श्रम से भरें
जीवन सरोवर
खिलें कमल।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जन्म-तिथि- 4
अक्टूबर, सन् 1884 ई.
पुण्य-तिथि- 2 फरवरी, सन् 1941 ई.
आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक हिन्दी साहित्य का इतिहास है.
सन् 1940 ई. तक के हिन्दी साहित्य के काल-निर्धारण व कालों के नामकरण के लिये सबसे
महत्वपूर्ण पुस्तक के रूप में जानी जाती है. जबकि अनेक विद्वानों ने हिन्दी
साहित्य का इतिहास लिखा है. शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय
कवियों के परिचय के साथ उनके काव्य की प्रवृत्तियों पर विशेष ध्यान दिया है. साथ
ही समीक्षायें भी लिखी हैं.
आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल के पिता पं. चंद्रबली शुक्ल इनको वकील बनाना चाहते थे. लेकिन इनकी
रूचि हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य में थी. सन् 1903 ई. से सन् 1908 ई. तक आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने आनंद कादम्बिनी पत्रिका के सहायक संपादक का कार्य किया.
इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर बाबू श्याम सुंदर दास ने इनको हिन्दी शब्द सागर के
सहायक संपादक का भार सौंपा. जिसे इन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया. बाबू जी के
शब्दों में हिन्दी शब्द सागर की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश
श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को प्राप्त है. ये नागरी प्रचारिणी पत्रिका के
भी संपादक रहे. सन् 1919 ई. में काशी हिंदू विश्व विद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक
पद पर नियुक्त हुये. इन्होंने काशी नागरी प्रचारिणी सभा में रहते हुये हिन्दी की
बहुत सेवा की.
हिन्दी साहित्य
का इतिहास में स्वयं आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल ने कहा है “इस तृतीय उत्थान(सन् 1918 ई.) में समालोचना का आदर्श भी
बदला. गुण-दोष के कथन से आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और अन्तःप्रवृत्ति की
छानबीन की ओर ध्यान दिया गया.” समीक्षक के
रूप में शुक्ल जी ने अपनी पद्धति को युग के अनुरूप बनाया. कवियों की कृतियों की
समीक्षा करते समय रस, अलंकार के साथ-साथ कृतियों को मनोविज्ञान के आलोक में भी
परखा. नलिन विलोचन शर्मा ने अपनी पुस्तक साहित्य का इतिहास दर्शन में
कहा है, “शुक्ल जी से बड़ा समीक्षक सम्भवतः उस युग में
किसी भी भारतीय भाषा में नहीं था.”
आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल आलोचक, समीक्षक, निबन्धकार होने के साथ-साथ कवि भी थे. उदाहरण-
देखते हैं जिधर ही उधर ही रसाल पुंज
मंजू मंजरी से मढ़े फूले न
समाते हैं।
कहीं अरूणाभ, कहीं पीत
पुष्प राग प्रभा,
उमड़ रही है, मन मग्न हुये
जाते हैं।
कोयल उसी में कहीं छिपी कूक
उठी, जहाँ-
नीचे बाल वृन्द उसी बोल से
चिढ़ाते हैं।
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जन्म-तिथि- 7 जुलाई, सन् 1883 ई.
पुण्य-तिथि- 12 सितम्बर, सन् 1922 ई.
चन्द्रधर शर्मा
गुलेरी जी को हम हिन्दी साहित्य में प्लेटोनिक लव पर लिखी अमर प्रेम कथा उसने
कहा था के रचनाकार के रूप मे अधिक जानते हैं जबकि वह हिन्दी भाषा के अनन्य
प्रेमी व हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं के रचनाकार हैं. पिता ज्योतिर्विद
महामहोपाध्याय पं. शिवराम शास्त्री मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के रहने
वाले
थे. जयपुर के
राजा से राज सम्मान पाकर जयपुर में बस गये थे. गुलेर गाँव के होने के कारण ही इनके
नाम के आगे उपनाम गुलेरी लगा. गुलेरी जी ने बचपन में ही वेद, पुराणों का अध्ययन कर
लिया था. उन्हें हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला, मराठी ही नहीं अंग्रेजी, फ्रेंच व
जर्मन भाषाओं का भी ज्ञान था.
चन्द्रधर शर्मा
गुलेरी जी ने अपने अध्ययन काल में ही सन् 1900 ई. में जयपुर में नागरी मंच की
स्थापना की थी. सन् 1902 ई. में ‘समालोचक’ के संपादक बने. गुलेरी जी काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के
संपादक मंडल में भी रहे. सन् 1920 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचार्य
बने. गुलेरी जी सन् 1912 ई. में जयपुर में वेधशाला के जीर्णोद्धार के लिये गठित
मण्डल में सम्मिलित रहे व कैप्टेन गैरेट के साथ मिलकर ‘द जयपुर ऑब्जरवेटरी एण्ड इट्स विल्डर्स’ शीर्षक ग्रंथ की
रचना की.
