Tuesday, July 29, 2025


यादों के समन्दर में, यादों की नावें,

यादों की नावों में, यादें सवार,

दूर क्षितिज तक, नजरें पहुँचें जहाँ तक,

दिखती हैं यादें ही यादें हर तरफ।।


            डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Monday, July 28, 2025


बैर करो तो रावण सा राम से,

मरोगे तो भी तर जाओगे।

प्यार करो तो मीरा सा कृष्ण से,

बिष भी पिओगे तो जी जाओगे।।


            डॉ. मंजूश्री गर्ग

  

Sunday, July 27, 2025


शब्दों के वाणों से जब घायल होते हैं

अपने ही अपनों के दुश्मन होते हैं।

वाणी पे संयम से यदि काम लें

कितने ही महाभारत रूक सकते हैं।।


            डॉ. मंजूश्री गर्ग

Saturday, July 26, 2025


यादों की पुरवाई चली,

नयनों की गगरी छलक गयी।

 

            डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Friday, July 25, 2025


वृत्त बनातीं

पानी से पानी में ही

पानी की बूँदें।


            डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Thursday, July 24, 2025


अँधेरे कब रूके हैं उजालों के आगे।

निराशायें कब रूकी हैं आशाओं के आगे।

आकाश कब दूर है उड़ानों के आगे।

मंजिल कब दूर है चाहतों के आगे।।

 

                          डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Wednesday, July 23, 2025


खिलने की उम्र में, बंदिशें हजार थीं।

कुंद है कली तो, कोशिशें नाकाम हैं।।


            डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Tuesday, July 22, 2025


  चलो फिर से बचपन जीते हैं,

बारिश के पानी में नावें चलाते है।


        डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Monday, July 21, 2025

       फल देने को वृक्ष झुके, जल देने को बादल।

तुम क्यों तने खड़े, हुये जो देने लायक।।

             

        डॉ. मंजूश्री गर्ग

Sunday, July 20, 2025

 

पं. नरेन्द्र शर्मा

डॉ. मंजूश्री गर्ग

जन्म-तिथि- 28 फरवरी, सन् 1913 ई. खुर्जा(उत्तर प्रदेश)

पुण्य-तिथि- 11 फरवरी, सन् 1989 ई.

पं. नरेन्द्र शर्मा हिन्दी के प्रसिद्ध कवि, लेखक व गीतकार थे। इन्होंने इलाहाबाद विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी व अंग्रेजी में एम. ए. किया था। सन् 1931 ई. में इनकी पहली कविता चाँद में प्रकाशित हुई। शीघ्र ही जागरूक, अध्धयनशील और भावुक कवि नरेन्द्र शर्मा ने नये कवियों में अपना प्रमुख स्थान बना लिया। लोकप्रियता में उनको हरिवंशराय बच्चन के समान ही माना जाता था।

पं. नरेन्द्र शर्मा ने सन् 1934 ई. में प्रयाग से अभ्युदय पत्रिका का संपादन किया और 1934 में ही श्री मैथिलीशरण गुप्त की काव्य कृति यशोधरा की समीक्षा लिखी। शर्मा जी काशी विद्यापीठ में हिन्दी व अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे और स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़े रहे। सन् 1940 ई. में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रशासन विरोधी गतिविधियों के कारण गिरफ्तार कर लिये गये। कुछ समय नजरबंद भी रहे व 19 दिन तक अनशन भी किया। सोहनासिंह जोश, शचीन्द्रनाथ सान्याल, जयप्रकाश नारायण, सम्पूर्णानन्द, आदि महान विभूतियों का सामिप्य मिला। शर्माजी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी स्वराज भवन में हिंदी अधिकारी रहे। शर्मा जी आकाशवाणी से भी संबंधित रहे व हिन्दी फिल्मों के लिये भी गीत लिखे। 3 अक्टूबर, सन्1957 ई. भारतीय रेडियो प्रसारण के क्षेत्र में एक नया अध्याय जुड़ा विविध भारती नाम से। विविध भारती का नाम शर्मा जी ने ही दिया था। विविध भारती पर प्रसारित होने वाले अधिकांश कार्यक्रमों के नाम जैसे-छायागीत, हवामहल, रंगतरंग,आदि शर्माजी के ही दिये हुये हैं। शर्मा जी ने 55 फिल्मों में लगभग 650 गीत लिखे थे। हमारी बात, रत्नघर, फिर भी, ज्वार भाटा, सजनी, मालती माधव, चार आँखें, मेरा सुहाग, बिछड़े बालम, चूड़ियाँ, जेल-यात्रा, भाई-बहन, सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् जैसी अनेक फिल्मों के लिये गीत लिखे। बी. आर. चौपड़ा द्वारा निर्देशित धारावाहिक महाभारत की पट कथा भी पं. नरेन्द्र शर्मा जी ने लिखी थी। शर्मा जी द्वारा रचित अंतिम दोहा भी महाभारत का ही है-

