मेरे मिलन में
तुम हो प्रिये! मेरे विरह में भी तुम।
मेरी जीत में
तुम हो प्रिये! मेरी हार में भी तुम।
मेरी मुस्कान
में तुम हो प्रिये! मेरे अश्रु
में भी तुम।
और मेरी साँसों
की लय में भी तुम ही तुम हो प्रिये!
डॉ. मंजूश्री गर्ग
3.शिरिष के फूल
डॉ. मंजूश्री गर्ग
रंग बिखेरे, जग निखरे, जब खिले प्यारे
शिरिष।
गाँव तक चलकर शहर, जब देखने पहुँचे
शिरिष।।
सूखे बीज बजे
झाँझर से
लम्बी-लम्बी
फलियों में।
सघन छाँव और भाव
अनूठे
भरता शिरिष नित
कलियों में।।
ऋता शेखर मधु
शिरिष तीव्र गति से बढ़ने वाला मध्यम आकार का सघन छायादार
वृक्ष है. इसकी टहनियाँ चारों ओर फैली रहती हैं. शिरिष का वृक्ष भारत के गर्म
प्रदेशों में 8000 फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है. शिरिष के वृक्ष तीन प्रकार के
होते हैं- 1.लाल शिरिष, 2.पीला शिरिष, 3.सफेद शिरिष.
शिरिष के वृक्ष का तना भूरे रंग का कटा-फटा होता है, इसके अंदर की छाल
लाल, कड़ी, खुरदुरी और मध्य
में सफेद होती है जिसमें सैपोनिन, टैनिन नाम के रालीय तत्व पाये जाते हैं. इसीलिये इसकी छाल
से उत्पन्न होने वाले लाल एवम् भूरे रंग के चिपचिपे पदार्थ को अरबी गोंद के स्थान
पर प्रयोग किया जाता है.
शिरिष के वृक्ष के पत्ते एक से लेकर ड़ेढ़ इंच तक लम्बे, इमली के पत्ते
जैसे, लेकिन आकार में कुछ बड़े होते हैं. बसंत के आगमन के साथ ही शिरिष के वृक्ष पर
कोमल, कमनीय, भीनी-भीनी सुगंध वाले पीले, लाल व सफेद फूल खिलने लगते हैं. फूल जितने कोमल होते हैं, बीज उतने ही कठोर
होते हैं. शीत ऋतु में 4 से 12 इंच तक लंबी, चपटी, पतली एवम् भूरे रंग की फलियाँ बन जाती
हैं, जिनमें सामान्यतः
6 से 22 सख्त बीज होते हैं. शीत ऋतु में पत्तियों के झड़ने के साथ ही ये फलियाँ
सूखकर करारी हो जाती हैं. हवा से उत्तेजित फलियों के खड़खड़ाने से उत्पन्न हुई
आवाज के कारण अंग्रेजी में इसे सिजलिंग ट्री या फ्राई वुड ट्री भी कहा जाता है.
शिरिष के वृक्ष की जड़ धरती की ऊपरी सतह पर फैलती है जिसके
कारण अन्य पेड़-पौधे नहीं पनप पाते, किन्तु कॉफी और चाय के पौधों के लिये
इसकी घनी छाया अत्यन्त लाभकारी है. इसकी जड़ें मिट्टी संरक्षण के लिये अत्यन्त
उपयोगी हैं.
वनस्पति जगत के वैज्ञानिकों ने सुप्रसिद्ध इटालियन
वैज्ञानिक “अल्बीजी” के सम्मान में शिरिष को “अल्बीजिया लेबेक” का नाम दिया है.
