श्रीकृष्ण और रूक्मिणी जी
का विवाह
डॉ. मंजूश्री गर्ग
रूक्मिणी कुण्डिनपुर के राजा भीष्मक की पुत्री थीं, उनके पाँच भाई थे. एक दिन
नारद जी कुण्डिनपुर गये तो राजा के कहने पर रूक्मिणी का हाथ देखकर कहा कि, “यह कन्या अत्यन्त
भाग्यशाली, सर्वगुण सम्पन्न है, इसका विवाह परमब्रह्म परमेश्वर से होगा”. यह जानकर राजा को अत्यन्त
प्रसन्नता हुई. एक बार कुछ याचक गण कुण्डिनपुर में जाकर श्री कृष्ण चरित्र का गान
करने लगे. राजा भीष्मक ने उन्हें महल में बुला लिया, वहाँ रूक्मिणी ने भी वह सुना,
उनके मन में श्री कृष्ण के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया. इसी प्रकार एक बार नारद जी
ने द्वारिका में जाकर श्री कृष्ण से रूक्मिणी के गुणों का वर्णन किया, तो श्री
कृष्ण के मन में भी रूक्मिणी के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया. रूक्मिणी तो दिन-रात
श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न रहने लगीं और पार्वती जी का पूजन कर श्री श्याम
सुन्दर को पति रूप में प्राप्त करने का वर माँगने लगीं. रूक्मिणी ने यह प्रण लिया
कि मैं मनमोहन के अतिरिक्त किसी अन्य से विवाह नहीं करूँगी. रूक्मिणी के इस निर्णय
से उनके माता-पिता भी सन्तुष्ट थे.
एक बार राजा भीष्मक ने राज सभा में
रूक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण के साथ होने का प्रस्ताव रखा, किन्तु उनके बड़े
पुत्र रूक्माग्रज ने इस पर बड़ा विरोध प्रकट करते हुये कहा, “उस गँवार ग्वाले(श्री
कृष्ण) की जाति-पाँति का कुछ पता नहीं, अभी कुछ दिनों से बढ़ गये हैं तो भी उनकी
गणना श्रेष्ठ कुल में नहीं होती. राजन् आप रूक्मिणी का विवाह चँदेरी के राजा
शिशुपाल के साथ करिये”. यद्यपि रूक्मेश, आदि अन्य भाई, सभासद राजा के मत से ही सहमत
थे, लेकिन रूक्माग्रज के आगे एक न चली और उसने ज्योतिषियों से शुभलग्न पूछकर एक
ब्राह्मण के हाथ टीका शिशुपाल को भेज दिया.
जब रूक्मिणी को ज्ञात हुआ कि रूक्माग्रज ने राजा का विरोध कर उसकी लगन शिशुपाल के यहाँ भेज दी है तो उन्हें बहुत दुःख हुआ. वह मन में विचार करने लगीं कि मैं तो अन्तःकरण से श्री कृष्ण को अपना पति मान चुकी हुँ अब किसी ओर को अपना पति कैसे मानूँगी. बहुत सोच विचार कर रूक्मिणी ने एक पत्र श्रीकृष्ण ने नाम लिखा, “हे देव! मैं मन, वचन और कर्म से आपको अपना पति मान चुकी हुँ. किसी अन्य के लिये मेरे ह्रदय में स्थान नहीं है. मेरा बड़ा भाई रूक्माग्रज मेरा विवाह शिशुपाल से करवाने जा रहा है, उसका विरोध करने में मेरे पिता व अन्य सभासद असमर्थ हैं. अतः आपसे निवेदन है कि आप विवाह से एक दिन पूर्व आकर मेरी लाज रख लें. जब मैं देवी जी की पूजा करने नगर से बाहर जाऊँगी , तब वहाँ से आप मुझे अपने साथ ले जाइयेगा. आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगे. आपके चरणों की दासी- रूक्मिणी” और एक बुद्धिमान ब्राह्मण के हाथ श्रीकृष्ण के पास द्वारिका भेज दिया.
श्री कृष्ण को पत्र देते हुये ब्राह्मण ने भी श्री कृष्ण से कहा कि “हे दया सिन्धु! कुण्डिनपुर की राजकुमारी
दिन-रात तुम्हारा ध्यान रखती हैं, उसके भाई रूकमाग्रज ने सबका विरोध कर उसकी सगाई
शिशुपाल से कर दी है किन्तु रूक्मिणी मन, वचन, कर्म से आपके साथ ही विवाह करने का
संकल्प कर चुकी हैं. अतः आप शीघ्र से शीघ्र कुण्डिनपुर चलने की कृपा कीजिये”. श्री कृष्ण ने ध्यान से
ब्राह्मण के वचन सुने और रूक्मिणी द्वारा भेजा पत्र भी पढ़ा. पत्र पढ़कर श्री
कृष्ण अत्यन्त प्रसन्न हुये और एकान्त में ले जाकर ब्राह्मण से कहा कि- “हे ब्राह्मण देवता! जब से नारद जी से रूक्मिणी
के रूप, गुणों को सुना है, तब से मैं भी उससे प्रेम करने लगा हूँ. अभी आप विश्राम
करिये, सुबह हम दोनों कुण्डिनपुर चलेंगे.”