चन्द्रधर शर्मा
गुलेरी जी की रूचि व ज्ञानक्षेत्र धर्म, ज्योतिष, इतिहास, पुरातत्व, दर्शन,
भाषाविज्ञान, शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान,
राजनीति, समसामयिक सामाजिक स्थिति तक फैला हुआ था. अपने संक्षिप्त जीवन काल में
किसी स्वतन्त्र ग्रंथ की रचना न कर पाने पर भी विविध विषयों पर लेख, समीक्षायें,
आदि लिखीं. हिन्दी साहित्य में भी कहानियों के अतिरिक्त विवेचनात्नक निबन्ध व
कवितायें लिखीं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी
की कविता का उदाहरण-
आए प्रचंड रिपु, शब्द गुन उन्हीं का
भेजी सभी जगह एक झुकी कमान
ज्यों युद्ध चिह्न समझे सब लोग धाए,
त्यों साथ ही कह रही यह व्योम वाणी
सुना नहीं क्या रण शंखनाद?
चलो पके खेत किसान छोड़ो
पक्षी इन्हें खाएँ, तुम्हें पड़ा क्या?
भाले भिदाओ, अब खड्ग खोलो
हवा इन्हें साफ किया करेगी
लो शस्त्र, हो लालन देख छाती
स्वाधीन का सुत किसान सशस्त्र दौड़ा
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी।
एक बार रूक्मणीजी श्रीकृष्ण
से पूछती हैं कि मैं तुम्हारी पटरानी हूँ लेकिन प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारे नाम के
साथ राधा का ही नाम लेते हैं। तब श्रीकृष्ण रूक्मणी से कहते हैं-
माना कि प्रीत सच्ची है तुम्हारी,
पर झूठी राधा की भी नहीं।
तुम्हें मैंने मान दिया, सम्मान दिया,
जीवन अपना तुम्हें सौंप दिया।
राधा को केवल अपना नाम दिया।
डॉ. मंजूश्री गर्ग
भारत-रत्न
राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन
डॉ. मंजूश्री गर्ग
जन्म-तिथि-1अगस्त, सन् 1882 ई. इलाहाबाद(उ.प्र.)
पुण्य-तिथि-1जुलाई, सन् 1962 ई.
राजर्षि
पुरूषोत्तम दास टंडन अत्यंत मेधावी व बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. वह एक स्वतंत्रता
सेनानी, राजनेता, साहित्यकार व समाज सुधारक थे. राजनीति में प्रवेश उनका हिंदी
प्रेम के कारण ही हुआ था. वे हिन्दी को स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये साधन मानते
थे. स्वतन्त्रता प्राप्ति उनका साध्य था. उन्होंने स्वयं कहा है, “यदि हिन्दी भारतीय स्वतन्त्रता के आड़े आयेगी तो मैं स्वयं
उसका गला घोंट दूँगा.” वे हिन्दी को देश की आजादी
से पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी बनाये
रखने का.
10 अक्टूबर,
सन् 1910 ई. को काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम
अधिवेशन हुआ तभी राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन इसके मंत्री बने और वह हमेशा हिन्दी
के उत्कर्ष के लिये कार्य करते रहे. टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिये
हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की. इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी
भाषा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था.
‘हिन्दी’ को राष्ट्र भाषा और ‘वन्देमातरम्’ को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिये राजर्षि पुरूषोत्तम
दास टंडन ने अपने सहयोगियों के साथ एक अभियान चलाया और करोड़ों देशवासियों के
हस्ताक्षर व समर्थन पत्र एकत्र किये. सन् 1949 ई. के संविधान सभा में टण्डन जी के ही प्रयास से हिन्दी राष्ट्र भाषा के पद पर
आसीन हुई और देवनागरी लिपि राजलिपि बनी. ‘वन्देमातरम्’ को राष्ट्रगीत घोषित किया गया.
साहित्यकार के
रूप में राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन ने निबंध, लेख व कवितायें भी लिखी हैं.