शंखनाद ने कर दिया, समारोह का अंत।

अंत यही ले जायेगा, कुरूक्षेत्र पर्यन्त।।

    पं नरेन्द्र शर्मा

पं. नरेन्द्र शर्मा की प्रसिद्ध रचनायें हैं-

कविता संग्रह- प्रवासी के गीत, मिट्टी और फूल, अग्निशस्य, प्यासा निर्झर, मुठ्ठी बंद रहस्य।

प्रबंध काव्य- मनोकामिनी, द्रौपदी, उत्तर जय सुवर्णा।

काव्य-संचयन- आधुनिक कवि, लाल निशान।

कहानी संग्रह- कड़वी-मीठी बात।

जीवनी- मोहनदास करमचंद गाँधी- एक प्रेरक जीवनी।

पं. नरेन्द्र शर्मा द्वारा रचित स्वागतम् गान 1982 एशियाड के स्वागत गान के लिये चुना गया, जिसे संगीत पं. रविशंकर ने दिया था-

 

स्वागतम् शुभ स्वागतम्

आनंद मंगल मंगलम्

नित प्रियम् भारत भारतम्

 

नित्य निरंतरता नवता

मानवता समता ममता

सारथि साथ मनोरथ का

संकल्प अविजित अभिमतम्

 

आनंद मंगल मंगलम्

नित प्रियम् भारत भारतम्

 

कुसुमित नई कामनायें

सुरभित नई साधनायें

मैत्री मति क्रीड़ांगन में

प्रमुदित बन्धु भावनायें

शाश्वत सुविकसित इति शुभम्

 

आनंद मंगल मंगलम्


Saturday, July 19, 2025


 

 

4.कदंब

 

डॉ. मंजूश्री गर्ग 

 

सूरज ने रंग दी पंखुरियां

शीत पवन ने भेजी गंध,

पात-पात में बजी बाँसुरी

दिशा-दिशा झरता मकरंद।

 

सावन के भीगे संदेशे

लेकर आया फूल कदंब।

                        - शशि पाधा

 

कदंब भारतीय उपमहाद्वीप में उगने वाला शोभाकार वृक्ष है. सुगंधित फूलों से युक्त बारहों महीने हरे, तेजी से बढ़ने वाले इस विशाल वृक्ष की छाया शीतल होती है. इसके पेड़ की अधिकतम ऊँचाई 45 मी. तक हो सकती है. पत्तियों की लंबाई 13 से 23 से. मी. होती है. अपने स्वाभाविक रूप में चिकनी, चमकदार, मोटी और उभरी नसों वाली होती हैं, जिनसे गोंद निकलता है.

