हिन्दी साहित्य
Wednesday, December 12, 2018
मैं चुपचाप
लरजती रहती हूँ।
तुम चुपके से आ के
मुझे चूम जाते हो।
आलिंगन में ले के
एकाकार हो जाते हो।
मृदु मुस्कानों के
उपहार दे जाते हो।
डॉ0 मंजूश्री गर्ग
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