प्रातः काल होने पर श्री
कृष्ण ने दारूक सारथि से रथ मँगवाया और ब्राह्मण के साथ कुण्डिनपुर को चल दिये.
पीछे बलराम जी सेना सहित श्री कृष्ण की सहायता के लिये आ गये. कुण्डिनपुर पहुँच कर
श्री कृष्ण राजा भीष्मक के बाग में ठहर गये. ब्राह्मण के मुख से श्री कृष्ण के आने
का समाचार सुनकर रूक्मिणी अत्यन्त प्रसन्न हुईं. राजा भीष्मक को भी जब श्री कृष्ण
के आने का समाचार मिला तो वह भी अत्यन्त प्रसन्न हुये और अपने चारों छोटे पुत्रों
के साथ रत्नाभूषणादि लेकर श्री कृष्ण से मिलने बाग में पहुँचे. राजा भीष्मक ने मन
का सब हाल श्री कृष्ण से कह दिया कि किस तरह रूक्माग्रज के सामने वह विवश हैं.
शिशुपाल भी बारात लेकर कुण्डिनपुर पहुँच गया, उसको जनवासे में ठहराया गया और राजा
ने उत्तमोत्तम पदार्थों के साथ बारात का स्वागत किया.
रुक्माग्रज को जब श्री कृष्ण और
बलराम के आने का समाचार मिला तो वह अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसे लगा कि पिता ने
उन्हें बुलाया है, लेकिन राजा ने मना कर दिया कि मैंने कृष्ण, बलराम को नहीं
बुलाया. तब रूक्माग्रज ने शिशुपाल और जरासन्ध के पास जाकर कहा कि यहाँ कृष्ण और
बलराम भी आये हुये हैं, अतः अपने सेनापतियों को सावधान कर दो.
विवाह के दिन रूक्मिणी अपनी सखियों
के साथ गौरी पूजन के लिये नगर के बाहर देवी मन्दिर के लिये चलीं. उस समय शिशुपाल
ने अपने पचास हजार सैनिक भी रूक्मिणी की रक्षा के लिये साथ भेज दिये. मन्दिर में
पहुँचकर रूक्मिणी ने गौरी का विधिपूर्वक पूजन किया और प्रार्थना की कि “हे गौरी माता! मैंने बचपन से ही आपकी
सेवा की है. आप मेरे मन की दशा जानती हैं. अतः आप ऐसा वरदान दें कि मुझे मनवांछित
वर प्राप्त हो.” पूजा, अर्चना कर रूक्मिणी मन में श्याम सुन्दर से मिलने की
आशा लिये मन्दिर से निकलीं. तभी आनंदकंद श्री कृष्ण का रथ वहाँ आ गया. श्याम
सुन्दर को देखकर रूक्मिणी व सखियाँ अत्यन्त प्रसन्न हुईं. श्री कृष्ण ने रथ रूक्मिणी
के बिल्कुल समीप ही खड़ा कर दिया. जैसे ही रूक्मिणी ने लजाते हुये अपना हाथ बढ़ाया
वैसे ही श्री कृष्ण ने रूक्मिणी को अपने बायें हाथ से पकड़कर रथ में बैठा लिया और
शंख बजाते हुये आगे बढ़ गये. शिशुपाल के सैनिक उन्हें देखते ही रह गये. श्री कृष्ण
अपना रथ तीव्र गति से द्वारिका की ओर ले जाने लगे. उन्होंने देखा कि रूक्मिणी कुछ
घबरायी हुई हैं तब उन्होंने रूक्मिणी से कहा, “हे रूक्मिणी! तुम चिंता न करो, मैं
द्वारिका पहुँचकर तुमसे विधिवत विवाह करूँगा”. यह कहकर अपने गले की माला
रूक्मिणी को पहना दी.
जब रूक्माग्रज और शिशुपाल
को ज्ञात हुआ कि श्री कृष्ण रूक्मिणी का हरण करके ले गये हैं तो वे अपनी-अपनी
सेनाओं के साथ व जरासन्ध, दन्तवक्र, आदि राजा जो शिशुपाल की बारात में आये हुये
थे, श्री कृष्ण से युद्ध करने चल दिये. श्री कृष्ण-बलराम की सेना व रूक्माग्रज,
आदि की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ. श्री कृष्ण रूक्माग्रज को मारने ही वाले थे
कि रूक्मिणी के कहने पर उसे जीवन दान दे दिया. अन्य सेना को भी तहस-नहस कर श्री
कृष्ण और बलराम रूक्मिणी के साथ द्वारिका पहुँचे. वहाँ राजा उग्रसेन और वसुदेव ने
सब परिवार जनों के साथ उनकी अगवानी की और प्रसन्नतापूर्वक राजमन्दिर में ले गये.
वसुदेव जी ने अपने पुरोहित गर्ग मुनि को बुलाकर शुभ लग्न में श्री कृष्ण जी के साथ
रूक्मिणी जी का विवाह करा दिया.
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