चार-पाँच वर्ष का होने पर कदंब में फूल आने शुरू हो जाते हैं. कदंब के फूल लाल, गुलाबी, पीले और नारंगी रंगों के होते हैं. अन्य फूलों से भिन्न कदंब के फूल गेंद की तरह गोल लगभग 55 से. मी. व्यास के होते हैं, जिनमें उभयलिंगी पुंकेसर कोमल शर की भाँति बाहर की ओर निकले होते हैं. ये गुच्छों में खिलते हैं

 

इसीलिये इसके फल भी छोटे गूदेदार गुच्छों में होते हैं, जिनमें से हर एक में चार संपुट होते हैं. इसमें खड़ी और आड़ी पंक्तियों में लगभग 8000 बीज होते हैं. पकने पर ये फट जाते हैं और इनके बीज हवा या पानी से दूर-दूर तक बिखर जाते हैं. कदंब के फल और फूल पशुओं के लिये भोजन के काम आते हैं. इसकी पत्तियाँ भी गाय के लिये पौष्टिक भोजन समझी जाती हैं. इसका सुगंधित नारंगी फूल हर प्रकार के पराग एकत्रित करने वाले कीटों को आकर्षित करता है जिसमें अनेक भौंरे मधुमक्खियाँ तथा अन्यकीट शामिल हैं.

श्याम ढ़ाक आदि कुछ स्थानों में ऐसी जाति के कदंब पाये जाते हैं, जिनमें प्राकृतिक रूप से दोनों की तरह मुड़े हुये पत्ते निकलते हैं. कदंब का तना 100 से.मी. 160 से.मी. होता है।

पुराना होने पर धारियाँ टूट कर चकत्तों जैसी बन जाती हैं. कदंब की लकड़ी सफेद से हल्की पीली होती है. इसका घनत्व 290 से 560 क्यूबिक प्रति मीटर और नमी लगभग 15 प्रतिशत होती है. लकड़ी के रेशे सीधे होते हैं यह छूने में चिकनी होती है और इसमें कोई गंध नहीं होती. लकड़ी का स्वभाव नर्म होता है इसलिये औजार और मशीनों से आसानी से कट जाती है. यह आसानी से सूख जाती है और इसको खुले टैंकों या प्रेशर वैक्यूम द्वारा आसानी से संरक्षित किया जा सकता है. इसका भंडारण भी लंबे समय तक किया जा सकता है. इस लकड़ी का प्रयोग प्लाइवुड के मकान, लुगदी और कागज, बक्से, क्रेट, नाव और फर्नीचर बनाने के काम आती है. कदंब के पेड़ से बहुत ही उम्दा किस्म का चमकदार कागज बनता है. इसकी लकड़ी को राल या रेजिन से मजबूत किया जाता है. कदंब की जड़ों से एक पीला रंग भी प्राप्त किया जाता है.

जंगलों को फिर से हरा-भरा करने, मिट्टी को उपजाऊ बनाने और सड़कों की शोभा बढ़ाने में कदंब महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह तेजी से बढ़ता है और छः से आठ वर्षों में अपने पूरे आकार में आ जाता है. इसलिये जल्दी ही बहुत-सी जगह को हरा-भरा कर देता है. विशालकाय होने के कारण यह ढ़ेर सी पत्तियाँ झाड़ता है जो जमीन के साथ मिलकर उसे उपजाऊ बनाती है. सजावटी फूलों के लिये इसका व्यवसायिक उपयोग होता है साथ ही इसके फूलो का प्रयोग एक विशेष प्रकार के इत्र को बनाने में भी किया जाता है. भारत में बनने वाला यह इत्र कदंब की सुगंध को चंदन में मिलाकर वाष्पीकरण पद्धति द्वारा बनाया जाता है. ग्रामीण अंचलों में इसका उपयोग खटाई के लिये होता है. इसके बीजों से निकला तेल खाने और दीपक जलाने के काम आता है.

इस प्रकार कदंब का वृक्ष प्रकृति और पर्यावरण को तो संरक्षण देता ही है, औषधि और सौन्दर्य का भी महत्तवपूर्ण स्रोत है.