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आधुनिक ओवन का विकास
डॉ. मंजूश्री गर्ग
प्राचीनकाल में अग्नि के आविष्कार के साथ मानव ने अपना भोजन पकाना प्रारम्भ कर दिया था, जो कि सुपाच्य, स्वादिष्ट व स्वास्थ्यवर्धक भी था. धीरे-धीरे मानव ने अपनी आवश्यकता व साधनों के अनुसार चूल्हों के रूपों का आविष्कार किया. प्रारम्भ में मानव कुछ लकड़ियों के ढ़ेर को जलाकर उसी पर मिट्टी के बर्तन रखकर खाना पकाते थे. फिर कुछ ईंटों का तीन तरफ से घेरा बनाकर, एक तरफ लकड़ी जलाने की जगह खाली रखकर चूल्हे का प्रारम्भिक रूप तैयार हुआ. इसके ऊपर आसानी से खाने बनाने का बर्तन टिक जाता था और एक ही तरफ से हवा जाने के कारण आग भी ठीक से लगती थी, अपनी आवश्यकता के अनुसार आँच को कम या ज्यादा भी किया जा सकता था. फिर इन्हीं चूल्हों को मजबूत आकार देने के लिये ईंटों पर भूसा मिश्रित मिट्टी का लेप करके सुखा लिया जाता था. चूल्हे का यह रूप सबसे अधिक प्रचलित रहा. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तो प्रायः सभी घरों की रसोई के एक कोने में या रसोई के बीच में स्थायी चूल्हा बना हुआ अवश्य पाया जाता था. फिर इस चूल्हे में एक बदलाव आया और यह अचल से चल भी हो गया. नीचे लोहे के आधार पर पाये लगाकर ऊपर चूल्हा बनाया जाने लगा. जिसे अपनी सुविधानुसार अंदर-बाहर ले जाया जा सकता था. चूल्हे का ही एक और प्रतिरूप प्रकाश में आया, ये प्रायः लोहे की बाल्टियों से बनाये जाते थे, इसमें बाल्टी के लगभग मध्य में छेद करके लोहे की सलाखें रखी जाती थीं और नीचे के हिस्से में चौकोर सा हिस्सा काटकर निकाल दिया जाता था और ऊपर के हिस्से में चारों तरफ मिट्टी-भूसा मिश्रित लेप लगा दिया जाता था और ऊपर तीन पाये बर्तन टिकाने के लिये बनाये जाते थे, ऊपर हैंडिल होने के कारण अंगीठियाँ सुविधानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जायी जा सकती थीं. इन अँगीठियों में नीचे से हवा जाने के कारण आग आसानी से जल जाती थी, पहले छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़े या कच्चे कोयले(जली हुई लकड़ी को बुझाने पर प्राप्त ठंड़ा कार्बन) ही जलाये जाते थे, फिर धीरे-धीरे बाजार में पत्थर का कोयला आने लगा. पत्थर के कोयलों को सुलगते कच्चे कोयलों या जलते लकड़ी के टुकड़ों पर रख दिया जाता था--- दस-पन्द्रह मिनट में पत्थर के कोयले सुलगने लगते थे, ये आँच काफी समय तक रहती थी. सर्दियों के मौसम में तो पत्थर के कोयले की अँगीठियों से कमरा गर्म करने का काम भी लिया जाता था. किन्तु कभी-कभी ये अँगीठियाँ हानिकारक भी हो जाती थीं, जबकि असावधानीवश बंद कमरे में सोते समय अँगीठी जलाकर छोड़ दी जाती थी. पत्थर के कोयले ले निकलने वाली कार्बनडाइआक्साइड गैस कमरे से बाहर न निकल पाने के कारण सो रहे व्यक्तियों की मृत्यु का कारण भी बन जाती थी।
पत्थर के कोयले
ने काफी समय तक क्रांति मचाये रखी. कोयले की खानें अधिकांशतः बिहार राज्य में हैं.
पत्थर के कोयले ने हलवाईयों का काम भी काफी आसान कर दिया, बड़ी-बड़ी भट्टियों में
काफी समय तक जलने वाली पत्थर के कोयले की अँगीठी और भट्टियों का ही प्रचलन
अधिकांशतः रहा. यद्यपि इस समय विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ खाना पकाने के अन्य
साधन भी प्रकाश में आने लगे थे. जैसे- लकड़ी के बरूदे की अँगीठी, स्टोव, हीटर, एल.
पी. जी. पर चलने वाला गैस चूल्हा.
