधु-असाधु की पहचान करनी भी जरूरी है
इसीलिये कबीर कहते हैं-
भेष देख मत भूलये, बुझि
लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन
की पहचान।।
और ऐसे आडम्बरधारी साधुओं से दूर रहने के लिये कहते हैं जो कपटी होते हैं-
बाना पहिरै सिंह का, चलै
भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता
खावै फाल।।
व्यक्ति के सदाचारी बनने में सद्गुरू का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है जो
समय-समय पर हमें सही राह दिखाता रहता है-
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है,
गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर
बाहैं चोट।।
सद्गुरू ही हमें मुक्ति की राह दिखाता है और ईश्वर से मिलने का मार्ग प्रशस्त
करता है इसीलिये तो कबीर कहते हैं-
गुरू गोविंद दोनों खड़े,
काके लागौ पाय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविंद
दियो बताय।।
कबीर जी ने स्वयं गृहस्थ जीवन जिया था. गृहस्थी व्यक्ति के सदाचारी गुणों के
विषय में भी कबीर ने कहा है-
जौ मानुष गृह धर्म युत,
राखै सील विचार।
गुरूमुख बानी साधु संग, मन
वचन सेवा सार।।
माँगन गै सो मर रहै, मरै जु
माँगन जाहिं।
तिनते पहले वे मरे, होत करत
हैं नाहिं।।
साईं इतना दीजिए, जामें
कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु
न भूखा जाय।।
किसी से भी कटु वचन कहने को मना करते हैं-
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि
करै तन छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै
अमृत अपार।।
कबीर ने अपने समय में फैले हिन्दु-मुस्लिम, ऊँच-नीच, जातिगत भेदभाव के बीच फैले वैमनस्य को दूर करने का भी भरसक
प्रयास किया. हिन्दु-मुस्लिम दोनों के ही धर्म में फैले आडम्बर का विरोध किया है-
पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं
पूजुँ पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाये
संसार।।
काँकर-पाथर जोड़ के मस्जिद
लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या
बहरा हुआ खुदाय।।
माला फेरत जुग भया, गया न
मन का फेर।
कर का मनका डार के, मन का
मनका फेर।।
दिनभर रोजा रखत हैं, रात
हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे
खुशी खुदाय।।
वास्तव में कबीर के कथनों का यदि किसी भी समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी भी
धर्म का अनुयायी हो, चाहे वो संत हो, साधु हो, गृहस्थ हो, गुरू हो, शिष्य हो, पालन
करे तो स्वतः ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो जायेगा।
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