 

 

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Friday, July 18, 2025


जरा आहट से टूटी नींद की टहनी।

ख्वाबों के जो फूल खिले थे बिखर गये।।


            डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Thursday, July 17, 2025


शाम का सूरज चाहे जितने रंग बिखेरे।

स्वर्णिम आभा सुबह का सूरज ही है देता।।

 

        डॉ. मंजूश्री गर्ग

Wednesday, July 16, 2025


सर्दी में धुंध छँटी, गर्मी में धूल।

धूप धुली बारिश प्रखर हो गयी।।


डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Tuesday, July 15, 2025


काँवर-जल

शिव का अभिषेक

गंगा जल से।

                  डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Monday, July 14, 2025


यूँ ही नहीं कोई किसी के गले का हार बन जाता है।

हार बनने से पहले फूलों को भी चुभन से गुजरना होता है।

                  डॉ. मंजूश्री गर्ग

  

Sunday, July 13, 2025

 

पं. श्रद्धाराम फिल्लौरी(शर्मा)

आरती ओम् जय जगदीश हरे के रचियता


डॉ. मंजूश्री गर्ग

जन्म-तिथि- 30 सितम्बर 1837, फुल्लौर गाँव, जालंधर(पंजाब)

पुण्य-तिथि- 24 जून, 1881, लाहौर, पाकिस्तान

पं. श्रद्धाराम शर्मा एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे, लेकिन उन्हें ख्याति आरती ओम् जय जगदीश हरे की रचना के कारण मिली। इसकी रचना सन् 1870 ई. में की थी। फिल्लौरी उपनाम फिल्लौर गाँव में जन्म लेने के कारण पड़ा। पं. जी सनातन धर्म के प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और संगीतज्ञ होने के साथ-साथ हिन्दी और पंजाबी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार भी थे।

 

पं. श्रद्दाराम शर्मा का जन्म लुधियाना के पास गाँव फुल्लौर में एक ज्योतिषी के यहाँ हुआ था। इनके पिता जय दयालु एक अच्छे ज्योतिषी व धार्मिक प्रवृत्ति के थे। श्रद्धाराम जी को धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। इनके पिता ने बचपन में ही इनका भविष्य पढ़ लिया था और कहा था कि ये बालक अपनी लघु जीवनी में चमत्कारी प्रभाव वाले कार्य करेगा। बचपन से ही इनको ज्योतिषी और साहित्य में गहरी रूचि थी। स्कूली शिक्षा प्राप्त न होने पर भी इन्होंने सात वर्ष की उम्र में गुरूमुखी लिपि सीख ली थी। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, फारसी, पर्शियन व ज्योतिषी की पढ़ाई शुरू की। कुछ ही वर्षों में ये सभी विषयों में निष्णात हो गये। इनका विवाह सिक्ख महिला से हुआ था।

 

पं. श्रद्धाराम शर्मा ने अपनी पहली पुस्तक गरूमुखी में लिखी थी लेकिन वे मानते थे कि हिन्दी के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है। उन्होंने अपने साहित्य व व्याख्यानों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जनता को जाग्रत किया। सनातन धर्म का प्रचार किया, वे जहाँ भी जाते थे अपनी लिखी आरती ओम् जय जगदीश हरे अवश्य गाते थे। भारत ही नहीं विश्व में सभी सनातनी मंदिरों व सनातन धर्म को मानने वाले व्यक्तियों के घर यह आरती गाई जाती है। गुरूमुखी और हिन्दी भाषा में अनेक रचनायें रचीं जैसे- सीखन दे राज दी विधिया, पंजाबी बातचीत, सत्यधर्म मुक्तावली, भाग्यवती, सत्यामृत प्रवाह, आदि। कुछ विद्वान भाग्यवती को हिन्दी साहित्य का प्रथम उपन्यास मानते हैं। लेकिन उनकी प्रसिद्धि प्रमुख रूप से आरती ओम् जय जगदीश हरे के कारण ही है।

 

                                                                                

Saturday, July 12, 2025


धूमिल न होने दें सुनहरे पलों की यादें।

यादों के चिरागों से ही रोशन है जिंदगी।।

  

            डॉ. मंजूश्री गर्ग

Friday, July 11, 2025


जिनको छूना है आकाश छू ही लेंगे

कौन रोकेगा परिंदों की उड़ानों को।

        डॉ. मंजूश्री गर्ग

  

Thursday, July 10, 2025


आँखें......