जब से लकड़ी काटने के लिये जगह-जगह आरा मशीनें लगीं, तो लकड़ी चीरने पर काफी मात्रा में लकड़ी का बरूदा निकलने लगा. लकड़ी के बरूदे की अँगीठियों को जलाने में इसी बरूदे का सदुपयोग होता था, इसका आकार पत्थर के कोयले की अँगीठी से एकदम भिन्न था, ये प्रायः एक फुट लम्बी और और आठ या दस इंच व्यास की होती थी. केन्द्र में एक पाइप होता था और ऊपर ढ़क्कन. अँगीठी भरते समय बीच में पाइप लगा देते थे और चारों तरफ बरूदा भर दिया जाता था, अँगीठी में नीचे की तरफ तीन इंच व्यास का एक छेद होता था, जिसमें एक गोलाकार लकड़ी जलायी जाती थी. छोटे परिवारों के लिये ये अँगीठियाँ बहुत उपयोगी सिद्ध हुई. ईंधन का खर्च कम पड़ता था, क्योंकि इसमें सुविधा थी कि एक बार काम करने के बाद इसे बंद करके दोबारा भी आवश्यकतानुसार जलाया जा सकता था.
कैरोसिन के
स्टोव ने क्रांति मचा दी, आग जलाना बहुत ही आसान हो गया, जहाँ अँगीठियों, चूल्हों
में आग जलाने में घंटों लग जाते थे, वहीं स्टोव पर दो-चार मिनट में ही आग जल जाती
थीं. अब कोई भी मेहमान किसी समय भी घर पर आये चाय बनाने का काम मिनटों में होने
लगा. स्टोव के भी दो रूप हैं--- गैस का स्टोव और बत्ती वाला स्टोव. धीरे-धीरे
बिजली से चलने वाले हीटर का प्रचलन भी बढ़ने लगा.
एल. पी. जी. के
चूल्हे आधुनिक युग की महत्वपूर्ण देन है, इसमें साधारणतया दो बर्नर होते हैं लेकिन
आजकल तीन बर्नर और चार बर्नर के चूल्हे भी आ रहे हैं माचिस की तीली जलाते ही
सैकेंड में आग जल जाती है. महानगरों में साठ के दशक से ही इसका प्रचलन शुरू हो गया
था किंतु धीरे-धीरे छोटे-छोटे शहरों में ही नहीं गाँवों और कस्बों में भी इसका
प्रचलन बढ़ गया. अस्सी के दशक में तो हलवाईयों ने भी पत्थर के कोयले की भट्टियों
से निजात पा ली और गैस चालित भट्टियों पर अपना पकवान बनाने का काम शुरू कर दिया.
बायो-गैस प्लांट के अनुसंधान के बाद तो गाँवों के घर-घर में गैस के चूल्हे दिखाई
देने लगे, इससे एक तो लकड़ी के चूल्हे व अँगीठी के धुँऐं से होने वाले प्रदूषण से ग्रामीण
महिलाओं को राहत मिली, दूसरे गाँवों में बहुतायत की मात्रा में पाये जाने वाले
गोबर का भी सदुपयोग होना शुरू हो गया.
आधुनिक युग में खाने पकाने के नित नये साधनों का प्रचलन बढ़ रहा है, इनमें से ओवन, हॉट प्लेट, ओ. टी. जी., कुकिंग रेंज, माइक्रोवेव ओवन का महत्वपूर्ण स्थान है. ओवन के बाजार में आने से घर में केक, पेस्ट्री, बिस्कुट,आदि बेकरी की खाद्य वस्तुयें बनाने में सुविधा हो गयी. माइक्रोवेव ओवन तो आधुनिक युग का क्रांतिकारी आविष्कार है. इसमें खाना बहुत ही कम समय में बनता है और क्रांतिकारी आविष्कार है. इसमें खाना बहुत ही कम समय में बनता है और पौष्टिकता भी अधिक बनी रहती है. माइक्रोतरंगों की तीव्रता का पता इसी बात से चलता है कि यदि माइक्रोवेव ओवन में कोई धातु का बर्तन रख दें, तो मिनटों में पिघल जाता है, इसीलिये माइक्रोवेव ओवन में धातु के बर्तन में खाना वर्जित है, काँच के बर्तन ही इसके लिये अधिक उपयुक्त हैं. उपर्युक्त सभी साधन बिजली पर आश्रित हैं.