अंग्रेजी शासन के विरूद्ध अपने विचार टंडन जी ने प्रस्तुत पंक्तियों में अभिव्यक्त
किये हैं-
एक-एक के गुण नहिं देखें, ज्ञानवान का नहिं आदर
लड़ै कटै धन पृथ्वी छीनैं, जीव सतावैं लेवैं कर।
भई दशा भारत की कैसी, चहूँ ओर विपदा फैली,
तिमिर आन घोर है छाया, स्वारथ साधन की शैली।
पुरूषोत्तम दास टंडन
राजर्षि
पुरूषोत्तम दास टंडन के बहुआयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें ‘राजर्षि’ की उपाधि से
विभूषित किया गया. 15 अप्रैल, 1948 ई. की सांध्यबेला में सरयूतट पर महन्त देवरहा
बाबा ने वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पुरूषोत्तम दास टंडन को राजर्षि की उपाधि से
अलंकृत किया. ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य ने इसे शास्त्र सम्मत माना. राजर्षि
पुरूषोत्तम दास टंडन को सन् 1961 ई. में भारत के सर्वोच्च राजकीय सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित
किया गया.
बाबू श्याम सुंदर दास
जन्म-तिथि- सन् 1875 ई.
पुण्य-तिथि- सन् 1945 ई.
बाबू श्याम
सुंदर दास हिन्दी भाषा के अनन्य साधक, विद्वान, आलोचक व शिक्षाविद् थे. उन्होंने
अपना सारा जीवन हिन्दी सेवा को समर्पित किया. विद्यार्थी जीवन में ही उन्हें यह
आभास हुआ कि हिन्दी में पाठ्य पुस्तकों का, पाठ्य साम्रगी का अभाव है. इसके लिये
बाबू श्याम सुंदर दास ने अपने मित्रों के साथ मिलकर सन् 1893 ई. में काशी नागरी
प्रचारिणी सभा की स्थापना की और सम्पूर्ण भारतवर्ष से हिन्दी की प्रकाशित,
अप्रकाशित पुस्तकें एकत्र कीं. निरंतर पचास वर्षों से भी अधिक हिन्दी साहित्य की
सेवा करते रहे. हिन्दी कोश, हिन्दी साहित्य का इतिहास, भाषा-विज्ञान,
साहित्यालोचन, सम्पादित ग्रंथों का निर्माण स्वयं भी किया और अन्य हिन्दी प्रेमी
साहित्यकारों को अपने साथ साहित्य की सेवा के लिये प्रोत्साहित किया. विश्व
विद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई के लिये पाठ्य पुस्तकें तैय्यार करीं.
बाबू श्याम
सुंदर दास सन् 1895-96 ई. में नागरी प्रचारिणी पत्रिका के संपादक बने. सन्
1899 ई. से सन् 1902 ई. तक सरस्वती पत्रिका के भी संपादक रहे. सन् 1921 ई.
में काशी हिंदू विश्व विद्यालय में हिन्दी विभाग खुल जाने पर हिन्दी विभाग के
अध्यक्ष बने. बाबू श्याम सुंदर दास ने अध्यक्ष पद पर रहते हुये पाठ्यक्रम के
निर्धारण से लेकर हिन्दी भाषा और साहित्य की विश्वविद्यालयस्तरीय पुस्तकों का
संपादन किया व पुस्तकों का निर्माण कराया. शिक्षा के मार्ग की अनेक बाधाओं को
हटाया और जीवन पर्यन्त हिन्दी विभाग का कुशल संचालन व संवर्धन करते रहे.
बाबू श्याम
सुंदर दास हिन्दी शब्द सागर के प्रधान संपादक थे. यह विशाल शब्द कोश इनके
अप्रतिम बुद्धिबल और कार्यक्षमता का प्रमाण है. सन् 1907 ई. से सन् 1929 ई. तक
अत्यंत निष्ठा से इसका संपादन और कार्यसंचालन किया. हिन्दी शब्द सागर के
प्रकाशन के अवसर पर इनकी सेवाओं को मान्यता देने के निमित्त कोशोत्सव स्मारक
संग्रह के रूप में इन्हें अभिनंदन ग्रंथ अर्पित किया गया.
हिन्दी सेवाओं
से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने बाबू श्याम सुंदर दास को रायबहादुर की
उपाधि से सम्मानित किया. बाबू श्याम सुंदर दास को हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने
साहित्यवाचस्पति और काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने डी. लिट्. की
उपाधि से सम्मानित किया. मैथिलीशरण गुप्त ने बाबू श्याम सुंदर दास के सम्मान में
कहा है-
मातृभाषा के हुए जो विगत वर्ष पचास।
नाम उनका एक ही श्याम सुंदर दास।।
डॉ. राधा
कृष्णन् ने कहा है-
बाबू श्याम
सुंदर दास अपनी विद्वता का वह आदर्श छोड़ गये हैं जो हिन्दी के विद्वानों की
वर्तमान पीढ़ी को उन्नति करने की प्रेरणा देता रहेगा.