Thursday, December 27, 2018




छायावाद

डॉ0 मंजूश्री गर्ग

छायावाद विशेष रूप से हिन्दी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्यधारा है जो लगभग सन् 1918 ई0 से सन् 1930 ई0 तक की युगवाणी रही, जिसमें प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी प्रभृति मुख्य कवि हुए और सामान्य रूप से भावोच्छास-प्रेरित स्वछंद कल्पना-वैभव की वह स्वछंद-प्रवृत्ति है जो देश-काल-गत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा-आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती रही है. स्वच्छंदता की उस सामान्य भावधारा की विशेष अभिव्यक्ति का नाम हिन्दी साहित्य में छायावाद पड़ा.
                                  डॉ0 नामवर सिंह
छायावाद की परिभाषा-
सन् 1920 ई0 में श्री शारदा पत्रिका में प्रकाशित हिन्दी में छायावाद शीर्षक निबंध के अनुसार मुकुटधर पांडेय ने कहा है- अंग्रेजी या किसी पाश्चात्य साहित्य या बंग साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखने वाले सुनते ही समझ जायेंगे कि यह शब्द मिस्टिसिज्म के लिये आया है.
सन् 1921 ई0 में सरस्वती पत्रिका के जून अंक में सुशील कुमार द्वारा लिखित हिन्दी में छायावाद नामक निबंध में छायावादी कविता को कोरे कागद की भाँति अस्पष्ट, निर्मल ब्रह्म की विशद छाया, वाणी की नीरवता, निस्तब्धता का उच्छवास एवम् अनंत का विलास कहा गया है.
सन् 1928 ई0 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पुस्तक काव्य में रहस्यवाद के विवेचन से ज्ञात होता है कि तात्विक दृष्टि से उन रचनाओं को रहस्यवाद कहा जाता था और रूप विधान की दृष्टि से छायावाद.

सन् 1930 ई0 के आस-पास हिन्दी छायावादी कविताओं की आलोचना के सिलसिले में अंग्रेजी के रोमांटिक कवि वर्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स, आदि के नाम लिये जाने लगे और धीरे-धीरे छायावाद अंग्रेजी के रोमैंटिसिज्म(स्वच्छंदतावाद) का पर्याय बन गया. आजकल हिन्दी साहित्य में छायावाद से अभिप्राय उन्हीं कविताओं से होता है जिन्हें यूरोपीय साहित्य में रोमैटिसिज्म की संज्ञा दी जाती है और जिसके अन्तर्गत रहस्य भावना और स्वच्छंदता-भाव के साथ-साथ और अनेक विशेषतायें मिलती हैं.
डॉ0 नामवर सिंह लिखते हैं,  छायावाद विविध, यहाँ तक कि परस्पर विरोधी सी प्रतीत होने वाली काव्य-प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है औऱ छानबीन करने पर इन प्रवृत्तियों के बीच आन्तरिक संबंध दिखाई पड़ता है. स्पष्ट करने के लिये यदि भूमिति से उदाहरण लें तो कह सकते हैं कि यह एक केन्द्र पर बने हुये विभिन्न वृत्तों(co-centric circles) का समुदाय है. इसकी विविधता उस शतदल के समान है जिसमें एक ग्रन्थि से अनेक दल खुलते हैं. एक युग चेतना ने भिन्न-भिन्न कवियों के संस्कार, रूचि और शक्ति के अनुसार विभिन्न रूपों में अपने को अभिव्यक्त किया; कहीं एक पक्ष का अधिक विकास हुआ तो अन्यत्र दूसरे पक्ष का-