 

बोलती आँखें,

मुस्काती आँखें,

लरजती आँखें,

शराबी आँखें,

डराती आँखें,

बिन कहे, कितना

कहें ये आँखें।

        डॉ. मंजूश्री गर्ग

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Tuesday, July 8, 2025


चाँदनी रात है औ

नदी का जल शांत है,

उदास है धरा आज।

बादलों की ओट में,

चाँद के आगोश में,

सो रही है चाँदनी।


             डॉ. मंजूश्री गर्ग 

Monday, July 7, 2025

 

 बनारसी दास जैन

(हिन्दी साहित्य के प्रथम आत्म-कथाकार)

डॉ. मंजूश्री गर्ग

जन्म-तिथि   सन् 1586 ई. (जौनपुर)

पुण्य-तिथि  सन् 1643 ई. (जौनपुर)

 

बनारसी दास जैन एक कवि हैं और काव्य में ही इन्होंने अपना आत्म-चरित अर्ध कथानक नाम से लिखा. यह हिन्दी साहित्य का ही नहीं वरन् किसी भी भारतीय भाषा में लिखा प्रथम आत्म-चरित है. कवि ने 675 दोहा, चौपाई और सवैया में अपनी आत्म-कथा लिखी है. जब कवि ने यह ग्रंथ लिखा उस समय उनकी आयु लगभग 55 वर्ष थी. जैन धर्म के अनुसार व्यक्ति की आयु 110 वर्ष होती है, इसीलिये उन्होंने अपने आत्म-चरित का नाम अर्ध कथानक रखा.

 

बनारसी दास जैन के पिता का नाम खड्गसेन था और जौहरी थे. बनारसी दास जैन  का युवावस्था में व्यापार में मन नहीं लगता था. घर बैठे हुये मधुमालती और मृगावती पढ़ा करते थे, साथ ही छंद-शास्त्र, आदि ग्रंथों का भी अध्ययन करते थे. युवावस्था में इश्कबाजी (अनेक स्त्रियों से अवैध संबंध बनाने) के कारण इन्हें भयंकर रोगों का सामना करना पड़ा. जिसके कारण सगे-सबंधियों ने इनसे नाता तोड़ लिया. नवरस पर भी इन्होंने ग्रंथ लिखा था लेकिन उसमें अश्लीलता का पुट अधिक होने के कारण इन्होंने स्वयं ही ग्रंथ को गंगा में बहा दिया.

 

आत्म-चरित के लिये आवश्यक है कि रचियता अपने जीवन के, अपने चरित्र के गुण-दोषों का ईमानदारी से वर्णन करे. साथ ही कथा कहते समय समसामयिकी का वर्णन भी होना चाहिये. बनारसी दास जैन के आत्म-चरित में दोनों ही गुण देखने को मिलते हैं. इन्होंने अपने जीवन की अधिकांश घटनाओं का सच्चाई से वर्णन किया है, अपने जीवन के कमजोर पक्ष को भी अभिव्यक्त किया है.

उदाहरण-

कबहु आइ सबद उर धरै, कबहु जाइ आसिखी करै।

पोथी एक बनाइ नई, मित हजार दोहा चौपाई।

                          बनारसी दास जैन

 

तामहिं णवरस-रचना लिखी, पै बिसेस बरनन आसिखी।

ऐसे कुकवि बनारसी भए, मिथ्या ग्रंथ बनाए नए।

                               बनारसी दास जैन

 

कै पढ़ना कै आसिखी, मगन दुहू रस मांही।

खान-पान की सुध नहीं, रोजगार किछु नांहि।

                                   बनारसी दास जैन

 

दूसरे अर्ध कथानक में समसामयिकी का वर्णन भी देखने को मिलता है. बनारसीदास जैन ने अपने जीवन काल में अकबर, जहाँगीर व शाहजहाँ का शासन काल देखा था. जिसका वर्णन आत्म-चरित में किया है.