वास्तव में
आधुनिक ओवन के विकास की कहानी बहुत ही रोमांचकारी व आश्चर्यजनक है. यह न केवल
सदियों पुराने मानव-जीवन में हुये परिवर्तन को दर्शाती है वरन् स्वतंत्रता के
पश्चात् भारत में हुई तीव्र प्रगति को भी दर्शाती है क्योंकि भारत में खाना पकाने
के साधनों में नित नये परिवर्तन पिछले पाँच दशकों में ही हुये हैं.
पत्र का सफर
डॉ. मंजूश्री गर्ग
अपने प्रियजनों
से दूर रहने पर उनकी कुशलता प्राप्त करने की व अपने कुशल समाचार प्रियजनों तक
पहुँचाने की उत्कंठा सदैव प्रत्येक व्यक्ति के मन में बनी रहती है. इस आदान-प्रदान
का सशक्त माध्यम पत्र व्यवहार ही है. जिसमें हम विस्तार से अपने ह्रदय के उद्गार
अभिव्यक्त कर सकते हैं.
प्राचीन समय
में पत्र व्यवहार करना आज के युग जैसा सरल व सुगम नहीं था क्योंकि तब ना तो सड़कों
का समुचित विकास हुआ था, ना यातायात के साधनों का और ना ही डाक-सेवा का विकास हुआ
था. राजा-महाराजा अवश्य घोड़ों व ऊँटों के माध्यम से दूतों के द्वारा पत्र भेजकर
राज्य के विभिन्न हिस्सों की जानकारी प्राप्त करते थे. किन्तु आम आदमी के लिये
पत्र-व्यवहार करना असम्भव ही था.
डाक-सेवा का विकास होने पर प्रारम्भ में डाकिया
पैदल ही एक गाँव से दूसरे गाँव जाकर पत्र वितरित करते थे, फिर ऊँटों व घोड़ों के
माध्यम से पत्र भेजे जाने लगे. उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में डाक-सेवा का चहुमुँखी
विकास हुआ, तेजी से सड़कों का निर्माण हुआ. बस, रेल, हवाई जहाज के माध्यम से डाक
भेजी जाने लगी. सभी बड़े-छोटे शहरों में सरकारी डाक-घर खोले गये, जहाँ डाक एकत्र
होती है और फिर विभिन्न स्थानों में डाकिये के द्वारा वितरित की जाती है. पत्र पर
डाक-टिकट लगा कर पोस्ट-कार्ड, अन्तर्देशीय व लिफाफे के माध्यम से आम आदमी अपने
प्रियजनों को पत्र भेज सकते हैं. देश में ही नहीं, विदेशों में भी पत्र भेजना सरल
हो गया है.
इक्कीसवीं सदी,
मोबाइल और इंटरनेट के युग में जहाँ हम पलक झपकते ही सात समुन्दर पार बैठे व्यक्ति
से भी बात कर सकते हैं वहाँ अभी भी पत्र की महत्ता कम नहीं हुई है; क्योंकि पत्र में हम न केवल विस्तार से अपने मनोभावों को
अभिव्यक्त कर सकते हैं वरन् सहेज कर सालों साल रख सकते हैं, बार-बार उन्हें पढ़
सकते हैं.
गर्मी की छुट्टियाँ.......
डॉ. मंजूश्री गर्ग
गर्मी की छुट्टियाँ यानि घर-घर समर कैम्प............
सत्तर के दशक
में कॉन्वेंट स्कूलों की बाढ़ नहीं आयी थी, सभी बच्चे हिन्दी मीडियम स्कूलों में
पढ़ते थे. 20 मई को रिजल्ट आने के बाद 7-8 जुलाई तक की गर्मी की छुट्टियाँ हो जाती
थीं. पुरानी किताबों से पीछा छूटता था और नयी किताबों के आने में लगभग दो महीने का
समय रहता था. तब तक बिल्कुल फ्री; चाहे जो मन हो
करो, जहाँ मर्जी घूमो.
कुछ दिन नानी
के यहाँ जाना होता था, वहाँ पहले से मौसी आई हुई हैं उनके बच्चे हैं, मामा के
बच्चे हैं. एक साथ घर में पंद्ह-बीस बच्चों का जमघट. दिनभर साथ खेलना, खाना,
लड़ना-झगड़ना और फिर दोस्ती करना. कुछ नया सीखने को मिलता था औऱ कुछ दूसरों को
सिखाने का मौका.