एक छवि के असंख्य उडुगण
एक ही सब में स्पन्दन।

छायावाद एक प्रवहमान काव्यधारा थी, एक ऐतिहासिक उत्थान के साथ उसका उदय हुआ और उसी के साथ उसका क्रमिक उत्थान और पतन हुआ. छायावाद के अठारह बीस वर्षों के इतिहास में अनेक विशेषतायें जो आरम्भ में थीं वे कुछ दूर जाकर समाप्त हो गयीं और फिर अनेक विशेषतायें जुड़ गयीं.
छायावाद काव्य-धारा की तीन प्रमुख विशेषतायें हैं-
1.     व्यैक्तिकता
2.     सूक्ष्मता
3.     भावुकता
1.     व्यैक्तिकता-
छायावाद व्यक्तिवाद की कविता है, जिसका आरंभ व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करने और करवाने से हुआ, किन्तु पर्यवसान संसार और व्यक्ति की स्थायी शत्रुता में हुआ. व्यक्तिगत आनुभूतियों की अभिव्यक्ति में आधुनिक कवियों ने जो निर्भीकता और साहस दिखलाया वह पहले किसी कवि में नहीं मिलता. आधुनिक लिरिक अथवा प्रगीत इसी व्यैक्तिकता के प्रतीक हैं. मध्य युग के संत कवि और रीति काल के रीतिवादी कवि प्रायः निर्वैयक्तिक ढ़ंग से अपनी बात कहते थे. संतों और भक्तों के पदों में जो निर्वैक्तिक ढ़ंग दिखाई पड़ता है, वह केवल भगवान के प्रति निवेदन है अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में कवि प्रायः मौन ही रहे हैं, लेकिन छायावादी कवियों ने मैं शैली अपनाकर धीरे-धीरे शक्ति संचय कर अपने सुख-दुःख काव्य में अभिव्यक्त किये. कहीं-कहीं प्रकृति के माध्यम से रहस्यात्मकता का पुट देकर अपने मनोभावों को अभिव्यक्त किया. श्री सुमित्रानंदन पंत ने अपने काव्य-संग्रह- उच्छ्वास, आँसू, ग्रंथि में प्रणयानुभूति की अबाध अभिव्यक्ति की है. श्री जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित आँसू में भी मूलतः मानवीय प्रेम के मनोभावों को अभिव्यक्त किया गया है लेकिन रहस्यात्मकता का पुट होने के कारण सभी प्रेमानुभूतियाँ असीम की ओर इंगित करती हैं. छायावाद की प्रणय संबंधी व्यैक्तिकता का प्रसार क्रमशः जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी हुआ. श्री सूर्य कांत त्रिपाठी निराला का विप्लवी बादल इसी व्यैक्तिक विद्रोह का अग्रदूत है. सरोज स्मृति और वन-बेला भी इसके उदाहरण हैं. श्रीमती महादेवी वर्मा ने अपने रहस्य-गीतों के माध्यम से आत्माभिव्यक्ति ही की है. वस्तुतः यह व्यक्तिवाद ही छायावादी काव्य के विविध वृत्तों का केंद्र बिंदु है.
उदाहरण-

धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित न कर सका।
जाना तो अर्थोगमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित काय।
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अतः दधि मुख।

            सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला


सूक्ष्मता-
व्यैक्तिक अभिव्यक्ति की आंकाक्षा ने छायावादी कवियों को व्यक्तिनिष्ठ बनाया, वे संसार की सभी वस्तुओं को आत्मरंजित करके देखने के अभ्यस्त हो गये. विश्व की व्यथा से स्वयं व्यथित होने की अपेक्षा वह अपनी व्यथा से विश्व के व्यथित होने की कल्पना करने लगा. द्विवेदी युग का काव्य आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में जहाँ इतिवृत्तात्मक था वहाँ छायावादी काव्य रागात्मक हो उठा. प्रकृति चित्रण करते समय भी छायावादी कवियों का ध्यान प्राकृतिक दृश्यों का स्थूल आकार का वर्णन करने की अपेक्षा प्रकृति के अन्तः स्पन्दन की ओर गया है. छायावादी कवियों ने प्रकृति के छिपे हुये इतने सौन्दर्य-स्तरों की खोज की कि वह आधुनिक मानव के भौतिक और मानसिक विकास का सूचक बन गया. वास्तव में प्रकृति ने ही मानव-मन में सौन्दर्य-बोध जगाया और मनुष्य ने उद्बुद्ध होकर प्रकृति में नवीन सौन्दर्य की खोज की. छायावाद के व्यक्तिनिष्ठ दृष्टिकोण ने प्रकृति-सौन्दर्य में ही सूक्ष्मता नहीं दिखाई वरन् मानव-सौन्दर्य में भी स्थूल शारीरिकता की जगह स्वस्थ, माँसल तथा भावात्मक सुषमा की प्रतिष्ठा की. इन्हीं सब बातों के कारण आलोचकों ने छायावाद को स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म का विद्रोह कहा है.
उदाहरण-

मैं नीर भरी दुःख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली.
                             महादेवी वर्मा


भावुकता-
व्यक्तिवाद के मूल से ही छायावाद में भावुकता की अतिशयता का समावेश हुआ. आधुनिक परिस्थितियों ने इस युग के व्यक्ति को अधिक संवेदनशील बना दिया; वह अपने उल्लास, आह्लाद, व्यथा, आदि किसी को भी दबा सकने में असमर्थ थे. छायावादी कवि में उच्छल भावुकता का अबाध उद्गार है यहाँ तक की भावुकता छायावाद की पर्याय हो गयी. यद्यपि भावों की व्यंजना पहले भी कवियों ने की है किन्तु उनमें संयम और मर्यादा थी.
उदाहरण-
हर-एक पत्थरों में वह मूर्ति ही छिपी है
शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया, वही है।

इस भाव को हमारे उसको तो देख लीजे
धरता है वेश वो ही जैसा कि उसको दीजे
यों ही अनेक-रूपी बनकर कभी पुजाया
लीला उसी की जग में सबमें वही समाया।

                                       जयशंकर प्रसाद


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