उदाहरण-

 

 

सम्बत सोलह स बासठा, आयौ कातिक पावस नठा।

छत्रपति आकबर साहि जलाल, नगर आगरै कीनौ काल।

                                    बनारसी दास जैन

 

आई खबर जौनपुर मांह, प्रजा अनाथ भई बिनु नाह।

पुरजन लोग भए भय-भीत, हिरद व्याकुलता मुख पीत।

                                    बनारसी दास जैन

 


Sunday, July 6, 2025


डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल

(हिन्दी साहित्य के पहले शोधार्थी)

डॉ. मंजूश्री गर्ग

जन्म तिथि- 13 दिसंबर, 1901(गढ़वाल)

पुण्य तिथि- 24 जुलाई, 1944(गढ़वाल)

 

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल हिन्दी साहित्य में डी. लिट् की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले शोधार्थी थे. बाबू श्याम सुंदर दास के निर्देशन में डॉ. बड़थ्वाल जी ने द निर्गुण स्कूल ऑफ हिन्दी पोयट्री(शोध-प्रबंध) अँग्रेजी भाषा में लिखा. इस पर काशी विश्व विद्यालय ने उन्हें डी. लिट् की उपाधि प्रदान की. हिन्दी साहित्य जगत में इस शोध-प्रबंध का ह्रदय से स्वागत हुआ. सभी विद्वानों ने प्रशंसा की.

प्रयाग विश्व विद्यालय के दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. रानाडे ने इस पर अपनी सम्मति व्यक्त करते हुआ कहा है कि यह केवल हिन्दी साहित्य की विवेचना के लिये ही नहीं अपितु रहस्यवाद की दार्शनिक व्याख्या के लिये भी एक महत्वपूर्ण देन है. बाद में यह शोध प्रबंध हिन्दी में निर्गुण सम्प्रदाय नाम से हिन्दी में प्रकाशित हुआ.

 

डॉ. बड़थ्वाल जी के समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे रचनाकार आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय थे, लेकिन उस समय हिन्दी साहित्य के गहन अध्ययन और शोध को कोई ठोस आधार नहीं मिल पाया था. डॉ. बड़थ्वाल जी ने इस परिदृश्य में अपनी अन्वेषणात्मक क्षमता के सहारे हिंदी क्षेत्र में शोध की सुदृढ़ परंपरा की नींव डाली. उन्होंने पहली बार संत, सिद्ध, नाथ और भक्ति साहित्य की खोज और विश्लेषण में अपनी अनुसंधात्मक दृष्टि को लगाया. शुक्ल जी से भिन्न उन्होंने भक्ति आन्दोलन को हिन्दू जाति की निराशा का परिणाम नहीं अपितु उसे भक्ति-धारा का सहज-स्वाभाविक विकास प्रमाणित किया. उनके शोध-लेख गंभीर मनन व अध्ययन के परिचायक हैं. उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये जिस भाषा का प्रयोग किया, उस पर भी विशेष ध्यान रखा. शब्द चाहें किसी भाषा(संस्कृत, अवधी, ब्रज भाषा, अरबी, फारसी) के प्रयोग किये हों, उन्हें खड़ी बोली के व्याकरण और उच्चारण में ढ़ालकर ही अपनाया. उन्होंने स्वयं कहा है,

भाषा फलती फूलती तो है साहित्य में, अंकुरित होती है बोलचाल में, साधारण बोलचाल पर बोली मँज-सुधरकर साहित्यिक भाषा बन जाती है.