आज की तरह
सत्तर के दशक में घर-घर हॉबी क्लासिज लगनी शुरू नहीं हुईं थीं किन्तु एक-दूसरे से
कुछ ना कुछ नया सीखने को मिलता ही था. स्कूलों में कागज पर ड्राइंग करते ही हैं
लेकिन जब फेब्रिक कलर का पता चला तो छुट्टियों में फेब्रिक पेंटिंग का भी शौक शुरू
हो गया. दादी, नानी से रात को किस्से-कहानी सुनने में भी बहुत आनंद आता था. बुआजी
बम्बई से आई हैं उनसे भेलपूरी सीख कर बनाने में बहुत आनंद आया. हम अरवे-चने तो
खाते ही थे उसमें नमकीन मिला, प्याज-आलू मिला, खट्टी-मीठी चटनी मिला, भेलपूरी बनाने
में बहुत आनंद आने लगा.
वास्तव में तब
दस महीने की पढ़ाई के बाद बच्चों को तरोताजा होने का, रूटीन पढ़ाई से छुट्टी मिलने
का भरपूर मौका मिलता था, अपनी सोच, अपना शौक विकसित करने का पूरा मौका मिलता था.
आज की तरह नहीं कि स्कूल बंद हुये नहीं कि बच्चों की हॉबी क्लासिज शुरू. सुबह दो
घंटे डांस क्लास जाना है, शाम को पेंटिंग क्लास जाना है. बचे हुये समय में स्कूल
से मिला होमवर्क करना है, उसके लिये कोचिंग क्लास जाना है. बस एक जगह से दूसरी जगह
भागम-भाग..............
प्राकृतिक चिकित्सा
डॉ. मंजूश्री गर्ग
हमारा शरीर पंच
भौतिक तत्वों से बना है- जल, वायु, अग्नि, आकाश, पृथ्वी. इन पाँचों तत्वों के संतुलन से ही व्यक्ति का शारीरिक
व मानसिक स्वास्थ्य स्वस्थ रहता है. प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति अलग होती है और
अलग-अलग समय पर इन तत्वों का प्रभाव भी अलग-अलग होता है. व्यक्ति को स्वस्थ रहने
के लिये अपनी प्रकृति को समझना चाहिये, उसी के अनुसार अपने खाने-पीने का ध्यान
रखना चाहिये. जैसे-
जल- प्रायः हमारे शरीर में 70% पानी की
मात्रा होती है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति में कम-ज्यादा भी होती है. कभी हमें पानी
की अधिक आवश्यकता होती है और कभी कम. अपनी प्रकृति को समझकर ही पानी का उपयोग करना
चाहिये.
वायु- वायु का सेवन हम प्रत्येक
पल श्वास के माध्यम से करते ही रहते हैं. हर समय संभव ना भी हो, तो दिन में कुछ
मिनट या घंटे हमें शुद्ध ताजा हवा में टहलना या बैठना अवश्य चाहिये.
अग्नि- प्रत्येक व्यक्ति में अग्नि
होती है, इसके बिना व्यक्ति जी नहीं सकता. इसीलिये मृत व्यक्ति का शरीर ठंडा होता
है. आवश्यकतानुसार अग्नि(तेज) का सेवन करना चाहिये. चाहें वो शुद्ध सूर्य की
किरणों से प्राप्त हो या भोज्य पदार्थों के माध्यम से.
आकाश- आकाश को शून्य भी कहते हैं.
हमें दिन में कुछ मिनट ध्यान अवश्य करना चाहिये जिससे हमारा मन-मस्तिष्क शून्य हो
जाता है अर्थात् पुरानी बातों से हट जाता है. शून्य पटल पर ही स्वस्थ विचारों का
आगमन होता है.
पृथ्वी- पृथ्वी का सबसे बड़ा गुण
गुरूत्वाकर्षण है. जिस व्यक्ति के पैर धरती पर टिके रहते हैं, वही अगला कदम
सोच-समझकर उठाता है और धरती के महत्व को समझता है.
अपने इन्हीं
पाँचों तत्वों को समझना और उनके अनुसार आचार-विचार करना प्राकृतिक चिकित्सा का मूल
मंत्र है.